शामली: सात सितंबर 2013 को अपने गांव में दंगे भड़कने के दो दिन बाद, नसरीन को रात के अंधेरे में उस ट्रैक्टर की सवारी याद है. उस समय वे महज़ 10 साल की थीं—उसके माता-पिता से लेकर हर कोई, उसके पड़ोसी तक उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर जिले के मोहम्मदपुर मदन गांव में उस घर की ओर भाग रहे थे जिसे वो जानते थे.
दस साल बाद भी नसरीन जैसे लोगों का जीवन ‘दंगों से पहले’ और ‘दंगों के बाद’ के बीच बंटा हुआ है.
9 मई को मुजफ्फरनगर की एक ट्रायल कोर्ट ने 2013 के सांप्रदायिक दंगों के दौरान शामली जिले के लंक गांव में एक महिला अस्मत (बदला हुआ नाम) से गैंगरेप के लिए दो लोगों को दोषी ठहराया, जिसने पश्चिमी यूपी को प्रभावित किया था. हालांकि, फैसले के बाद भी नसरीन के पड़ोस में विस्थापित हुए लोग बस आगे बढ़ना चाहते हैं.
दंगों के बाद विस्थापित होकर परिवार सहित मुजफ्फरनगर के बागोवाली गांव आए इकबाल ने कहा, “हम भी क्या कहते? हममें से कई लोगों ने कोई मामला दर्ज नहीं कराया या कानूनी कार्रवाई नहीं की. हम कभी वापस नहीं जाना चाहते हैं. हम जिसे भी जानते हैं उन्होंने गांव छोड़ दिया है. वहां अब बस खाली घर हैं.”
मुजफ्फरनगर के फुगना थाने में दंगों से जुड़ी 1,500 एफआईआर दर्ज की गईं. अस्मत के गैंगरेप की एफआईआर 2014 में दर्ज की गई थी. इनमें से लगभग 700 को पुलिस द्वारा “झूठा” निर्धारित करने के बाद निष्कासित कर दिया गया था और लगभग 700 अभियुक्तों को बरी कर दिया गया. वर्तमान में पीड़ित परिवारों द्वारा मुट्ठी भर दंगों के मामलों को सक्रिय रूप से लड़ा जा रहा है.
जहां, कई पीड़ित अगस्त-सितंबर 2013 में जो कुछ हुआ उससे दूरी बनाए हुए हैं, मुजफ्फरनगर और शामली जिलों के दंगा प्रभावित गांवों में कई हिंदू इस बात से इनकार करते हैं कि बलात्कार हुआ था.
दंगे के समय लंक गांव के प्रधान रहे सुधीर मलिक ने दिप्रिंट को बताया, “मुझे नहीं लगता कि यहां रेप की कोई घटना हुई है.”
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ट्रैक्टर की सवारी
नसरीन के भागने की यादें भले ही धुंधली हो गई हों लेकिन उस रात का डर आज भी जिंदा है.
10 साल पहले की आधी रात को उस ट्रैक्टर की सवारी को याद करते हुए वे कहती हैं, “सच में वहां अंधेरा था. मुझे याद है कि मैं अपने परिवार से अलग होने और खो जाने से डर रही थी.”
उन्हें और उनके परिवार को उनके ग्राम प्रधान, धर्मेंद्र ने बचाया था. नसरीन और उनका परिवार उस दया को अब भी याद करते हैं. धर्मेंद्र ने दो दिनों तक कई मुस्लिम परिवारों को अपने घर में पनाह दी थी.
नसरीन याद करती हैं, “लेकिन बहुत घबराहट थी. हम बड़ी मुश्किल से बाहर निकले थे.” इस घटना के बाद वो एक साल तक स्कूल नहीं जा पाईं थीं
उनके पिता रईस याद करते हैं कि बागोवाली की एक बस्ती में जाने से पहले उन्होंने मुजफ्फरनगर के कैराना गांव में लगभग छह महीने इधर-उधर घूमते हुए बिताए थे. इस इलाके को ‘नई बस्ती’ कहा जाता है, इसमें लगभग 10-15 परिवार हैं जो 2013 के दंगों के बाद यहां से चले गए थे.
इन परिवारों के लिए स्थानीय मदरसे से मदद मिली, जिसने विस्थापित परिवारों के लिए घर बनाने के लिए ग्रामीणों से धन एकत्र किया.
इकबाल बताते हैं, “गांव हो या शहर, दोनों तरह के लोग होते हैं. अच्छा और बुरे दोनों.”
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‘वे चुप रहे’
8 सितंबर 2013 को अस्मत अपने तीन महीने के बच्चे को गोद में लेकर अपने परिवार से बिछड़ गई क्योंकि वे दंगों के बारे में सुनकर लंक गांव से भागने में व्यस्त थे. अदालत के फैसले में कहा गया है कि पी़ड़िता पास के एक गन्ने के खेत में छिपी हुई थी, लेकिन उसके बच्चे के रोने से उसका ठिकाना तीन आदमियों – कुलदीप, महेशवीर और सिकंदर को मिल गया. फिर तीनों ने बारी-बारी से उसके बेटे के गले पर चाकू रखकर उसके साथ बलात्कार की घटना को अंजाम दिया.
अस्मत को अपने जाट पड़ोसियों की मदद भी याद है, जिसके बारे में उन्होंने अदालत को भी बताया था. गैंगरेप से एक दिन पहले, संजीव, देशपाल और सोबरन ने यह सुनिश्चित करने के लिए अपनी गली में रात बिताई थी कि मुजफ्फरनगर और शामली के अन्य हिस्सों में दंगे होने के कारण मुस्लिम परिवारों को भीड़ नुकसान न पहुंचाये.
ट्रायल कोर्ट ने अपने 9 मई के फैसले में अस्मत की इस दलील का संज्ञान लिया. इसने बताया कि पीड़िता और उसके पति ने बहुसंख्यक समुदाय के सदस्यों का भी ज़िक्र किया था, जो मुस्लिम समुदाय के लोगों को बचाने के लिए रात भर उनके घर की रखवाली करते थे. इसलिए, अदालत ने इस तर्क को खारिज कर दिया कि आरोपी पुरुषों को इस मामले में सिर्फ इसलिए फंसाया जा रहा है क्योंकि वे बहुसंख्यक समुदाय के हैं.
अस्मत अब कहती हैं कि जो आदमी उस रात पहरा दे रहे थे, वे चाहते तो अगली सुबह भी उन्हें बचा सकते थे. “वे लोग (दंगाई) उनके समुदाय के थे. वे उन्हें बता सकते थे कि यह गलत है, लेकिन वे चुप रहे.”
‘गांव वालों से पूछो’
अदालत में, महेशवीर ने आरोपों से इनकार किया और दावा किया कि वो नपुंसक था, जिससे वह किसी भी महिला के साथ यौन संबंध बनाने में शारीरिक रूप से अक्षम था. उसने कहा कि यही कारण था कि उसने कभी शादी नहीं की और इलाज कराने की कोशिश की. हालांकि, अदालत ने इस दावे को खारिज कर दिया क्योंकि उसने इसका समर्थन करने के लिए कोई मेडिकल सबूत पेश नहीं किए थे.
कुलदीप ने दावा किया कि वो विकलांग है और इसलिए पीड़िता के साथ बलात्कार नहीं कर सकता था. हालांकि, अदालत ने स्पष्ट किया कि केवल पीड़िता के सबूतों की विश्वसनीयता को जांच करने के लिए, वह कुलदीप की दलीलों पर विचार कर रही थी, जिसकी मुकदमे के दौरान मृत्यु हो गई थी. अदालत ने देखा कि कुलदीप की शारीरिक स्थिति को साबित करने के लिए मौके पर “कोई सबूत नहीं था” और इससे पीड़िता की गवाही पर संदेह हो सकता है.
तीसरे आरोपी सिकंदर ने भी आरोपों का खंडन किया और कहा कि मुजफ्फरनगर दंगों के दौरान बलात्कार की शिकार महिलाओं के लिए 5 लाख रुपये के मुआवजे की राज्य सरकार की घोषणा के कारण उसे झूठे आरोप में फंसाया गया.
सिकंदर की बहन सीमा मलिक का कहना है कि उसका भाई निर्दोष है, “गांव के लोगों से पूछिए कि बलात्कार हुआ था या नहीं”. परिवार अभी भी लंक में रहता है. अपने भाई के बचाव में उसने कहा कि आरोप वित्तीय लाभ के लिए लगाए गए थे. सिकंदर के छोटे भाई को भी हत्या के मामले में आरोपों का सामना करना पड़ा, जिसका दावा है कि उसने पीड़ित परिवार को कथित तौर पर लगभग 50 लाख रुपये का भुगतान करके “बसाया” है.
सीमा का इनकार भारत में अन्य दंगों, विशेष रूप से 2002 के गुजरात दंगों की सुस्त यादों की ओर भी ध्यान आकर्षित करता है. वह उस कथित तेज़ी के बारे में सवाल उठाती हैं जिस तरह उसके भाई का मामला सुलझाया गया. उन्होंने कहा, “गुजरात दंगों के मामलों का क्या हुआ? केवल सिकंदर के मामले को ही इतनी तेजी से क्यों निपटाया गया?”
इस बीच मलिक के अनुसार, लंक में विस्थापित मुस्लिम परिवारों के लगभग 90 प्रतिशत घर बिक चुके हैं. हालांकि, लंक सहित कई दंगा प्रभावित गांवों में इसके बाद बचे हुए जीर्ण-शीर्ण घरों के समूह बने हुए हैं. कभी जाटों के स्वामित्व वाले घरों के साथ रहने वाले घर अब खंडहर की तरह खड़े हैं, कुछ गाय के गोबर और घास के भंडारण के रूप में काम आते हैं.
लेकिन ये मुस्लिम परिवार कभी वापस नहीं लौटने का मजबूत इरादा लिए हुए हैं.
दंगों के बाद विस्थापित हुए 13 अन्य मुसलमानों के अनुमोदन के बीच इकबाल कहते हैं, “हमें ऐसे समाज में रहना चाहिए जहां हमारा सम्मान किया जाता हो. कोई फर्क नहीं पड़ता कि कौन सा गांव या शहर है.”
(संपादन: फाल्गुनी शर्मा)
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