scorecardresearch
Friday, 22 November, 2024
होमदेशभारत में जोर पकड़ रहा ‘राइट टू बी फॉरगॉटन’, हाईकोर्ट ने कई याचिकाओं पर सुनाए फैसले

भारत में जोर पकड़ रहा ‘राइट टू बी फॉरगॉटन’, हाईकोर्ट ने कई याचिकाओं पर सुनाए फैसले

यद्यपि 2017 के एक फैसले में ‘भुला दिए जाने के अधिकार’ को ‘गोपनीयता के अधिकार’ के तौर पर मान्यता दे दी गई थी लेकिन ऑनलाइन प्लेटफॉर्म का तर्क है कि कुछ मामलों में इसका असर सूचना के अधिकार पर भी पड़ सकता है.

Text Size:

नई दिल्ली: ‘भुला दिए जाने के अधिकार’ को ‘गोपनीयता के अधिकार’ के तौर पर मान्यता देते हुए सुप्रीम कोर्ट ने 18 जुलाई को अपनी रजिस्ट्री को वैवाहिक मुकदमों का सामना करने वाले वादियों का व्यक्तिगत ब्योरा हटाने का एक मैकेनिज्म तैयार करने का आदेश दिया है.

जस्टिस संजय किशन कौल की अगुवाई वाली पीठ ने उस महिला की याचिका को मेरिट के आधार पर सुना, जिसमें कहा गया था कि उसकी व्यक्तिगत जानकारी, जैसे उसके पति का नाम और आवासीय पता, या तो हटा दी जाए या फिर उसके मामले के फैसले से इसे छिपाया जाए जो अब सुप्रीम कोर्ट की वेबसाइट पर अपलोड किया गया है, जहां से इसे अलग-अलग ऑनलाइन प्लेटफॉर्म पर शेयर किया गया है. मामले में महिला के नाम को पहले ही उजागर नहीं किया गया है.

इस मामले में पत्नी की तरफ से दावा किया गया था कि वह बलात्कार की शिकार थी और उसने अपने पति पर ‘जीवन के लिए खतरनाक एक संक्रामक बीमारी’ फैलाने का भी आरोप लगाया. महिला कर्नाटक हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट दोनों में अपना मामला हार चुकी है, जिसने बलात्कार के आरोपों को इस आधार पर खारिज कर दिया कि ‘उक्त अपराध के खिलाफ पतियों को कानूनी संरक्षण हासिल है.’

भले ही दोनों फैसलों में उसकी पहचान को छिपा दिया गया था, लेकिन उसके पति के बारे में जानकारी दी गई थी. इससे परिचितों को उसके बारे में पता चलते देर नहीं लगी. उसने पीठ से कहा, इस तरह के सामाजिक कलंक से उसे ‘बहुत नुकसान’ हो रहा है. इस तरह सार्वजनिक तौर पर उसकी जानकारी सामने आना उसकी निजता के अधिकार का हनन है, जिसमें भूल जाने का अधिकार भी शामिल है.

सुप्रीम कोर्ट में ‘राइट टू बी फॉरगॉटन’ संबंधी उसकी याचिका का पति ने भी समर्थन किया. महिला के वकील ने कहा कि हर बार जब कोई सर्च इंजन पर ‘वैवाहिक विवाद’, ‘यौन अपराध’ या ऐसे कोई अन्य संबंधित शब्द दर्ज करता है तो अदालत फैसले सामने आते हैं.

महिला पहले ही कर्नाटक हाई कोर्ट के समक्ष भी इसी तरह की याचिका दायर कर चुकी है. यह मामला ‘भुला देने के अधिकार’ को लेकर दायर कई याचिकाओं में से एक है.

के.एस. पुट्टास्वामी बनाम भारत संघ मामले में 2017 के ऐतिहासिक फैसले में निजता के अधिकार के तौर मान्यता हासिल करने के बावजूद देश भर की विभिन्न हाईकोर्ट में दायर ऐसे मामलों ने काफी देरी से जोर पकड़ा है.

इनमें से अधिकांश मामलों में कुछ अपवाद छोड़ दिए जाएं तो बाकी में याचिकाकर्ताओं को अंतरिम राहत मिली है.

इस बीच, दिल्ली हाईकोर्ट के समक्ष लंबित याचिकाओं के एक बैच के संदर्भ में गूगल इंडिया ने हाल ही में तर्क दिया कि भूल जाने के अधिकार से जुड़े मामले अलग-अलग ‘तरीके के और असर वाले’ हो सकते हैं, इसलिए इन्हें लेकर कोई ब्लैंकेट ऑर्डर (एकतरफा समान आदेश) पारित नहीं किया जा सकता है.

दिप्रिंट इस विवादास्पद मुद्दे को लेकर भुला देने के अधिकार, इसकी शुरुआत, पिछले आदेशों और परस्पर विरोधी अदालती फैसलों पर एक नजर डाल रहा है.

सब कुछ मिटा देने का अधिकार

भुला देने का अधिकार का मतलब है कुछ खास परिस्थितियों में निजी जानकारी को इंटरनेट से पूरी तरह हटा देने का अधिकार. किसी व्यक्ति को अतीत की किसी घटना या कार्रवाई का ‘कलंक’ झेले बिना अपने जीवन में आगे बढ़ने का अधिकार होने को इसका आधार बनाया गया है.

केएस पुट्टास्वामी बनाम संघ मामले के फैसले के बाद भारत में इस अधिकार को मुखर ढंग से ताकत मिली.

निजता के अधिकार को अनुच्छेद 21 (जीने और स्वतंत्रता का अधिकार) में निहित रूप से मान्यता मिली है. पुट्टास्वामी मामले में सुप्रीम कोर्ट ने ऐसे अधिकार के अस्तित्व पर ध्यान दिया. एक नियम का उल्लेख करते हुए, जिसके तहत भारतीय विशिष्ट पहचान प्राधिकरण (यूआईडीएआई) को ऑथेंटिकेशन ट्रांजेक्शन डेटा छह महीने बनाए रखने और पांच साल के लिए आर्काइव में रखने की अनुमति मिली थी, कोर्ट ने इस तरह के अधिकार के उल्लंघन का उल्लेख किया.

सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहा है, ‘ऐसे नियमों से नागरिकों का डेटा मिटाने का अधिकार या राइट टू बी फॉरगॉटेन गंभीर रूप से प्रभावित होता है.’

चूंकि यह मुद्दा काफी ज्यादा सुर्खियों में रहा था, सभी क्षेत्रों में प्रौद्योगिकी के लगातार बढ़ते उपयोग के बीच प्रस्तावित व्यक्तिगत डेटा संरक्षण विधेयक भूल जाने के अधिकार की अवधारणा के साथ पेश किया गया. मसौदा कानून में एक प्राधिकरण बनाने की परिकल्पना की गई, जहां कोई व्यक्ति ऐसी सूचना के प्रसार पर रोक के लिए आवेदन कर सकता है जो प्रकृति में निजी हो सकती है और संवेदनशील हो सकती है या फिर जो किसी के जीवन को प्रभावित करने वाली हो सकती है.

अंतरराष्ट्रीय स्तर पर, जनरल डेटा प्रोटेक्शन रेग्युलेशन ऑफ द यूरोपियन यूनियन यह तय करता है कि निजी डेटा को कैसे एकत्र, प्रोसेस और मिटाया जाना चाहिए. राइट टू बी फॉरगॉटेन काफी दबाव के बाद ईयू कोर्ट ऑफ जस्टिस के 2014 के एक फैसले के बाद हासिल हुआ था, जिसमें कहा गया था कि अगर अनुरोध किया जाए तो गूगल को ‘अपर्याप्त, अप्रासंगिक या एक समय के बाद प्रासंगिक नहीं रहा’ डेटा हटाना होगा, और यह नियम-कानूनों में शामिल प्रावधानों को खत्म करने का रास्ता खोल रहा है.


यह भी पढ़ेंः जेल नहीं जुर्माना- कैसे पर्यावरण कानूनों को और ‘सख़्त’ बनाने जा रही है मोदी सरकार


‘शेप और शेड, विभिन्न परिस्थितियां’

चूंकि भुला देने का अधिकार ‘सूचना के अधिकार’ पर असर डाल सकता है, जो व्यापक सार्वजनिक हित या राज्य की वैधानिक जरूरतों के लिए भी समान रूप से महत्वपूर्ण अधिकार है. ऐसे में ऑनलाइन प्लेटफॉर्म का तर्क है कि भुला देने का अधिकार विभिन्न परिस्थिति में सभी लोगों को समान रूप से मुहैया नहीं कराया जा सकता है.

गूगल इंडिया ने बुधवार को जस्टिस यशवंत वर्मा की पीठ के समक्ष दलील दी कि इस तरह के अधिकार के विभिन्न ‘शेप और शेड’ होते हैं.

गूगल इंडिया की ओर से पेश हुए वरिष्ठ वकील अरविंद निगम ने दलील दी कि भुला देने के अधिकार का आवेदन अलग-अलग मामलों में अलग-अलग परिस्थितियों पर निर्भर करता है और इन दोनों अधिकारों के बीच ग्रे एरिया भी मौजूद है—गोपनीयता और भुला दिया जाना. इसलिए, इस मामले में गहन विश्लेषण की आवश्यकता है.

बरी, लेकिन दाग बरकरार

दिल्ली हाई कोर्ट ने ऐसी कई याचिकाओं को स्वीकार किया है, जहां लोगों ने विभिन्न सोशल मीडिया प्लेटफार्मों से अपने विवरण को हटाने की मांग करते हुए अदालत का दरवाजा खटखटाया है.

निगम ने दिल्ली हाई कोर्ट के 2021 के फैसले की जिक्र किया, जिसमें उन्होंने कहा, ‘स्नोबॉलिंग इफेक्ट’ पड़ रहा है.

2021 के मामले में जोरावर सिंह मुंडी नामक एक व्यक्ति ने एक फैसले को इंटरनेट से हटाने की मांग की थी, जिसमें उसे अंततः बरी कर दिया गया था.

एक अमेरिकी-भारतीय नागरिक मुंडी पर 2009 में मादक द्रव्य विरोधी कानून, नारकोटिक ड्रग्स एंड साइकोट्रोपिक सब्सटेंस, एक्ट, 1985 के तहत अपराध का आरोप लगा था. बाद में 2011 में उन्हें सभी आरोपों से मुक्त कर दिया गया.

उन्होंने तर्क दिया था कि एक शानदार अकादमिक रिकॉर्ड के बावजूद वह ये फैसला ऑनलाइन मौजूद होने के कारण नौकरी पाने में सफल नहीं हो रहे.

उनकी याचिका पर फैसला करते हुए जस्टिस प्रतिभा सिंह ने कहा था कि इस मुद्दे पर याचिकाकर्ता के निजता के अधिकार और सार्वजनिक स्तर पर सूचना के अधिकार के साथ-साथ न्यायिक रिकॉर्ड को बरकरार रखने के बीच परस्पर संबंध बनाए रखने की आवश्यकता है.

हालांकि, मुंडी को पहुंची अपूरणीय क्षति को ध्यान में रखते हुए जस्टिस सिंह ने उन्हें अंतरिम सुरक्षा प्रदान करते हुए गूगल और अदालती फैसलों के लिए चर्चित एक वेबसाइट, भारतीय कानून से हटाने का आदेश दिया.

तबसे, अक्सर दिल्ली हाई कोर्ट के फैसले को ही विभिन्न उच्च न्यायालयों के समक्ष उद्धृत किया गया है जब भी याचिकाकर्ताओं ने इंटरनेट से अपना निजी विवरण हटाने की मांग की है.

उड़ीसा हाई कोर्ट के समक्ष आए 2020 के एक और मामले पर गौर करें. अंतरंग तस्वीरें साझा किए जाने के मामले में हाई कोर्ट ने जानकारियों के प्रवाह को समझाने के लिए टूथपेस्ट का उदाहरण दिया.

कोर्ट ने कहा, ‘वास्तव में सार्वजनिक डोमेन में आई कोई जानकारी टूथपेस्ट की तरह है. एक बार जब यह ट्यूब से बाहर हो जाता है तो कोई इसे उसमें वापस नहीं डाल सकता, इसी तरह एक बार जानकारी सार्वजनिक हो जाने के बाद यह कभी खत्म नहीं हो पाती.’

भुला दिए जाने के अधिकार की कमी पर रोष जताते हुए कोर्ट ने इस तरह के अधिकार की वकालत की थी.

इसी तरह, 2021 के एक अन्य निर्णय में केरल हाई कोर्ट की तरफ से गूगल सर्च रिजल्ट से इस तरह के व्यक्तिगत ब्योरे को हटाने के लिए कहा था.


यह भी पढ़ेंः MVA सरकार को विश्वास मत साबित करने के लिए सुप्रीम कोर्ट ने क्यों दी मंजूरी


‘नाम हटाया नहीं किया जा सकता’

दिलचस्प बात यह है कि सभी उच्च न्यायालयों ने इस मुद्दे पर समान रूप से निर्णय नहीं लिए.

मद्रास हाई कोर्ट के पिछले साल के फैसले में कहा गया था कि किसी व्यक्ति का नाम उसके बरी होने के बावजूद ऑनलाइन पोस्ट किए गए उसके फैसले में बदला नहीं जा सकता.

हाई कोर्ट के समक्ष दायर मामले में याचिकाकर्ता ने अदालती फैसले और आदेशों से अपना नाम हटाने की मांग की थी. मद्रास एचसी ने शुरू में तो इस विचार के साथ अपील की अनुमति दी कि आरोपी बरी होने के बाद अपना नाम हटवाने का हकदार है.

हालांकि, अंततः, न्यायाधीश ने कहा कि जब अदालती फैसलों की बात आती है तो भूल जाने का ऐसा अधिकार बरकरार नहीं रह सकता.

विभिन्न हाई कोर्ट के ऐसे परस्पर विरोधी फैसलों को देखते हुए अंततः सुप्रीम कोर्ट की तरफ से ही कोई समाधान निकाले जाने की आवश्यकता है, खासकर के.एस. पुट्टस्वामी मामले के मद्देनजर.

(अक्षत जैन नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी, दिल्ली के छात्र हैं और दिप्रिंट में इंटर्न हैं)

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


यह भी पढ़ेंः UK और US ने कैसे ‘बेल को नियम और जेल को अपवाद’ बनाया, नया जमानत कानून क्यों बनाना चाहता है SC (theprint.in)


 

share & View comments