नयी दिल्ली, 28 जनवरी (भाषा) उच्चतम न्यायालय ने शुक्रवार को कहा कि किसी जगह से निष्कास का आदेश ‘असाधारण उपाय’ है और यह भारत के किसी भी क्षेत्र में स्वतंत्र होकर घूमने-फिरने के मौलिक अधिकार से वंचित करता है।
शीर्ष अदालत ने महाराष्ट्र के जालना जिले से एक व्यक्ति को दो वर्ष के लिए निष्कासित करने के दिसम्बर 2020 के आदेश को निरस्त करते हुए कहा कि इस तरह के आदेश का सोच-समझकर व्यावहारिकता के साथ इस्तेमाल करना चाहिए, क्योंकि मौजूदा मामले में इस तरह का आदेश एक व्यक्ति को इस अवधि के दौरान अपने घर में भी रुकने की आजादी पर भी विराम लगाता है। इससे व्यक्ति अपनी आजीविका से भी वंचित हो सकता है।
न्यायमूर्ति अजय रस्तोगी और न्यायमूर्ति अभय एस ओका की पीठ ने एक व्यक्ति को जिलाबदर किये जाने के पिछले साल के आदेश के खिलाफ अपील पर यह फैसला दिया। बॉम्बे उच्च न्यायालय ने उक्त आदेश के खिलाफ याचिका खारिज कर दी थी।
पीठ ने रिकॉर्ड पर लाये गये तथ्यों का उल्लेख करते हुए कहा कि जिलाबदर करने का आदेश जारी करने में ‘‘दिमाग का इस्तेमाल नहीं किया गया और इसमें मनमानापन झलकता है’’ और यह कानून की नजर में टिक नहीं सकता।
शीर्ष अदालत ने कहा, ‘‘यह कहने में कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी कि निष्कासन का आदेश असाधारण उपाय है। निष्कासन आदेश एक नागरिक को सम्पूर्ण भारतीय क्षेत्र में जाने के मौलिक अधिकार से वंचित करेगा।’’
पीठ ने कहा कि अधिकारी ने 15 दिसम्बर 2020 को महाराष्ट्र पुलिस अधिनियम, 1951 की धारा 56(1)(ए)(बी) के तहत प्रदत्त अधिकारों का इस्तेमाल करते हुए जालना निवासी को पांच दिन के भीतर जिला छोड़ने का आदेश दिया था।
शीर्ष अदालत ने कहा, ‘‘निष्कासन आदेश संबंधी प्रतिबंध को तार्किकता की कसौटी पर खरा उतरना चाहिए।’’ पीठ ने कहा कि धारा 56 का इस्तेमाल बहुत सोच-समझकर और यह बात ध्यान में रखकर करना चाहिए कि यह असाधारण उपाय है।’’
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