ऐसा राजनीति में कम ही होता है, जब एक राजनेता राजनीति के साथ क्रिकेट, क़ानून ,व्यापार, फ़ैशन, ग्लोबल पाॉलिटिक्स पर समान अधिकार से बातें करता हो और इन तमाम अलग-अलग मुद्दों पर विश्व की बड़ी हस्तियों के साथ उसी अधिकार भाव के साथ उठता बैठता हो, अरुण जेटली सही मायनों में ग्लोबल राजनेता थे, हरफ़नमौला थे. अपने स्वास्थ्य के कारण मोदी मंत्रिमंडल में जब दुबारा शामिल नहीं हुए, तो दिल्ली की पूरी मीडिया जगत ने लगातार एक शख़्स की कमी को महसूस किया वो थे अरुण जेटली.
किस्सागो जेटली
अरुण जेटली मोदी सरकार और पत्रकारों के बीच की कड़ी थे. संसद का सेंट्रल हॉल हो या संसद में उनका कमरा और इससे पहले 9 अशोका रोड, जेटली के दरबार में गॉसिप सुनने के लिए बीजेपी कवर करने वाले पत्रकार अपना समय निकालकर 3 बजे ज़रूर पहुंचते थे. हम पत्रकार जेटली के ऑफ रिकार्ड ब्रीफ़िंग को ‘दरबार’ के नाम से बुलाते थे और पत्रकारों में कौतूहल रहता था कि आज दरबार में क्या हुआ?
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जेटली के पास बात करने के लिए हर विषय का गॉसिप रहता था. लंदन के ऑक्सफोर्ड स्ट्रीट पर उन्हें देवानंद कैसे मिले, दिल्ली क्रिकेट अकादमी के दशकों तक प्रमुख रहने के कारण सहवाग और युवराज ने डिनर पर क्या कहा ऐसी ढेरों चटकदार गॉसिप हमेशा उनके पास उपलब्ध रहती थी. आपातकाल का असर कहें या दिल्ली में पले बढ़े होने का प्रभाव, जेटली के व्यक्तित्व में आलोचना सुनने की कमाल की क्षमता थी, जो आजकल के बड़े राजनेताओं में लुप्तप्राय है.
जेटली से आप कुछ भी कह सकते थे
जेटली के मुंह पर आप कुछ भी बोल सकते थे और जेटली उनका बुरा नहीं मानते थे. एक बार मोदी सरकार की नोटबंदी पर आलोचना कर रहे एक प्रमुख अख़बार के संवादाता को जेटली ने कहा, तुम्हारे अखबार को पढ़ता कौन है? छपती ही कितनी कॉपी है? पत्रकार ने जेटली को जबाब दिया, ‘उतनी ही कॉपी में छपने के लिए आपके मंत्री दिनरात फोन करते हैं, जेटली ने इस बात का कोई बुरा नहीं माना, मुस्कुराकर गाड़ी पर बैठ गए.’
देश का वित्तमंत्री अगर ऐसी आलोचना सुनने के बाद भी बुरा नहीं मानता, ऐसा लोकतांत्रिक व्यवहार बिरले लोगों में होता है. न वित्तमंत्री रहे चिंदबरम में यह बात थी न प्रणव मुखर्जी (दादा) में. मोदी सरकार के बाकी मंत्रियों को तो जेटली के बड़प्पन से बहुत कुछ सीखना बाकी है.
सुषमा के बाद पूर्व वित्तमंत्री अरुण जेटली की अचानक हुई मौत ने बीजेपी में दूसरी पीढ़ी की लीडरशिप को लगभग खाली कर दिया है. सुषमा स्वराज, अरुण जेटली, अनंत कुमार-बीजेपी की राजनीति की त्रिमूर्ति माने जाते थे. सुषमा और अनंत तो पहले ही जा चुके हैं, लेकिन अब जेटली का जाना दिल्ली की पावर कॉरीडोर की पॉलिटिक्स में रचे बसे ऐसे राजनेता का जाना है जो बीजेपी की राजनीति के साथ दिल्ली की ब्यूरोक्रेसी, दिल्ली की पावरफुल मीडिया और कोर्ट न्यायालय के दावपेंच का महारथी था. शायद यही वजह थी कि 1977 से लेकर 2019 तक जेटली बीजेपी की राजनीति में हमेशा केन्द्र बिन्दू में रहे, चाहें वो अटल बिहारी वाजपेयी और लाल कृष्ण आडवाणी का दौर हो या फिर मोदी- शाह का.
आडवाणी के सिपाहसालार
अमित शाह के दिल्ली की राजनीति में पदार्पण से पहले बीजेपी की चुनावी राजनीति का चाणक्य जेटली माने जाते थे. बीजेपी के हर चुनाव जीतने वाले राज्य के चुनाव प्रभारी अरुण जेटली ही होते थे. मध्यप्रदेश हो या बिहार, गुजरात हो या कर्नाटक बीजेपी के चुनाव, जिताऊ ‘मैस्कट’ जेटली ही थे. जेटली के करियर का ग्राफ़ आडवाणी के करियर के साथ बढ़ता गया. जिस दौर में बीजेपी की राजनीति में आडवाणी की हां और ना के बिना एक पत्ता भी नहीं हिलता था. उस आडवाणी की चौकड़ी में जेटली आडवाणी के आंख और कान दोनों थे.
अरुण जेटली के अलावा सिर्फ सुषमा पर आडवाणी भरोसा करते थे. 2004 में वाजपेयी सरकार जाने के बाद आडवाणी फिर से पार्टी के अध्यक्ष बने तो आडवाणी की ही टीम का हिस्सा रहीं उमा भारती ने जेटली पर ऑफ रिकॉर्ड ब्रीफ्रिंग कर सबकी कमियों की स्टोरी मीडिया में छपवाने का सनसनीख़ेज़ आरोप लगाया. टीवी कैमरों के सामने लगाए गए इस आरोप के बाद आडवाणी को क़द्दावर नेता उमा भारती को अनुशासनहीनता के आरोप में पार्टी से निकालना पड़ा, पर यह जेटली का एक अच्छे इंसान का मानवीय गुण था कि 2008 में उमा के बीमार पड़ने पर उनकी पूरी देखभाल का ख़र्चा उन्होंने खुद उठाया.
नेता प्रतिपक्ष बनना जेटली के करियर का उरूज था
प्रमोद महाजन के जाने के बाद जब लाल कृष्ण आडवाणी की ज़िंदगी का सबसे महत्वपूर्ण चुनाव 2009 में आया. जिसमें वह बीजेपी की तरफ से प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार थे, आडवाणी ने जेटली को लोकसभा चुनाव का प्रभारी बनाया, जबकि पार्टी के अध्यक्ष राजनाथ सिंह थे. यह अलग बात है बीजेपी उस चुनाव में हार गई और लालकृष्ण आडवाणी प्रधानमंत्री नहीं बन सके पर यह जेटली की बीजेपी की राजनीति में अनिवार्यता ही थी कि विपक्ष के नेता पद से हटते ही आडवाणी ने राज्यसभा में नेता प्रतिपक्ष के लिए अपने भरोसेमंद जेटली का चुनाव किया. जेटली सिर्फ आडवाणी के भरोसेमंद नहीं थे. बल्कि नामी वक़ील होने की वजह से राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ, विश्व हिंदू परिषद, बीजेपी के हर क़ानूनी मसले पर जेटली की राय अंतिम मानी जाती थी.
राज्यसभा में विपक्ष का नेता पद अरुण जेटली के करियर का उरूज था. जेटली जब कोयला घोटाले पर चिदंबरम के तर्कों की धज्जियां उड़ा रहे थे. वह संसद का कोर्ट रूम तकरीर आनंददायक फिल्म देखने की तरह था और संसदीय राजनीति करने वालों के लिए आज भी जेटली का भाषण पाठ्यपुस्तक से कम नहीं है. खुद जेटली कहते थे कि संसद में तर्कों के साथ सामने वाले को धूल चटाना और दोस्तों के साथ गप्पें मारना उनका प्रिय शग़ल है. भष्टाचार के आरोपों के तले दबी मनमोहन सिंह सरकार को संसद में अप्रभावी बनाने में जेटली का बतौर नेता प्रतिपक्ष का दौर हमेशा याद रखा जाएगा.
राजनीति के आलराउंडर थे- जेटली
अटल बिहारी वाजपेयी सरकार में क़ानून मंत्रालय और उद्योग मंत्रालय संभालने के बाद वे संवैधानिक बाध्यता के कारण अधिकारिक रूप से कोर्ट में प्रैक्टिस नहीं कर पाते थे. आरएसएस, बीजेपी और अपने दोस्तों की लंबी फ़ेहरिस्त को क़ानूनी राय देने के लिए उन्होंने रास्ता निकाला और सुबह का एक घंटा फ़्री रखने लगे. यही जेटली की ताक़त भी थी. एक तरह से ‘काऊ पट्टी’ की राजनीति करने वाली बीजेपी के दौर में वे अकेले आलराउंडर थे. हर समस्या का समाधान जेटली के पास था और इसलिए प्रमोद महाजन के जाने के बाद जेटली पार्टी के लिए अपरिहार्य थे. जेटली की इन ख़ूबियों की वजह से ही उनका दोस्त हर पार्टी में था. बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार दिल्ली आने पर एक समय का खाना जेटली के घर पर ही खाते थे. लालू के साथ सरकार चलाने के बाद भी उनकी दोस्ती में दरार नहीं आई. ममता बनर्जी हो या प्रकाश सिंह बादल ,शरद पवार हों या नवीन पटनायक सब जेटली से गाहे बेगाहे राय मांगते रहते थे.
मोदी मैन फ़्राइडे
पीएम मोदी से अरुण जेटली की दोस्ती काफी पुरानी है पर गाढ़ी दोस्ती 2002 के गुजरात दंगों के बाद पनपी. गुजरात के मुख्यमंत्री होने के नाते नरेंन्द्र मोदी पर आरोप लग रहे थे. उनकी सरकार पर दंगों के दौरान निष्क्रिय रहने के आरोप अदालतों में पहुंच चुके थे और मोदी को दिल्ली में लगातार क़ानूनी सलाह देने वाले दोस्त की तलाश थी. जेटली मोदी के संकटमोचक बनकर उभरे. 2002 से 2019 तक सरकार में हों या विपक्ष में मोदी के लिए क़ानून मंत्री जेटली ही रहे .
मोदी जेटली की कमेस्ट्री का ही कमाल था कि गुजरात के हर विधानसभा चुनाव में चुनाव प्रभारी जेटली को बनाया जाता था.
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2013 में मोदी की जिंदगीं के सबसे बड़े इम्तिहान 2014 के लोकसभा चुनाव का नेतृत्व करने के लिए अपने को तैयार कर रहे थे. सुषमा से लेकर आडवाणी, जोशी उनके खिलाफ खड़े थे. जेटली राजनाथ के साथ मिलकर बीजेपी संसदीय बोर्ड में मोदी के नाम पर मुहर लगवाने में कामयाब रहे. प्रधानमंत्री बनने के बाद मोदी ने भी दोस्ती निभाते हुए अमृतसर से चुनाव हारने के बाद भी जेटली को मंत्रिमंडल के दो सबसे महत्वपूर्ण मंत्रालय वित और रक्षा मंत्रालय दे दिए. जेटली ने भी मोदी सरकार के बड़े रिफॉर्म जीएसटी को कई राजनैतिक दलों में मतभेदों के बाद भी सहमति बनाने में कामयाबी हासिल की और लागू कराया.
अरुण जेटली का जाना राजनीति की ऐसी खिड़की का बंद होना है, जो राजनीति करते हुए भी जीवन के दूसरे क्षेत्रों खेल , व्यापार, सिनेमा का भी स्वाद लेने की कला के पारखी थे. जेटली की यादें उनके साथ काम करने वाले स्टाफ़ को ज्यादा आएगी. जिनके लिए जेटली खुदा से कम नहीं थे. जेटली ने अपने 22-24 सहायकों को मकान बनवाने से लेकर उनके बच्चों को विदेश भेजने तक में मदद की थी. जेटली का एक बेहतर इंसान होने का मानवीय गुण उनकी सारी राजनीति पर हमेशा भारी रहेगा .