नई दिल्ली: ऑस्ट्रेलिया के उत्तरी हिस्से में बीते 35 सालों में दोगुनी रफ्तार से पेड़ों की मौत हो रही है. बुधवार को अंतर्राष्ट्रीय तौर पर प्रतिष्ठित साइंस जर्नल ‘नेचर‘ में छपी एक स्टडी में ये बात निकलकर आई है.
शोधार्थियों के मुताबिक उत्तरी ऑस्ट्रेलिया के ट्रॉपिकल फॉरेस्ट (ऊष्णकटिबंधीय वन) में 1980 के दशक के मुकाबले पेड़ों के मरने की दर दोगुनी हो गई है. इसके पीछे जलवायु परिवर्तन और बढ़ते तापमान को मुख्य कारण बताया जा रहा है.
नई रिसर्च में चिंता जाहिर की गई है कि ट्रॉपिकल फॉरेस्ट (ऊष्णकटिबंधीय वन) आने वाले समय में सोखने की क्षमता से ज्यादा मात्रा में कार्बन डाई-ऑक्साइड छोड़ सकते हैं. स्टडी में पता चला है कि ऑस्ट्रेलिया के उत्तरी क्वींसलैंड में ट्रॉपिकल पेड़ों की उम्र बीते 35 सालों में घटकर आधी हो गई है.
वैज्ञानिकों का मानना है कि यह संकेत देता है कि वर्षावन जैसी प्राकृतिक प्रणालियां दशकों से जलवायु संकट का सामना कर रही हैं. उनके मुताबिक दुनिया भर के अन्य ऊष्णकटिबंधीय वनों में भी मृत्यु दर के मामले में ऐसी ही स्थिति हो सकती है.
इस रिसर्च में ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी, ऑस्ट्रेलिया के जेम्स कुक यूनिवर्सिटी और यूके, फ्रांस, यूएसए, पेरू के संस्थानों ने मिलकर काम किया है.
स्टडी में 24 उत्तरी क्वींसलैंड जंगलों के 8300 से ज्यादा पेड़ों का विश्लेषण किया गया है. ज्यादातर डेटा एथरटन में एक सीएसआईआरओ प्रयोगशाला से आया था. यह प्रयोगशाला ऊष्णकटिबंधीय वन अनुसंधान (ट्रॉपिकल फॉरेस्ट रिसर्च) पर केंद्रित है.
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जलवायु परिवर्तन को लेकर संवेदनशील हैं उष्णकटिबंधीय वन
ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी में ट्रॉपिकल फॉरेस्ट इकोलॉजिस्ट डेविड बॉमन, जो कि इस रिसर्च के प्रमुख लेखक भी हैं, ने कहा कि पेड़ों की मृत्यु दर में ऐसी बढ़ोतरी काफी चिंताजनक है.
उनका कहना है कि ट्रॉपिकल फॉरेस्ट जलवायु परिवर्तन को लेकर काफी महत्वपूर्ण तो हैं लेकिन उतने ही संवेदनशील भी हैं.
"Tropical forests are critical to climate change, but they’re also vulnerable to it." ?☀️?️
Plain summary of our new @Nature study. https://t.co/RjHPzM75dk pic.twitter.com/ditLbkkyKH— David Bauman (@davbauman) May 19, 2022
बॉमन ने कहा, ‘पेड़ ऐसे लंबे समय तक जीवित रहने वाले जीव हैं कि पेड़ की मृत्यु जैसी दुर्लभ घटनाओं में परिवर्तन का पता लगाने में बड़ी मात्रा में डेटा की आवश्यकता होती है.’
‘साइट्स को शुरू में हर 2 साल में सर्वेक्षण किया गया था, फिर हर 3-4 साल में. वहीं यह विश्लेषण 81 प्रमुख प्रजातियों पर केंद्रित है.’
बॉमन और उनकी टीम ने पाया कि 2305 पेड़ों की मौत 1971 से अब तक हो चुकी है. वहीं 1980 के मध्य से पेड़ों की मृत्यु दर औसतन 1% प्रति वर्ष से 2% प्रति वर्ष तक बढ़ गई है.
स्टडी के सह-लेखक और ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर यदविंदर मल्ही ने ऑस्ट्रेलिया के वर्षावनों में हुए परिवर्तनों की तुलना ग्रेट बैरियर रीफ के कोरल से की, जिन्होंने पिछले सात वर्षों में ब्लीचिंग इवेंट्स की घटनाओं का सामना किया है.
उन्होंने ग्लोबल वार्मिंग को इसका प्रमुख कारण बताया और कहा कि दुनियाभर के ट्रॉपिकल फॉरेस्ट में पेड़ों की मृत्यु दर में भी यही रफ्तार देखी जा सकती है.
जेम्स कुक यूनिवर्सिटी में ट्रॉपिकल इकोलॉजी एक्सपर्ट प्रोफेसर सुसान लॉरेंस, जो कि स्टडी के सह-लेखक भी हैं, उन्होंने कहा कि सीएसआईआरओ 1971 से अध्ययन किए गए पोड़ों के प्लाट्स की निगरानी कर रहा है.
‘इस रिसर्च की खासियत है कि यह कुछ दीर्घकालिक अध्ययनों में से एक है और ऐसा करने के लिए फंड जुटाना बहुत मुश्किल है.’
लॉरेंस का कहना है कि अगर ट्रॉपिकल फॉरेस्ट सबसे ज्यादा खतरे में हैं तो इससे बारिश का पैटर्न भी प्रभावित हो सकता है.
ऑस्ट्रेलियन इंस्टीट्यूट ऑफ बोटेनिकल साइंस में सीनियर रिसर्च साइंटिस्ट रसेल बैरेट ने कहा कि स्टडी से निकले तथ्य काफी महत्वपूर्ण हैं.
उन्होंने कहा, ‘ये अध्ययन सिर्फ उत्तरी क्वींसलैंड के ट्रॉपिकल फॉरेस्ट पर आधारित था लेकिन शुष्क वातावरण ने ऑस्ट्रेलिया के दूसरे प्लांट कम्युनिटी को भी प्रभावित किया है. इसके लिए और अध्ययन करने की जरूरत है.’
बता दें कि ट्रॉपिकल फॉरेस्ट (ऊष्णकटिबंधीय वन) क्लोस्ड कैनोपी वाले वन हैं जो भूमध्य रेखा के उत्तर या दक्षिण में 28 डिग्री के भीतर बढ़ते हैं. ये वन नमी वाले होते हैं जहां हर साल तकरीबन 200 सेमी से अधिक बारिश होती है. इन क्षेत्रों में तापमान 20 डिग्री सेल्सियस से 35 डिग्री सेल्सियस के बीच रहता है.
ऊष्णकटिबंधीय वन एशिया, ऑस्ट्रेलिया, अफ्रीका, दक्षिण अमेरिका, मध्य अमेरिका, मैक्सिको और कई प्रशांत द्वीपों में पाए जाते हैं.
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