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Friday, 22 November, 2024
होमदेशकौन है इस साल छात्रसंघ चुनाव की सबसे अप्रत्याशित जीत का नायक

कौन है इस साल छात्रसंघ चुनाव की सबसे अप्रत्याशित जीत का नायक

जिस राजस्थान यूनिवर्सिटी में जातीय गोलबंदी, धनबल और बाहुबल का बोलबाला है, वहां पर दलित समुदाय से आने वाले एक छात्र ने निर्दलीय चुनाव जीतकर इतिहास रच दिया.

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नई दिल्ली: जयपुर से 100 किलोमीटर दूर राजस्थान का मेड़ जोधुला गांव. चारों तरफ पहाड़ियों से घिरे इस गांव में संचार क्रांति आने के लगभग बीस साल बाद भी लोगों के मोबाइल से नेटवर्क अभी कोसों दूर है. गुर्जर बहुल इस गांव में 7 सितंबर 1994 को विनोद जाखड़ का जन्म हुआ. पिता मिस्त्री हैं और मां घर की देखभाल करती हैं. चार भाई बहनों में सबसे बड़े विनोद जब 7 साल के हुए तब इनका परिवार जयपुर शहर आ गया. विनोद के पिता को शहर के एक प्राइवेट स्कूल में प्लास्टर का काम मिला और उन्हें पिता की मजदूरी की बदौलत उसी स्कूल में फ्री में पढ़ने का सौभाग्य प्राप्त हुआ.

स्कूली शिक्षा पूरी करने के बाद राजनीति विज्ञान की पढ़ाई करने विनोद राजस्थान यूनिवर्सिटी पहुंचे. मन में आईएएस बनने का सपना लिए विनोद, यूनिवर्सिटी में होने वाले जातिगत भेदभाव को देखकर परेशान हो गए.

भेदभाव ने राजनीति में आने को प्रेरित किया

विनोद के शब्दों में, ‘राजस्थान कॉलेज में जब मैंने एडमिशन लिया तो देखा कि दलित समुदाय के जो बच्चे हैं, वे काफी पिछड़े हैं. अन्य जातियों का दबदबा था. वहां के छात्र नेता बड़े घरानों से आते थे. हम गरीब बच्चों के साथ मनमाना व्यवहार करते थे. वहां के प्रोफेसर भी हमारे समुदाय के लोगों को अनदेखा करते थे. एक्सट्रा क्लास लेने के लिए प्रोफेसर अपने समुदाय के बच्चों को घर पर बुलाते थे. जबकि हमारे लिए ऐसी कोई सुविधा नहीं थी. इन सब को देखकर हमारे मन में भी आया कि दलित समुदाय की आवाज को आगे लाने के लिए नेतृत्व बहुत जरूरी है.’

इस संबंध में एक घटना को याद करते हुए विनोद बताते हैं, ‘हमारा यहां एक फ्रेशर्स का प्रोग्राम था. खाना-पीना चल रहा था. इतने में हमने अपने एक मित्र के प्लेट से रोटी उठा ली. वह तथाकथित ऊंची जाति का था. मेरे उस मित्र को यह बात इतनी नागवार गुजरी कि उसने तुरंत अपनी खाने की प्लेट कुड़ेदान में फेंक दी. बस इसलिए कि मैं एक दलित था. इस घटना से मैं अंदर से बहुत ज्यादा आहत हुआ. इसके बाद मैंने ठान लिया कि अब कुछ करना है.’

यहीं से विनोद के मन में राजनीति विज्ञान की पढ़ाई का प्रैक्टिकल करने का बीज अंकुरित हुआ.

चुनावी चुनौतियां

राजस्थान यूनिवर्सिटी के 70 साल के इतिहास में अब तक दलित समुदाय से कोई भी छात्रसंघ अध्यक्ष नहीं बना था. 27 हजार छात्रों वाली इस यूनिवर्सिटी में लगभग 8 हजार एससी-एसटी वर्ग के छात्र पढ़ते हैं. लेकिन वहां पैसा और कथित ऊंची जाति के लोगों के बाहुबल के कारण दलित समुदाय से एक मजबूत नेता नहीं उभर पा रहा था.

विनोद कहते हैं, ‘जातीय समीकरण यहां इस तरह से हावी है कि 2016 में राजस्थान यूनिवर्सिटी के अध्यक्ष पद के लिए एबीवीपी ने वाल्मीकि समुदाय का एक प्रत्याशी मैदान में उतारा था, लेकिन वह हार गया. उसे खुद एबीवीपी वालों ने ही वोट नहीं दिया. कारण वो दलित समुदाय से आता था.’

ऐसे में विनोद के सामने कई चुनौतियां थीं. आर्थिक दिक्कतों के अलावा उन्हें जातीय संघर्षों से भी दो चार होना पड़ रहा था. विनोद बताते हैं, ‘जब मैंने चुनाव लड़ने की ठानी तो वहां अनेक जातियों ने हमें डराया धमकाया और जान से मारने की भी धमकी दी. वहां के कुछ प्रोफेसरों ने यहां तक कह दिया कि राजस्थान कॉलेज की कुर्सी पर एक दलित लड़का कैसे बैठेगा. कैसे हम पर राज करेगा.’

लेकिन विनोद ने इन सब की परवाह किए बगैर अपने समुदाय की आवाज को बुलंद करने की पूरी कोशिश की. लोगों से संवाद स्थापित करना शुरू किया और 2014 में राजस्थान कॉलेज में बतौर निर्दलीय उम्मीदवार अध्यक्ष पद के लिए दावा ठोक दिया. लोगों में विनोद को लेकर एक नई उम्मीद दिखाई दी और देखते ही देखते उन्होंने चुनाव जीत लिया. इसी के साथ ही राजस्थान कॉलेज को अपना पहला दलित अध्यक्ष मिल चुका था.

विश्वविद्यालय में एनएसयूआई ज्वाइन किया

विनोद ने राजस्थान कॉलेज के छात्रों का भरोसा तो जीता, लेकिन अभी असली चुनौती बाकी थी. राजस्थान कॉलेज के छात्रों से मिले प्यार और सम्मान से विनोद का हौसला बुलंद हो गया था. लेकिन विश्वविद्यालय में पहुंचकर छात्रसंघ चुनाव की लड़ाई लड़ना कठिन काम था. वहां चुनौतियां ज्यादा थीं. विनोद ने अपनी लड़ाई आगे जारी रखने के लिए एनएसयूआई ज्वाइन कर लिया.

विनोद बताते हैं, ‘मैंने 2014 में एनएसयूआई ज्वाइन किया था. राज्य में वंसुधरा राजे की सरकार थी और उस समय एबीवीपी का भी यूनिवर्सिटी पर दबदबा था. दोनों मिलकर यूनिवर्सिटी के छात्रों पर अपना मनमाना व्यवहार थोप रहे थे. हमें ऐसी ताकतों के खिलाफ लड़ना था.’

विनोद कहते हैं, ‘एनएसयूआई के साथ रहते हुए हमें काफी स्पेस मिला. एनएसयूआई में रहते हुए मैंने विश्वविद्यालय में दो अनशन किया था. पहला, कैंपस में फीस वृद्धि के खिलाफ. दूसरा, 24 घंटे लाइब्रेरी और कैंपस में ई-रिक्शा चलवाने को लेकर. हमारे दोनों ही अनशन लगभग सफल रहे थे.’

एनएसयूआई ने नहीं दिया टिकट

यूनिवर्सिटी में छात्र हितों के लिए लड़ते हुए विनोद अपनी पढ़ाई भी जारी रखे हुए हैं. राजनीति विज्ञान से बीए करने के बाद उन्होंने 2017 में सोशियोलॉजी से एमए किया. अभी वह राजस्थानी भाषा में एमए कर रहे हैं. चार साल एनएसयूआई के साथ काम करने के बाद भी विनोद जाखड़ को संगठन ने छात्रसंघ अध्यक्ष का टिकट नहीं दिया.

इसे लेकर विनोद बताते हैं, ‘एनएसयूआई के साथ मैंने काफी काम किया. मैंने राजस्थान कॉलेज का नेतृत्व भी किया और मैं पार्टी का सबसे सीनियर छात्र नेता बचा था, इसके बावजूद पार्टी ने मुझे टिकट नहीं दिया. मेरी जगह चुनाव से मात्र 30 दिन पहले राजस्थान कॉलेज से यूनिवर्सिटी में दाखिला लिए एक छात्र को टिकट दे दिया.’

एनएसयूआई से टिकट नहीं मिलने पर विनोद जाखड़ ने निर्दलीय चुनाव लड़ने का फैसला किया. लेकिन यूनिवर्सिटी में एक दलित के लिए निर्दलीय चुनाव लड़ना आसमान से तारे तोड़ने से कम नहीं था. राजस्थान यूनिवर्सिटी के छात्रसंघ चुनाव में चाहे एबीवीपी हो या एनएसयूआई, दोनों में प्रत्याशियों के टिकट वितरण में पैसा अहम रोल निभाता है. चुनाव प्रचार में पानी की तरह पैसा बहाया जाता है. ऐसे में इससे पार पाना विनोद के लिए एक बड़ी समस्या थी.

छात्रों से मिला पैसा और प्रेम

विनोद ने इससे निबटने के लिए विश्वविद्यालय में चंदा मांगना शुरू किया. अपने भाषणों में उन्होंने धनबल के मुद्दे पर काफी जोर दिया. विनोद कहते हैं, ‘मेरे लिए बिना पैसे के चुनाव लड़ना काफी कठिन था. मैंने पेटीएम से लेकर हर जगह छात्रों से चंदे के लिए निवेदन किया. मेरे दोस्तों ने मेरी बहुत मदद की. उन्होंने मेरे लिए प्रचार सामग्री बनवाई. कई किलोमीटर तक पैदल चलकर मेरे साथ चुनाव प्रचार किया.’

विनोद के लिए यूनिवर्सिटी में धनबल के अलावा बाहुबल से भी लड़ना एक चुनौतीपूर्ण काम था. एबीवीपी और एनएसयूआई के दबदबे वाले इस विश्वविद्यालय में बतौर निर्दलीय लड़ना भी एक चुनौती थी.

इस पर मेघवाल जाति से आने वाले विनोद जाखड़ कहते हैं, ‘जब मैं यूनिवर्सिटी में चुनाव प्रचार कर रहा था तो मुझे रोकने के लिए एबीवीपी वालों ने मेरे खिलाफ अपनी पूरी ताकत झोंक दी. मेरे सरनेम से लोगों को लगता है कि मैं जाट हूं, इसलिए बाकी छात्र संगठन के नेताओं को डर लगने लगा कि कहीं मैं जाटों का वोट न पा जाऊं. तो उन लोगों ने इसे रोकने के लिए मेरा जाति प्रमाण पत्र निकलवाकर यूनिवर्सिटी की दीवारों पर जगह-जगह चिपका दिया. लेकिन छात्रों ने इनकी एक भी चाल कामयाब नहीं होने दी.’

विनोद के अपनाए तरीकों ने छात्रों पर काफी सकारात्मक प्रभाव डाला. छात्रों के मिले अपार समर्थन से ब्राह्मण, जाट और राजपूत के वर्चस्व वाले छात्रसंघ अध्यक्ष पद पर पहली बार किसी दलित ने चुनाव जीत लिया. विनोद जाखड़ को मिले वोट एनएसयूआई और एबीवीपी के प्रत्याशियों को मिले कुल वोटों से 65 वोट ज्यादा थे. उनके यूनिवर्सिटी में चार सालों में जमीनीं तौर पर किये गए काम से भी उन्हें फायदा मिला.

फिर से थामा एनएसयूआई का दामन

राजस्थान यूनिवर्सिटी के छात्रसंघ चुनाव में इतिहास रचने के बाद विनोद जाखड़ ने एक बार फिर से एनएसयूआई का दामन थाम लिया है. लेकिन छात्रसंघ चुनाव से ठीक पहले टिकट नहीं दिए जाने के बाद भी अब फिर से एनएसयूआई में क्यों चले गए? इस सवाल पर विनोद कहते हैं, ‘उस समय एनएसयूआई को मेरे ऊपर भरोसा नहीं था कि मैं चुनाव जीता ले जाऊंगा, लेकिन अब चुंकि मैंने निर्दलीय होकर भी चुनाव जीत लिया है इसलिए मैं उनके भरोसे को जीतने में कामयाब हो गया हूं.’

विनोद जाखड़ अगस्त 2019 तक राजस्थान यूनिवर्सिटी के छात्रसंघ अध्यक्ष बने रहेंगे. शोषित और वंचित छात्रों की आवाज बने विनोद कहते हैं, ‘हम दलित समुदाय और अन्य गरीब समुदाय के लिए लड़ना चाहते हैं. मेरे चुनाव जीतने के बाद से दलित समुदाय को यूनिवर्सिटी में एक नयी ताकत मिली है. वह अपनी बात खुल कर सकते हैं. जब हमारे कलम में, जबान में और बोली में ताकत होगी, तभी हम अपनी समाजिक लड़ाई लड़ पाएंगे.’

भाजपा को बताया दलित विरोधी

वे 2023 में राजस्थान विधानसभा चुनाव लड़ने का मन बना रहे हैं. किस पार्टी से और कहां से लड़ेंगे. विनोद के शब्दों में, ‘मैंने एनएसयूआई के लिए काम किया है और हर एजेंडे में उनका साथ दिया है. अगर कांग्रेस टिकट देती है तो स्वागत है. बीजेपी के साथ जाने का तो सवाल ही नहीं उठता है क्योंकि आज जिस तरह बीजेपी की सरकार ने गरीब लोगों को आवाज को कुचला है. उसके खिलाफ लड़ाई लड़नी है. पहले दलित, किसान, महिला एवं अन्य शोषित वर्ग को लगता था कि अगर उनके साथ कुछ गलत होता है तो संविधान उनको बचा लेगा. लेकिन अब वर्तमान सरकार में यही लोग संविधान को बचाने की लड़ाई लड़ रहे हैं.’

क्या कांग्रेस पार्टी एनएसयूआई से जीते छात्रसंघ अध्यक्षों को विधायकी का टिकट देती है, यह पूछने पर विनोद कहते हैं, कांग्रेस एनएसयूआई से जीते लोगों को टिकट देती है. एनएसयूआई के प्रदेश अध्यक्ष रह चुके लोगों को टिकट मिला है. राजस्थान यूनिवर्सिटी के 2003 और 2011 में अध्यक्ष रहे लोगों को भी कांग्रेस ने मौका दिया है.’

कांग्रेस के साथ जाने की वजह पूछने पर विनोद कहते हैं, ‘कांग्रेसी विचारधारा के अंदर दलित भी सुरक्षित हैं और संविधान भी सुरक्षित है. कांग्रेस ने दलितों को फलने-फूलने का खूब मौका दिया है. यही कारण है कि इस बार के विधानसभा चुनाव में दलितों ने भी कांग्रेस को खूब वोट दिया है.’

राजस्थान यूनिवर्सिटी में चुनाव जीतने के बाद विनोद अब अपनी समाजिक लड़ाई को किस तरह से आगे बढ़ा पाते हैं ये देखने वाली बात होगी.

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