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Thursday, 20 June, 2024
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मंदिर में कुरान और दरगाह में मेला- धार्मिक विवादों का कर्नाटक की परंपराओं पर नहीं पड़ रहा कोई असर

कर्नाटक में सदियों पुरानी सामाजिक-धार्मिक रस्मों पर अमल जारी रखना ऐसे समय में एक मिसाल के तौर पर सामने आया है जब हिंदुत्ववादी समूह हिजाब प्रतिबंध के विरोध और मंदिर के मेलों में मुस्लिमों के कारोबार करने को एक मुद्दा बना रहे हैं.

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बेंगलुरू: कर्नाटक में एक तरफ जहां धार्मिक असहिष्णुता—चाहे हिजाब प्रतिबंध के विरोध के खिलाफ प्रतिक्रिया हो या फिर मंदिरों में लगने वाले मेलों में मुसलमान कारोबारियों के बहिष्कार का आह्वान का मामला—बढ़ती जा रही है, वहीं कुछ धार्मिक संगठन अपनी साझी परंपराएं कायम रखने के प्रयासों के जरिये सभी का ध्यान आकृष्ट कर रहे हैं.

इनमें राज्य के बेलूर शहर स्थित चेन्नाकेशव मंदिर में होने वाली रस्मों के साथ-साथ बेंगलुरु में 300 साल पुराने मंदिर मेले करगा का आयोजन शामिल है. दोनों ही जगहों पर हालिया कुछ महीनों से जारी तनाव को दरकिनार कर हिंदू और मुस्लिम समुदाय के लोग सदियों पुरानी परंपराओं का उत्सव मनाने के लिए एक साथ जुटे.

बुधवार को सैकड़ों धर्मनिष्ठ हिंदू चेन्नाकेशव मंदिर में भगवान विष्णु की पूजा-अर्चना के लिए एकत्र हुए, दर्जनों पुजारियों ने आगम (पारंपरिक हिंदू धर्मग्रंथों) के मुताबिक अनुष्ठान शुरू किए, और चेन्नाकेशव (विष्णु का एक अवतार) के सजे-धजे रथ को आगे बढ़ाकर रथोत्सव की शुरुआत की.

पूरी रथयात्रा के दौरान हासन जिले के दोड्डामेदुर मस्जिद के एक मौलवी मौलवी सैयद सज्जाद काजी रथ के पहियों के बगल में एक छोटी-सी चौकी पर खड़े रहे. उनके सिर पर हरे रंग की पगड़ी बंधी थी और वे कुरान की आयतें पढ़ रहे थे.

इसी तरह का नजारा इसी माह के शुरू में भी दिखा था जब कोविड पाबंदियों के कारण दो साल टलने के बाद पूरे धूमधाम से करगा उत्साह का आयोजन किया गया.

करगा-यानी पानी से भरी एक मिट्टी की मटकी जिसे शंकु के आकार में फूलों से सजाया जाता है और एक श्रद्धालु इसे अपने सिर पर रखकर चलता है, को द्रौपदी का आदि शक्ति के रूप में एक दिव्य अवतार माना जाता है. श्रद्धालुओं ने हजरत तवक्कल मस्तान बाबा की दरगाह पर रुकाकर यह करगा कुछ समय के लिए वहां रखा.

8 अप्रैल को शुरू हुए करगा उत्सव की पूर्व संध्या पर धर्मराय स्वामी मंदिर के पुजारियों का एक दल—जो करगा समारोह का आयोजन करता है—दरगाह के मुस्लिम मौलवियों के निमंत्रण पर हजरत तवक्कल मस्तान दरगाह पहुंचा था.

उत्सव के दौरान दोनों समुदायों के लोग एक-दूसरे को शुभकामनाएं देते और प्रार्थना करते नजर आए और उन्होंने राज्य में जारी धार्मिक तनाव की घटनाओं के बीच एकता कायम रहने की उम्मीदें जताईं.

आयोजकों ने मेले की साझी परंपरा बनाए रखने का फैसला ऐसे समय पर किया था जबकि कुछ हिंदुत्ववादी कार्यकर्ताओं की तरफ से दरगाह का पड़ाव छोड़ने की कथित अपील की गई थी. इसी तरह के दावे चेन्नाकेशव मंदिर के मुख्य पुजारी एस कृष्णस्वामी भट्टर ने भी किए.

लेकिन दोनों ने धार्मिक एकता से जुड़ी परंपराओं के पालन को महत्वपूर्ण बताया.

भट्टर ने चेन्नाकेशव मंदिर की परंपरा को ‘सर्व धर्म समभाव’ और सभी धर्मों के शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व का परिचायक बताया.

माना जाता है कि यह मंदिर 900 साल पुराना है और यहां पर यह साझी परंपरा सदियों पहले शुरू हुई थी.

भट्टर ने दिप्रिंट को बताया, ‘ये सदियों पुरानी परंपरा है. इसकी शुरुआत श्री रामानुजाचार्य के विशिष्टद्वैत (वेदांत दर्शन की एक शाखा) में निहित मानी जाती है, जो आध्यात्मिकता, विश्वास और मोक्ष के मार्ग में सभी को समानता का संदेश देता है.’

उन्होंने कहा, ‘यह वो रास्ता है जो उन्होंने हमें दिखाया था, कि हम मुसलमानों को उसी समावेशी परंपरा के एक हिस्से के तौर पर अपने त्योहारों में शामिल करें.’

करगा का आयोजन करने वाले तिगला समुदाय के एक नेता और कांग्रेस एमएलसी पीआर रमेश को मीडिया में यह कहते उद्धृत किया गया कि ‘सूफी (हजरत तवक्कल मस्तान बाबा) हमारे परिवार की देवी द्रौपदी के बहुत बड़े भक्त थे.’

उन्होंने कहा, ‘यह उनकी इच्छा थी कि अपने निधन के बाद भी हर साल उनके दर्शन कर पाएं. इसलिए शोभायात्रा समापन वाले दिन कुछ समय के लिए दरगाह पर रुकती है.’


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‘सभी लोगों को एकजुट करने की कोशिश’

भट्टर ने बताया, ‘कुछ (हिंदुत्व) संगठनों के सदस्यों ने कुछ हफ्ते पहले हमसे संपर्क किया था और हमसे कुरान की आयतें पढ़ने की अनुमति नहीं देने के लिए कहा था.’

उन्होंने कहा, ‘हमें इस पर (सरकार के) बंदोबस्ती विभाग की राय लेनी थी. मंदिर की हैंडबुक देखने के बाद विभाग ने हमें इस परंपरा के साथ आगे बढ़ने की अनुमति दी.’

राज्य के कई प्राचीन मंदिरों की तरह चेन्नाकेशव मंदिर भी हिंदू धार्मिक और धर्मार्थ संस्थानों और बंदोबस्ती (या मुजराई) विभाग के तहत कर्नाटक सरकार के प्रशासनिक नियंत्रण में है.

मंदिर की हैंडबुक 1932 से लागू एक मैनुअल है, जिसमें चेन्नाकेशव मंदिर के संबंध में पूर्ववर्ती मैसूर राज्य प्रशासन की तरफ से मान्यता प्राप्त और अनुमोदित सभी प्रथाओं, अनुष्ठानों, परंपराओं को सूचीबद्ध किया गया है.

चेन्नाकेशव मंदिर की कार्यकारी अधिकारी के. विद्युलता ने दिप्रिंट को बताया, ‘इस मैनुअल में मंदिर में अपनाई जाने वाली सभी पारंपरिक और ऐतिहासिक प्रथाओं का ब्योरा है. कुरान की आयतें पढ़ने की परंपरा को भी मैनुअल में शामिल किया गया है.’

उन्होंने आगे बताया, ‘ऐसा कहा जाता है कि श्री रामानुजाचार्य ने सभी लोगों को एकजुट रखने के लिए, सभी संप्रदायों और समुदायों के लोगों को देवता की पूजा करने का अवसर दिया. यही परंपरा आज भी जारी है.’

विद्युलता ने दावा किया कि हिंदुस्ववादी समूहों की तरफ से उनके कार्यालय से मांग की गई थी कि मंदिर मेले में गैर-हिंदू विक्रेताओं को अनुमति नहीं दी जाए.

उन्होंने कहा, ‘गैर-हिंदुओं के दुकानें न लगाने का नियम केवल मंदिर के स्वामित्व वाली संपत्तियों पर लागू होता है. हमने गैर-हिंदू विक्रेताओं से वहां से दूर रहने को कहा, लेकिन यह उन संपत्तियों पर लागू नहीं होता जो मंदिर के स्वामित्व में नहीं हैं और इसलिए गैर-हिंदुओं को मंदिर के बाहर दुकानें लगाने की अनुमति दी गई थी.’

कर्नाटक में धार्मिक समन्वय का एक और उदाहरण बाबा बुदानगिरी गुफा मंदिर है—जिसे आम तौर पर हिंदुत्ववादी नेताओं की तरफ से ‘दक्षिण की अयोध्या’ कहा जाता है—जो हिंदुओं और मुसलमानों दोनों के लिए एक सम्मानित तीर्थ स्थान है.

‘श्री गुरु दत्तात्रेय स्वामी बाबा बुदान दरगाह’ के तौर पर इस धार्मिक स्थल का नाम ही इसकी साझी पहचान को दर्शाने के लिए काफी है.

त्रिदेव यानी ब्रह्मा-विष्णु और महेश का अवतार माने जाने वाले एक हिंदू देवता गुरु दत्तात्रेय की यहां 16वीं शताब्दी के सूफी संत बाबा बुदान और 11वीं सदी के सूफी संत दादा हयात के साथ ही पूजा-अर्चना की जाती है. बाबा बुदान शाह के बारे में माना जाता है कि भारत में कॉफी का पौधा वही लेकर आए थे.

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


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