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Thursday, 25 April, 2024
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निराशावादी दौर से निकले ‘आशावादी’ मिलेनियल कवि!

इस दौर के मिलेनियल कवियों की आलोचना की जाती है कि ये लोग निराशावादी लिखते हैं. मगर इन कवियों का तर्क है कि वो वैसा ही लिखते हैं, जैसा लिखा जाना चाहिए.

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नई दिल्ली: क्या अंधेरे समय में भी गीत गाए जाएंगे? हां, अंधेरे समय के ही गीत गाए जाएंगे’. 1939 में जर्मन कवि बेट्रोल्ट ब्रेख्त द्वारा लिखी गई ये पंक्तियां सरहदों में बटी दुनिया में उम्मीद की एक किरण हैं. कहा जाता है कि जब सत्ता का जुल्म बढ़ता है, तब साहित्यिक रचनाएं विद्रोह का स्वर बुलंद करती हैं. फिर चाहे वो कोई कविता हो या कोई गीत, कहानी या फिर कोई किस्सा. पिछले दिनों देशभर में नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) को लेकर देशव्यापी प्रदर्शन हुए. जिसके बाद इंटरनेट पर सत्ता द्वारा किए जा रहे दमन को प्रदर्शित करती तस्वीरें चौतरफा फैल गईं.

इन प्रदर्शनों के दौरान एक चीज़ और घटित हुई. इस दौर के मिलेनियल कवियों का उदय हुआ. पहले इन कवियों को अक्सर ‘ओपन माइक पोएट्री सेशन्स’ मे देखा जाता था, जहां ज्यादातर इन्हें सुनने वाले ही लिखने वाले होते थे. मतलब कवियों की ही भीड़ होती थी और कवि ही सुनाते थे. लेकिन पिछले कई महीनों से चल रहे सीएए विरोधी प्रदर्शनों के दौरान इन्हीं में से कई कवियों की कविताएं सड़कों पर उतरे प्रदर्शनकारियों की जबां पर छा गईं.

वैसे तो मिलेनियल कवियों की ये कहकर आलोचना होती रही है कि ये लोग निराशावादी लिखते हैं. मगर इन कवियों का तर्क है कि वो वैसा ही लिखते हैं, जैसा लिखा जाना चाहिए. जैसा मंटो ने कहा था, ‘जमाने के जिस दौर से हम गुजर रहे हैं, अगर आप उससे वाकिफ नहीं हैं तो मेरे अफसाने पढ़िए और अगर आप इन अफसानों को बर्दाश्त नहीं कर सकते तो इसका मतलब है कि जमाना नाकाबिले-बर्दाश्त है.’

साहित्यिक चर्चाओं में तो कई लोग उनपर कविता की बर्बादी के आरोप भी लगते हैं, जैसे नई वाली हिंदी के लेखकों पर साहित्यिक हिंदी को खराब करने के आरोप लगते आ रहे हैं.

आमिर अज़ीज

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राजधानी दिल्ली की दीवारों और पोस्टरों पर बड़े और साफ शब्दों में लिखी गई ये लाइनें इंटरनेट की प्रभावशाली आवाजों के लिए इंकलाब बन गईं और ये लाइनें तब प्रसिद्धि पा गईं जब पिंक फ्लोयड बैंड के कोफाउंडर रॉजर वॉटर्स ने इसे पढ़ा और आमिर अजीज (जिसने इसे लिखा है) का नाम लिया. आमिर की पहचान उन्होंने एक कवि और सामाजिक कार्यकर्ता के तौर पर करवाई. लेकिन आमिर कौन हैं? जिनकी कविताएं भारत के युवाओं के बीच तेज़ी से प्रसिद्ध हो रही हैं.

30 वर्षीय आमिर, खुद को एक एक्टर के तौर पर देखते हैं जो अलग-अलग आर्ट फॉर्म में विश्वास रखता है, जैसे- कविता लिखना, म्यूजिक और डायरेक्शन. 2005-06 में बिहार के पटना से दिल्ली पहुंचे आमिर ने सिविल इंजीनियरिंग में डिप्लोमा कोर्स किया. इस दौरान 2007 में वो थिएटर से जुड़ गए. वो साथ ही साथ नौकरी भी करते रहे और छात्र राजनीति से भी जुड़ गए. वो अपने शुरुआती दिनों के प्रदर्शनों के बारे में बताते हैं, ‘मैंने ‘खामोश अदालत जारी है’ नाम के नाटक में एक रोल के जरिए अपना पहला विरोध जताया. उसके बाद 2011-2015 में बैचलर ऑफ इंजीनियरिंग की डिग्री हासिल की. 2016 में एक्टिंग में अपना करियर बनाने मुंबई निकल आया.’

जिस वक्त आमिर को इंटरनेशनल फेम मिल रहा था. उस वक्त वो दिल्ली दंगों में फंसे अपने जान-पहचान के लोगों की चिंता में डूबे थे. क्या आप रॉजर वॉटर्स का वो वीडियो देखकर अभिभूत नहीं हुए? इस सवाल पर आमिर कहते हैं, ‘दंगों की स्थिति में आप कैसे अभिभूत महसूस कर सकते हैं?’

आमिर की कविताएं वायरल हो रही हैं. उनकी कविताओं की भाषा पारंपरिक कविताओं से अलग है. इस पर आमिर कहते हैं, ‘ये कविता मैंने धरनों के दौरान ही लिखी थी. जो देख रहा था, वो लिख रहा था. जो प्रोटेस्ट की स्पिरिट थी, वही मेरा स्टेट ऑफ माइंड था. भाषा वही होनी चाहिए जो लोगों को समझ आए.’

शाहों को बेनकाब करती हैं,
इशारों से इंकलाब करती हैं
ये जामिया की लड़कियां!

नागरिकता संशोधन कानून के धरनों से पहले भी आमिर लिखते और गाते रहे हैं. लेकिन इन प्रदर्शनों के बाद उनके साथ एक और पहचान ‘मिलेनियल कवि’ भी जुड़ गई है. लेकिन आमिर इस पहचान का बोझ नहीं ढोना चाहते. वो कहते हैं,  ‘मिलेनियल कवि से लोगों का मतलब हो सकता है कि नौसिखिया हो या फिर क्रांतिकारी. लेकिन मैं कविता को अपनी जरूरत के तौर पर देखता हूं. ये मेरा कोई शौक नहीं है. मैं अगर नहीं लिखूंगा तो कौन लिखेगा? हां, ये नई पहचान एक तरफ जहां बहुत से लोगों का प्रेम लेकर आई है तो यही पहचान एक खतरा लेकर भी आई है.’


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सोशल मीडिया पर उमड़ा समर्थन आमिर के निजी जीवन तक भी पहुंचा. लेकिन क्या ये सोलिडैरिटी प्रोफेशनल रिश्तों में दिखी? इस सवाल पर आमिर कहते हैं, ‘मेरे एक्टर बनने का संघर्ष जारी है. जो लोग आ रहे हैं वो कविता के भाव से जुड़कर आ रहे हैं. इससे काम या रहन-सहन पर कोई फर्क नहीं पड़ने वाला.’

पुनीत शर्मा

हिंदुस्तान से मेरा सीधा रिश्ता है,
तुम कौन हो बे?
क्यूं बतलाऊं तुमको कितना गहरा है,
तुम कौन हो बे?

पुनीत शर्मा ने ये कविता नागरिकता संशोधन कानून के प्रदर्शनों से बहुत पहले ही लिखी थी. वो बताते हैं, ‘जब मैं कविता लिख रहा था तो मेरे आस-पास के लोग बात-बात पर हिंदुस्तान से प्रेम का सबूत मांग रहे थे. उस वक्त मुझे ऐसा लगा कि जैसे कोई मुझे मेरी मां के रिश्ते के बारे में पूछ रहे हों. तभी मैंने ये कविता लिखी. मैं किसी को अपनी मां और मेरे बीच का रिश्ता या हिंदुस्तान से अपना रिश्ता क्या बतलाऊं? ‘

पुनीत की ये कविता खूब वायरल हुई और धरनों पर बैठे लोगों ने इसे अपने पोस्टरों पर जगह दी. लेकिन क्या वो खुद को मिलेनियल कवि के तौर पर देखते हैं? इस पर वो कहते हैं, ‘ये उस बात पर निर्भर करता है कि लोग किस तरह से इसे इस्तेमाल कर रहे हैं. आमतौर पर तो नए लोगों की पौध के लिए इस्तेमाल किया जाता है.’

बायोटक्नोलॉजी के स्टूडेंट रहे पुनीत 2011 में इंदौर से मुंबई आ गए. यहां आकर वो गाने व स्क्रिप्ट लिख रहे हैं और थिएटर भी कर रहे हैं.

अपनी कविता की भाषा को लेकर वो कहते हैं, ‘ऐसा नहीं है कि मैं गंभीर कविताएं नहीं लिखता. लेकिन मुझे लगता है कि सरल हिंदी में अपनी भावनाएं लोगों को पहुंचा देना ही कविता का असल मकसद है.’


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पुनीत भी आमिर की बात से इत्तेफ़ाक रखते हैं कि इन धरनों के दौरान मिली एक और पहचान अपने साथ एक साइकोलॉजिकल डर लेकर आई है. वो कहते हैं, ‘कविताएं वायरल बाद में होती हैं, लेकिन कवियों को खतरा पहले ही दिख जाता है. भले ही वायरल होने से एक तरह का एक्सपोजर मिलता है लेकिन वायरल होना ही इकलौता मकसद नहीं है.’

नवीन चौरे

एक सड़क पर खून है
तारीख कोई जून है
एक अंगुली है पड़ी
और उसपर जो नाखून है

‘मुकम्मल’ नाम की ये कविता एक मुसलमान की मॉब लिंचिंग पर आईआईटी के छात्र रहे 27 वर्षीय नवीन चौरे की ये कविता आपको हरिशंकर परसाई की याद दिलाएगी. परसाई व्यंग्य के मार्फत वो लोगों को भीड़तंत्र के बारे में आगाह करते रहे. पिछले साल सितंबर में वायरल हुई कविता के बाद नवीन की कविताओं की एक किताब ‘कोहरा घना है’ पब्लिश हुई. ये किताब पेंगुइन इंडिया ने छापी है.

कैमिकल इंजीनियरिंग बैकग्राउंड वाले नवीन नुक्कड़ नाटक करते रहे हैं. वो बताते हैं, ‘मेरी कविताओं की भाषा सत्ता के खिलाफ नहीं, सत्ता के जुल्म के खिलाफ हैं. जब मैंने ये कविता लिखी थी तब देश में ‘सेंस ऑफ फीयर’ पनप रहा था. अखलाक की मॉब लिंचिंग मेरे दिमाग रह गई थी.’

वो आगे जोड़ते हैं, ‘मैं मिलेनियल कवि जैसे खाके में फिट नहीं होना चाहता. जैसा निदा फाजली कहते हैं, हर आदमी में होते हैं दस बीस आदमी,जिस को भी देखना हो कई बार देखना.’

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