scorecardresearch
Thursday, 19 December, 2024
होमदेश'मारना ही है तो मुझे, बच्चों और खालिद को एक ही बार में मार दो'- ‘राजनीतिक कैदियों’ के परिवारों को क्या झेलना पड़ता है

‘मारना ही है तो मुझे, बच्चों और खालिद को एक ही बार में मार दो’- ‘राजनीतिक कैदियों’ के परिवारों को क्या झेलना पड़ता है

इन तीनों महिलाओं में एक समान बात यह कि उन्होंने पिछले दो सालों में या तो खुद राजनीतिक कैदी के रूप में या फिर उनके किसी चाहने वाले की वजह से: पुलिस, जेल अधिकारियों और न्यायपालिका का सामना किया है.

Text Size:

नई दिल्ली: सफूरा जरगर, दोस्तों को खोने का दर्द और ऑनलाइन ट्रॉलिंग से निपटना सीख रही हैं. नरगिस सैफी ने लंबे समय से अपने बच्चों को हंसते- मुस्कुराते हुए नहीं देखा है. वहीं, पी.पवाना अपने पिता को एक के बाद एक दुर्बल बीमारियों से लड़ते हुए देख रही हैं. इन तीनों महिलाओं में एक समान बात यह कि उन्होंने पिछले दो सालों में या तो खुद राजनीतिक कैदी के रूप में या फिर उनके किसी चाहने वाले की वजह से: पुलिस, जेल अधिकारियों और न्यायपालिका का सामना किया है.

उनकी दास्तां में आर्थिक सुरक्षा और सोशल स्टिग्मा से जुड़ी चिंताओं की निरंतर भावना है.

मेडीकल केयर की कमी और जेलों में इसकी नजरअंदाजी करना एक अलग बात है लेकिन यह सब कैसे खत्म होगा इसके बारे में सोचना ही मानसिक पीड़ा को और बढ़ा देता है.

खालिद सैफी ने जेल में अपनी पत्नी नरगिस से पूछा, ‘क्या मैं कभी बाहर आ पाउंगा? ऐसा तो नहीं कि मुझे जेल में ही कई दशक लग जाएंगे?’ नरगिस दिप्रिंट से कहती हैं ‘मुझे समझ नहीं आता है कि मैं कैसे उन्हें उम्मीद दूं.’ खालिद यूनाइटिड अगेंस्ट हेट नाम की संस्था के संस्थापक हैं और उन्हें फरवरी 2020 में दिल्ली दंगों के मामले में गिरफ्तार किया गया था. वे तब से जेल में हैं और खालिद के परिवार ने उनके खिलाफ लगाए गए आरोपों को ‘मनगढ़ंत’ करार दिया है.

नरगिस कहती हैं, ‘एक दिन हमें इंसाफ जरूर मिलेगा लेकिन हमारा कारोबार पूरी तरह से चौपट हो गया है, लोग हमें शक की निगाहों से देखते हैं. मेरे बच्चे अपने पिता के बगैर बड़े हो रहे हैं. हमारे इस संघर्ष के लिए कौन जवाबदेही लेगा? मुझे यकीन है कि खालिद एक दिन बा-इज्जत बरी होकर अपने घर वापस जरूर लौटेंगे लेकिन न्यायिक प्रक्रिया पर हमेशा के लिए हमारा कर्ज रह जाएगा.’

सफूरा को अप्रैल 2020 में सीएए-एनआरसी के खिलाफ में किए गए विरोधी प्रदर्शनों के सिलसिले में गैरकानूनी गतिविधि (रोकथाम) अधिनियम के तहत गिरफ्तार किया गया था. उन्होंने लगभग ढाई महीने जेल में गुजारे थे.

हालांकि वह अभी जमानत पर बाहर हैं लेकिन यह उनके लिए एक अस्थायी राहत है. 2002 के गुजरात दंगों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को क्लीन चिट को चुनौती देने वाले याचिकाकर्ताओं में से एक मानवाधिकार कार्यकर्ता तीस्ता सीतलवाड़ की गिरफ्तारी यह याद दिलाती रहेगी ये मामले ‘कभी खत्म नहीं’ होंगे.


यह भी पढ़ें: उर्दू प्रेस ने SC द्वारा नुपुर शर्मा की निंदा को भारतीय मुसलमानों की मानसिक स्थिति की झलक बताया


खराब मेडिकल सुविधा

यूएपीए जैसे कठोर कानून के तहत जेल में डाला जाना ही बुरा नहीं है बल्कि उसके भीतर अमानवीय स्थितियां इस परीक्षा को और दर्दनाक बना देती हैं. तीनों महिलाएं जेलों की दयनीय स्थिति, खराब बुनियादी ढांचे और मेडिकल केयर की कमी के बारे में गहरी चिंता जाहिर करतीं हैं.

पवाना अपनी आपबीती बताते हुए कहती हैं, ‘जब हम पिछली बार तलोजा जेल गए थे तो वहां 3 हजार से ज्यादा कैदियों पर सिर्फ तीन डॉक्टर थे, जिनमें से दो आयुर्वेदिक से थे और एक होम्योपैथी के डॉक्टर थे. इन तीन डॉक्टरों में से दो रिटायर्ड हो गए थे और एक के पास एमबीबीएस की डिग्री नहीं थी.’

पवाना, अपने पिता 84 वर्षीय बुजुर्ग तेलुगु कवि वरवर राव को परमानेंट मेडिकल जमानत दिलाने के लिए संघर्ष कर रही हैं. राव 2018 भीमा कोरेगांव हिंसा मामले में आरोपी हैं और उन्हें यूएपीए के तहत कथित तौर पर प्रधानमंत्री मोदी की हत्या की साजिश रचने के आरोप में गिरफ्तार किया गया था.

आदिवासी अधिकार कार्यकर्ता फादर स्टेन स्वामी की मौत इस बात की याद दिलाती है कि स्थिति कितनी ज्यादा बदतर हो सकती है. अप्रैल 2021 में स्टेन स्वामी की मौत से पहले स्पेशल एनआईए कोर्ट ने उनकी मेडिकल आधार पर जमानत की अर्जी को खारिज कर दिया था. उनकी मौत को सामाजिक कार्यकर्ताओं, मानवाधिकार संगठनों और उनके परिवार ने ‘संस्थागत’ और ‘न्यायिक’ हत्या बताया था.

वरवर राव को फरवरी 2021 में अंतरिम चिकित्सा जमानत दी गई थी और उनकी स्थायी जमानत की याचिका को खारिज कर दिया गया था. पवाना कहती हैं,’अगर उन्हें इसी खराब सेहत की स्थिति में वापस जेल भेजा जाता है तो मुझे डर है कि उनकी तबियत और ज्यादा बिगड़ सकती है. डॉक्टरों का कहना है कि उन्हें डिमेंशिया हो सकता है. ऐसे भी संभावना जताई है कि उनके ब्रेन में बल्ड क्लॉट भी बन सकते हैं. उन्हें पार्किंसंस नाम की बीमारी भी है.’

वो आगे कहती हैं, ‘जेल लोगों में सुधार लाने के लिए है लेकिन शासक वर्ग के लोगों को लगता है कि सजा देने की जगह है. विचाराधीन कैदियों के पास कई अधिकार मौजूद हैं जिनके बारे में जेल मैनुअल वाले अधिकारियों को भी पता नहीं है.’

सफूरा तिहाड़ जेल के महिला सेक्शन को पुरुषों जेल के सिद्धांतों के मुताबिक काम करने वाला बताती हैं. वो कहती हैं, ‘प्रेग्नेंट महिलाओं के लिए जमीन पर लेटना मुश्किल होता है. वहां महिलाओं के प्रीनेटल और पोस्टनेटल जैसी बुनियादी सुविधाएं तक मौजूद नहीं है.

जेल में उनके अनुभव 1979 के सुप्रीम कोर्ट के ऐतिहासिक फैसले के बिल्कुल उलट हैं. कोर्ट ने कहा था कि जेल में बंद लोग अपने मौलिक अधिकारों को नहीं खोते हैं. सफूरा ने आरोप लगाया कि जेल में आए दिन मानवाधिकारों का उल्लंघन किया जा रहा है. वो कहती हैं, ‘इस हनन के बारे में हम बात करने की हिम्मत भी नहीं करते हैं.’ जमानत पर बाहर आने के बाद से सफूरा कैदियों के लिए मेडिकल सुविधा की कमी को उजागर करने की कोशिश कर रही हैं.

बच्चों पर पड़ता प्रभाव 

सहानुभूति कानूनी व्यवस्था में काफी दुर्लभ है. इसकी पूरी प्रक्रिया में बच्चे अपने अनुभवों से अगर ट्रॉमा में नहीं भी जाते हों लेकिन भ्रमित जरूर हो जाते हैं. नरगिस के तीनों बच्चे जब सुनवाई के दौरान अदालत में अपने पिता खालिद से मिलते हैं, तो वो अपने अब्बू को गले लगाने या उनका हाथ थामने के लिए उनकी तरफ दौड़ पड़ते हैं. यह स्वाभाविक भी है. नरगिस के मुताबिक ड्यूटी पर तैनात पुलिसकर्मी उन्हें रोक देते हैं और कभी-कभी शारीरिक रूप से बच्चों के हाथों को उनके पिता को छूने से पहले ही झटक देते हैं. नरगिस कहती हैं, ‘पुलिस वाले इसके लिए खालिद की सुरक्षा का हवाला देते हैं.’ वो आगे कहती हैं, ‘बच्चे मुझसे पूछते हैं, ‘अब्बू को हमसे किस तरह का खतरा है? मेरे पास इसका कोई जवाब नहीं है.’

नरगिस बच्चों से कहती हैं कि पुलिस सिर्फ अपना काम कर रही है. वो अपनी बात को जारी रखते हुए कहती हैं, ‘मैं उन्हें समझाती हूं कि पुलिस उनके पिता की बुरे लोगों से सुरक्षा कर रही है. मैं उन्हें हमेशा कहती हूं कि हमें प्रशासन और अदालत पर भरोसा रखना है.’

ब्रिटेन स्थित यूनिवर्सिटी ऑफ हडर्सफील्ड की एक रिपोर्ट कहती है कि बच्चों के कल्याण को पुलिस और आपराधिक न्याय एजेंसियों द्वारा प्राथमिकता नहीं दी जाती है. मिसाल के तौर पर पुलिस द्वारा इस्तेमाल किया जाने वाला रवैया, भाषा और गिरफ्तारी करने का तरीका बच्चे पर मानसिक और शारीरिक तौर पर गहरा प्रभाव डाल सकता है.

बच्चों को निगेटिविटी से बचाने के लिए नरगिस ने अपने घर में खालिद की गिरफ्तारी के बाद से ही टीवी न्यूज चैनल्स देखने पर प्रतिबंध लगा दिया है लेकिन उनकी यह तरकीब हर बार कामयाब नहीं हो पाती है. उनके बड़े बेटे को यूट्यूब पर खालिद के ‘न्यूज ट्रायल’ का एक वीडियो मिला. वो दौड़ता हुआ अपनी मां के पास गया. नरगिस कहती हैं, ‘वो भागते हुए मेरे पास आया और पूछा कि क्या सच में ही अब्बू ने यह सब किया है?’

खालिद की गैर-मौजूदगी में नरगिस सिंगल मदर के तौर पर अपने तीन बच्चों की परवरिश कर रही हैं. इसके साथ उन्हें स्टिग्मा और समाज द्वारा जज किए जाने का भी सामना करना पड़ता है. नरगिस बताती हैं, ‘जब ईद से पहले खालिद की जमानत अर्जी खारिज कर दी गई तो मेरे बच्चों ने उम्मीद खो दी. इसके बाद से वो और भी खामोश हो गए हैं.’

यह सिस्टम इस बात पर भी ध्यान नहीं देता है कि माता-पिता की कैद बच्चे के व्यवहार को निगेटिव कर सकती है – इसके सामाजिक, भावनात्मक और मनोवैज्ञानिक प्रभाव हो सकते हैं. यूनाइटेड किंगडम में सेंटर फॉर यूथ एंड क्रिमिनल जस्टिस के शोधकर्ताओं ने पाया कि आर्थिक बाधाओं की वजह से बच्चे अक्सर नियमित गतिविधियों में हिस्सा लेने से बचते हैं. कुछ केयरटेकर ने स्वीकार किया कि उनकी देखरेख में मौजूद बच्चों ने खुद को समाज से अलग कर लिया है.

सिस्टम में सहानुभूति की कमी से पवन भी दुखी और निराश हैं. जब उनके बच्चे पुणे जेल में अपने नाना से मुलाकात करने गए तो वहां के एक अधिकारी ने उन्हें मिलने से रोक दिया और कहा कि सिर्फ ‘बेटे के बच्चों’ को ही मिलने की इजाजत दी जाती है, न कि ‘बेटी के बच्चों’ को. वो कहती हैं, ‘ऐसा लगता है कि हर जेल के अपने अलग नियम होते हैं.’


यह भी पढ़ें: SC से छत्तीसगढ़ के ‘फर्जी एनकाउंटर’ की जांच अपील खारिज होने पर हिमांशु कुमार ने कहा- जुर्माना नहीं, जेल भरेंगे


मानसिक स्वास्थ्य पर पड़ता गहरा असर  

ये अनुभव न केवल उनके शारीरिक स्वास्थ्य बल्कि उनके मानसिक स्वास्थ्य पर भी गहरा असर डालते हैं. जेल में रहने का ‘स्टिग्मा’ और सोशल मीडिया के हमले कभी आपका पीछा नहीं छोड़ते हैं.

मिसाल के तौर पर, दिप्रिंट के साथ बात करते हुए नरगिस सुसाइड करने वाले विचारों के खिलाफ अपने निरंतर संघर्ष के बारे में खुलकर बात रखती हैं. एक सोशल मीडिया पोस्ट में उन्होंने लिखा, ‘मारना ही है तो एक ही बार में मुझे, बच्चों और खालिद को मार दो, ऐसे क्यों हमें तिनका-तिनका करके मार रहे हो.’

जब भी सफूरा डॉक्टर से जांच कराने जाती हैं और मेडिकल हिस्ट्री के बारे में बताती हैं तो वो उनकी प्रतिक्रिया को लेकर अक्सर चिंतित हो जाती हैं. वो कहती हैं, ‘एक डर हमेशा होता है कि यह हमारे बारे में क्या सोचेंगे. क्या मुझे यह क्रिमनल समझेंगे? रोजाना कुछ इस तरह की घटनाएं होती हैं जो आपको बार-बार यह सब याद दिलाती रहती हैं.’

सफूरा की गिरफ्तारी के बाद, एक हिंदुत्व ग्रुप ने उनकी सोशल मीडिया पर फेक और अश्लील तस्वीरें साझा की थीं. हालांकि वीडियो और तस्वीरें फर्जी साबित हुई थीं, फिर भी इनके जरिए उनपर लगातार हमला किया जाता है. वह कहती हैं, ‘आज भी जब मैं सोशल मीडिया पर अपने विचार साझा करती हूं तो ये लोग मेरी शादी और मेरे बच्चे को निशाना बनाते रहते हैं.’

एमनेस्टी इंडिया की एक रिपोर्ट बताती है कि भारत में मुस्लिम महिला राजनेताओं की दूसरों की तुलना में 55 फीसदी ज्यादा ट्रोलिंग का शिकार होना पड़ा है. अन्य धर्मों की महिलाओं की तुलना में मुस्लिम महिलाओं की 94.1 प्रतिशत अधिक जातीय या धार्मिक आधार पर ट्रॉलिंग की गई है. सफूरा के मुताबिक जिस तरह से मुस्लिम महिलाओं को ट्रोल किया जा रहा है, वह उनके प्रति गहरी नफरत को दर्शाता है. सफूरा कहती हैं, ‘मुस्लिम महिलाओं का यह अमानवीयकरण हमारे हर तरफ हो रहा है. यह एक संगठित, सिस्टमैटिक और प्रोपागेंडा के तहत किया जा रहा है.’

इस उदासी भरे समय में भी दोस्तों और अजनबियों की सहानुभूति एक आशा की किरण की तरह है. नरगिस बताती हैं कि गिरफ्तार होने के बाद उनके पति का कारोबार पूरी तरह से ठप हो गया है लेकिन खालिद के दोस्त उन्हें आर्थिक समेत दूसरी मदद भी पहुंचाते हैं. यूनाइटेड अगेंस्ट हेट जैसी संस्था राजनीतिक कैदियों के जरूरतमंद परिवारों को आर्थिक और कानूनी सहायता दे रही हैं जबकि कुछ वकील और कार्यकर्ता खुद सामने आकर इन्हें कानूनी मदद पहुंचा रहे हैं. सच्चाई के प्रति इनकी प्रतिबद्धता के साथ-साथ सहानुभूति का यह काम ही आगे चलते रहने के लिए प्रेरित करेगा.

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


यह भी पढ़ें: ‘सेक्स वर्कर्स सम्मान और सुरक्षा की हकदार’, जानें SC के फैसले से कितनी बदलेगी इससे जुड़ी महिलाओं की जिंदगी


share & View comments