नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने वाराणसी में निर्माणाधीन रोपवे परियोजना के एक हिस्से पर रोक लगा दी है. यह रोपवे काशी विश्वनाथ मंदिर और दशाश्वमेध घाट सहित शहर के प्रमुख स्थलों तक पहुंच को सुगम बनाने के उद्देश्य से बनाया जा रहा है.
18 फरवरी को जस्टिस एमएम सुंदरेश और संजय करोल की पीठ ने तीन महिलाओं द्वारा दायर याचिका पर सुनवाई करते हुए “यथास्थिति बनाए रखने” का आदेश दिया. याचिकाकर्ताओं – मानषा सिंह, सुचित्रा सिंह और प्रतिमा सिंह – ने आरोप लगाया कि उत्तर प्रदेश प्रशासन ने बिना किसी पूर्व सूचना या मुआवजे के उनकी दुकानों को तोड़ दिया, ताकि रोपवे परियोजना के लिए जमीन अधिग्रहण किया जा सके.
सुप्रीम कोर्ट ने उत्तर प्रदेश सरकार को याचिका पर जवाब देने का निर्देश दिया और अगली सुनवाई की तारीख 14 अप्रैल तय की. अदालत ने अंतरिम राहत देते हुए कहा, “फिलहाल, सभी पक्ष वर्तमान स्थिति बनाए रखें.”
तीनों महिलाओं ने यह याचिका तब दाखिल की जब इलाहाबाद हाईकोर्ट ने उनकी संपत्तियों की रक्षा करने से इनकार कर दिया, जबकि उनके “अवैध तोड़फोड़” को चुनौती देने वाली याचिका हाईकोर्ट में लंबित थी.
20 जनवरी 2025 को इलाहाबाद हाईकोर्ट ने इस मामले की सुनवाई के लिए सहमति दी थी और राज्य सरकार को नोटिस जारी किया था. हालांकि, अपने आदेश में तोड़फोड़ को “अवैध और मनमाना” बताते हुए भी हाईकोर्ट ने प्रशासन को आगे “अवैध निर्माण” करने से नहीं रोका.
सुप्रीम कोर्ट में याचिकाकर्ताओं की ओर से पेश वकील रोहित अमित स्थालेकर ने दिप्रिंट से कहा कि यह तोड़फोड़ असंवैधानिक है और कानून के खिलाफ है. उन्होंने कहा, “यह संपत्तियां फ्रीहोल्ड हैं. राज्य सरकार को उन्हें गिराने से पहले मालिकों को सुनवाई का अवसर देना चाहिए था.”
“मेरे मुवक्किलों की सुरक्षा करने में हाईकोर्ट की विफलता ने उनकी याचिका को लगभग निरर्थक बना दिया है, क्योंकि जिस जगह पर संपत्तियां स्थित थीं, वहां निर्माण कार्य जारी रहा. यह मेरे मुवक्किलों के लिए एक ऐसी क्षति है, जिसकी भरपाई नहीं हो सकती.”
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‘संवैधानिक अधिकारों का उल्लंघन’
वाराणसी में बन रहा महत्वाकांक्षी रोपवे प्रोजेक्ट भारत का पहला सार्वजनिक परिवहन रोपवे और दुनिया का तीसरा होगा. यह 4.2 किमी की दूरी को कवर करेगा, जो वाराणसी रेलवे स्टेशन को चर्च स्क्वायर या गोडौलिया चौक से जोड़ेगा.
यह रोपवे काशी के प्रमुख स्थलों, जैसे काशी विश्वनाथ मंदिर और दशाश्वमेध घाट, तक पहुंच को आसान बनाएगा, जहां सुबह और शाम की गंगा आरती देखने हजारों पर्यटक आते हैं. इसके शुरू होने से शहर में ट्रैफिक जाम कम होने की उम्मीद है, जिससे श्रद्धालुओं और पर्यटकों को महत्वपूर्ण स्थलों तक आसानी से पहुंचने में मदद मिलेगी.
सुप्रीम कोर्ट का रुख करने वाली तीन महिलाओं का आरोप है कि राज्य सरकार ने “अवैध” रूप से उनकी दुकानें गिरा दीं. उनका दावा है कि दशाश्वमेध घाट पर स्थित उनकी पांच दुकानों की बाजार कीमत लगभग 15 करोड़ रुपये थी, लेकिन उन्हें बिना किसी लिखित नोटिस के “मनमाने तरीके” से तोड़ दिया गया.
उनका कहना है कि इस कार्रवाई से उन्हें उनकी संपत्तियों के कानूनी स्वामित्व के अधिकार से वंचित कर दिया गया, जो संविधान के अनुच्छेद 300A के तहत संरक्षित है. साथ ही, यह अनुच्छेद 14 (समानता का अधिकार) और अनुच्छेद 21 (जीवन, गरिमा के साथ जीने और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार) का भी उल्लंघन है.
‘प्रक्रिया का पालन नहीं किया गया’
वर्तमान कानूनी ढांचे के तहत, सरकार किसी निजी संपत्ति का अधिग्रहण केवल भूमि अधिग्रहण, पुनर्वास और पुनर्स्थापन में उचित मुआवजा और पारदर्शिता अधिनियम, 2013 (RFCTLARR Act, 2013) के तहत अधिग्रहण प्रक्रिया शुरू करने के बाद ही कर सकती है.
इस कानून के अनुसार, सरकार सार्वजनिक परियोजनाओं, जैसे सड़कों के निर्माण के लिए, निजी भूमि का अधिग्रहण कर सकती है. हालांकि, 2013 के कानून में एक निर्धारित प्रक्रिया का पालन करना आवश्यक है, जिसे किसी भी सरकारी एजेंसी को निजी संपत्ति के अधिग्रहण से पहले पूरा करना होता है.
इस प्रक्रिया के तहत, सरकार को सबसे पहले सार्वजनिक रूप से एक नोटिस जारी करना होता है, जिसमें संपत्ति अधिग्रहण का प्रस्ताव घोषित किया जाता है. इसके बाद, मूल मालिक को उचित मुआवजा देने की प्रक्रिया शुरू की जाती है.
भूमि अधिग्रहण कानून संपत्ति मालिक को यह अधिकार देता है कि वह अधिग्रहण की वैधता पर सवाल उठा सके, खासकर अगर उचित प्रक्रिया का पालन न किया गया हो या मुआवजे की राशि को लेकर विवाद हो.
इस मामले में, याचिकाकर्ताओं ने तर्क दिया कि 2013 कानून के तहत कोई प्रक्रिया नहीं अपनाई गई. स्थानीय सरकारी अधिकारियों ने संपत्ति मालिकों से कोई बातचीत तक नहीं की और जबरन उनकी संपत्तियों का अधिग्रहण कर लिया.
याचिका में सुप्रीम कोर्ट के कई फैसलों का हवाला दिया गया है, जिनमें संपत्ति से वंचित करने की अनुचित प्रक्रिया की आलोचना की गई है. साथ ही, याचिकाकर्ताओं ने इलाहाबाद हाईकोर्ट द्वारा तीन महिलाओं को अंतरिम राहत न देने के फैसले की भी आलोचना की.
उन्होंने तर्क दिया कि पहले के फैसले यह स्पष्ट करते हैं कि अंतरिम सुरक्षा जरूरी होती है, ताकि मुख्य मामले का निर्णय होने से पहले ही वह निष्प्रभावी न हो जाए या fait accompli (अपरिवर्तनीय स्थिति) न बन जाए.
याचिकाकर्ताओं ने कहा कि अंतरिम राहत “न्याय के हित” में जरूरी थी और इससे संपत्ति मालिकों को अपूरणीय क्षति से बचाया जा सकता था.
(इस रिपोर्ट को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)
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