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Wednesday, 6 November, 2024
होमदेशहेल्थ सर्वे में खुलासा- देश में 15-24 साल की 50% महिलाएं पीरियड्स में पैड्स नहीं कपड़े का करती हैं इस्तेमाल

हेल्थ सर्वे में खुलासा- देश में 15-24 साल की 50% महिलाएं पीरियड्स में पैड्स नहीं कपड़े का करती हैं इस्तेमाल

पैड्स का महंगा होना और दिक्क्त देने कि वजह से ही महिलाएं कपड़े का इस्तेमाल करना सही समझती हैं.

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नई दिल्ली: देश में हमेशा से ही सरकारें मासिक धर्म यानी पीरियड्स के दौरान महिलाओं को सेनेटरी पैड्स का इस्तेमाल करने के लिए न सिर्फ जागरूक कर रही हैं बल्कि इसके लिए हर संभव प्रयास भी कर रही हैं. फिर भी एक रिपोर्ट की मानें तो देश में करीब 50 फीसदी महिलाएं पीरियड्स के दौरान कपड़े का इस्तेमाल करती हैं. राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएफएचएस) की रिपोर्ट में इसका खुलासा किया गया है. रिपोर्ट के मुताबिक, देश में 15-24 साल की उम्र की 50 फीसदी महिलाएं पीरियड्स के दौरान सेनेटरी पैड्स का नहीं कपड़े का इस्तेमाल करती है.

एनएफएचएस-5 में 15-24 उम्र की महिलाओं से पूछा गया कि वे पीरियड्स के दौरान प्रोटेक्शन के लिए किस तरीके का इस्तेमाल करती हैं. रिपोर्ट में बताया गया कि देश में 50 प्रतिशत महिलाएं कपड़े और 15 प्रतिशत स्थानीय तौर से तैयार नैपकिन का इस्तेमाल करती हैं.

जागरूकता की अभी भी कमी

हालांकि, कपड़े का इस्तेमाल करने वाली महिलाओ में आंकड़ों में कमी भी आई है. 2018 के रिपोर्ट के अनुसार देश में 62 प्रतिशत महिलाएं कपड़े का इस्तेमाल करती थीं. साथ ही इस सर्वे में यह भी पता चला था कि देश की 16 प्रतिशत युवतियां स्थानीय रूप से तैयार किए गए पैड्स का इस्तेमाल करती थी. जिसे ये पता चलता है की 2018 के मुकाबले 2022 में पैड्स का इस्तेमाल करने वाली महिलाओं के आंकड़े में इजाफा हुआ है.

एनएफएचएस-5 के अनुसार देश में जागरूकता की कमी के कारण महिलाएं अभी भी कपड़े का इस्तेमाल कर रही है. हालांकि, हर सरकार इस संदर्भ में जागरूकता बढ़ाने के लिए काम करती आई है. फिर चाहे वो स्कूलों में 12वीं कक्षा तक लड़कियों को सेनेटरी पैड्स बांटना हो, जगह-जगह पोस्टर लगा कर महिलाओं को जागरूक करना हो या टीवी में विज्ञापन के जरिये लोगों को जागरुक करना हो.

2018 में महिलाओं के पीरियड्स और उनके स्वास्थ्य पर आधारित फिल्म ‘पैडमैन‘ काफी चर्चा में रही. इस फिल्म ने भी महिलाओं को जागरूक बनाने में खासी भूमिका निभाई.

लेकिन इसकी काफी कुछ वजह समाज भी है जिसने इस पूरे विषय को टैबू बना रखा है. एक उदाहरण से यह बात जाहिर होती है कि क्या आदमी किसी लड़का या महिला का खराब मूड या परेशान देख उनसे उसकी इस दिक्कत के बारे में पूछ सकते हैं? ये सवाल एक पुरुष से पूछे जाने पर उन्होंने कहा कि हम खुद एक लड़की या महिला से ये पूछने में असजह महसूस करते हैं कि क्या वह अपने पीरियड्स के दिनों में चल रही है. क्योंकि हमें इस बात का डर होता है कि उस लड़की या महिला को बुरा न लग जाएं.

अभी भी बहुत सी लड़कियां और महिलाएं इस बात को खुल के किसी के सामने नहीं बोल पातीं. उनका कहना है कि वो बहुत ही असजह महसूस करती हैं. जब बिहार की एक महिला पूछा गया कि तुम ये सवाल अपने दोस्तों या किसी और से क्यों नहीं शेयर करती हो तो उसका कहना था कि उनको घर में इसके बारे में मना किया गया है और कहा गया है कि बाहर इसके बारे में किसी से बात नहीं करनी.


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महंगे हैं पैड्स

इसकी एक बड़ी वजह पैड्स का महंगा होना भी है. जिसके कारण महिलाएं कपड़े का इस्तेमाल करती हैं और कई माता-पिता इसे बेकार का खर्च समझ के नज़रअंदाज़ कर देते हैं. प्रधानमंत्री भारतीय जन औषधि परियोजना (पीएमबीजेपी) इस योजना के तहत केंद्रों में सैनिटरी नैपकिन कम से कम 1 रुपये प्रति पैड की कीमत पर उपलब्ध कराए जाते हैं फिर भी एक लड़की को एक महीने में यदि 10 पैड्स कि जरूरत है तो 10 रुपए मांगेगी. लेकिन ग्रामीण इलाकों में माता-पिता ये रकम देने से भी कई बार मना कर देते हैं.

कई छोटे गावों में लड़कियां पैड्स लेने जाने में भी कतराती हैं, उनका कहना यह भी है कि पैड्स का इस्तेमाल काफी ज्यादा दिकक्त भी देता है.

पैड्स का महंगा होना और दिक्क्त देने कि वजह से ही महिलाएं कपड़े का इस्तेमाल करना सही समझती हैं.

एनएफएचएस-5 के रिपोर्ट में विशेषज्ञों ने चिंता जताई कि अगर महिलाएं अशुद्ध कपड़े का पुन: उपयोग करती हैं, तो इससे उन्हें कई तरह के संक्रमणों का खतरा बढ़ जाता है

पैड्स पर्यावरण के लिए खतरा भी हैं

वहीं दूसरी तरफ, वैज्ञानिकों का कहना है कि यह सैनिटरी नैपकिन का कचरा पर्यावरण के लिए भी एक गंभीर चुनौती है. देश में हर साल 12.3 बिलियन सैनिटरी पैड इस्तेमाल किए जाते हैं, जिनमें से करीब 1,13,000 इस्तेमाल किए गए सैनिटरी पैड लैंडफिल में डंप किए जाते हैं.

‘सैनिटरी नैपकिन को समाप्त होने में 500 से 800 वर्ष लगते हैं’. महाराष्ट्र में स्थित ‘पैडकेयर लैब्स’ द्वारा विकसित इस तकनीक के तहत सैनिटरी नैपकिन कचरे को छांटकर उसका निपटान करने वाली मशीन का प्रोटोटाइप तैयार किया गया है लेकिन इसे अभी बाजार में पेश नहीं किया गया है.

इन पैड की सही जगह डिस्पोजल न होने के करण ये पैड सड़कों और गलियों मे नजर आते हैं, यहां गाय, कुत्ते आदि जानवर कचरे में खाना ढूंढते हुए इन पैड्स को भी खा जाते है, प्लास्टिक खाने की वजह से ये इनके मौत का भी कारण बनता है.

इन पैड्स को जल्दी खत्म करने के लिए इनको जला दिया जाता है, जिससे ज़हरीली वायु उत्पन होती है जो कि इंसानों के लिए खतरनाक होती है. वर्तमान में पैड्स की कंपनियां लाखों का कारोबार कर रहीं हैं और आने वाले समय में इनका कारोबार और भी बढ़ेगा.

सरकार को कुछ नई नीतियों के साथ आगे आना चाहिए और महिलाओं को बायोडिग्रेडेबल पैड का उपयोग करना चाहिए इसके लिए उन्हें जागरूक करने का काम शुरू करना चाहिए.


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