नई दिल्ली: उच्चतम न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश न्यायमूर्ति यू.यू. ललित ने ने शनिवार को कहा कि जब कई कानून स्पष्ट रूप से इसके लिए प्रावधान करते हैं तो न्यायाधीश मृत्युदंड को छोड़ नहीं सकते.
उन्होंने कहा, “हम इसे यूं ही नहीं छोड़ सकते और न ही कह सकते हैं कि हम किसी भी मामले में मौत की सज़ा नहीं देंगे. फिर उन वैधानिक इरादों का क्या होगा? इसे हमारी संसद, हमारे प्रतिनिधि लेकर आए हैं…उन्होंने उचित समझा है कि इस प्रकार के कानून बनाए जाने चाहिए, इसलिए, दोनों के बीच संतुलन बनाने का प्रयास करना होगा.”
पूर्व एससी न्यायाधीश ने कहा: “आपके दिमाग में हमेशा यह संभावना रहेगी कि मौत की सजा दी जा सकती है (लेकिन) इसका मतलब यह नहीं है कि ऐसा होना ही चाहिए. इसलिए, हम यह पता लगाने की कोशिश करते हैं कि क्या ऐसी कोई परिस्थिति है जो मौत की सज़ा न दिए जाने को उचित ठहराएगी.”
जस्टिस ललित, नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी (एनएलयू) दिल्ली के आपराधिक न्याय कार्यक्रम, प्रोजेक्ट 39ए द्वारा आयोजित आपराधिक कानून में छठे वार्षिक व्याख्यान में बोल रहे थे.
मृत्युदंड की सजा कम होने के बाद भी मौत की सजा पाने वाले दोषी के बारे में समाज की धारणा पर लोगों के एक सवाल का जवाब देते हुए, पूर्व न्यायाधीश ने इस तथ्य पर प्रकाश डाला कि भारत ऐसी स्थिति की ओर बढ़ रहा है जहां अदालतों द्वारा कम से कम मामलों में मौत की सजा दी जाती है.
हालांकि, उन्होंने कानूनी के विकास की ओर ध्यान आकर्षित करते हुए बताया कि संसद द्वारा संशोधन के माध्यम से कई अपराधों के लिए मृत्युदंड को सजा के रूप में जोड़ा गया है.
ललित ने कहा, “हर बार, न्याय के लिए सामाजिक मांग या रोना यह भी होता है कि कुछ मामलों में मौत की सज़ा दी जाए. यही वह संतुलन है जिसे न्यायपालिका को कायम करना है.”
‘निष्पक्षता’ से संबंधित प्रमुख मुद्दे
व्याख्यान के दौरान, ललित ने आपराधिक न्याय प्रणाली के हर चरण में “निष्पक्षता” से संबंधित प्रमुख मुद्दों पर बात की, जिसमें गिरफ्तारी, जांच और अभियोजन, ट्रायल कोर्ट, उच्च न्यायालय, सुप्रीम कोर्ट के साथ-साथ एक्ज़ीक्यूशन स्टेज भी शामिल है.
उन्होंने कहा, “इस तरह से हर स्तर पर अदालतों का दृष्टिकोण परिष्कृत हो रहा है…केवल यह देखने के लिए कि जो व्यक्ति मौत की सजा की संभावना का सामना कर रहा है, उसे पर्याप्त प्रतिनिधित्व मिलना चाहिए और अपना प्रतिनिधित्व करने का हर उचित अवसर दिया जाना चाहिए.”
ललित के अनुसार, सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश के रूप में, उनके सामने कम से कम 25 मौत की सजा के मामलों में से, उन्होंने केवल दो में मौत की सजा की पुष्टि की – एक चार साल की बच्ची के बलात्कार और हत्या के मामले में और दूसरा 2000 के लाल किले पर हमले के मामले में.
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‘कोई बहाना नहीं’
न्यायमूर्ति ललित ने अपने व्याख्यान की शुरुआत कई ऐतिहासिक निर्णयों के बारे में बात करते हुए की, जिन्होंने देश में मृत्युदंड से जुड़े ज्यूरिसप्रूडेंस (न्याय शास्त्र) की दिशा तय की है.
कई मामलों का जिक्र करते हुए, उन्होंने फिर जोर देकर कहा कि सुप्रीम कोर्ट “मौत की सजा के मामलों को… मौत के दोषियों को एक अलग तरह के करुणा भरे विचार के साथ देख रहा है.”
उन्होंने कहा, ”इसे पूरी तरह से सामान्य मामले के रूप में नहीं देखा जा रहा है. इन मामलों को विशेष सावधानी के साथ देखा जाता है.”
सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश के रूप में अपने कार्यकाल के दौरान, उन्होंने कई मामलों में मौत की सज़ा का भी निपटारा किया.
पिछले साल, उन्होंने मनोज बनाम मध्य प्रदेश राज्य मामले में एक ऐतिहासिक फैसला सुनाया, जिसमें मृत्युदंड की सजा में सुधार के महत्व पर प्रकाश डाला गया, और सुधार का आकलन करने में अदालत की सहायता के लिए जेल आचरण के साथ-साथ दोषी की मनोवैज्ञानिक और मनोवैज्ञानिक मूल्यांकन रिपोर्ट को अनिवार्य किया गया.
अदालत ने सुझाव दिया कि मृत्युदंड पर विचार करते समय सामाजिक परिवेश, आयु, शैक्षिक स्तर, दोषी द्वारा पहले जीवन में झेले गए किसी भी ट्रॉमा, पारिवारिक परिस्थितियां, दोषी का मनोवैज्ञानिक मूल्यांकन और दोषसिद्धि के बाद के आचरण जैसे सभी प्रासंगिक कारकों पर विचार किया जाना चाहिए.
इसलिए, अदालत ने ट्रायल कोर्ट्स द्वारा मिटिगेटिंग मटीरियल के संग्रह के लिए दिशानिर्देश निर्धारित किए.
हालांकि, मनोज का निर्णय पारित होने के बाद 20 मई 2022 से देश भर में ट्रायल कोर्ट द्वारा पारित 26 निर्णयों की जांच से पता चला कि ट्रायल कोर्ट सुप्रीम कोर्ट द्वारा निर्धारित दिशानिर्देशों का पालन नहीं कर रहे हैं.
व्याख्यान में, न्यायमूर्ति ललित ने इस बात पर जोर दिया कि निचली अदालतों को पहले दिन से ही इन दिशानिर्देशों के बारे में पता होना चाहिए.
उन्होंने कहा, “हो सकता है कि किसी प्रकार की प्रशासनिक मशीनरी द्वारा उनकी ओर से उल्लंघन हो, कि ये दिशानिर्देश हर अदालत में शायद पहले ही प्रसारित नहीं हो पा रहे हों.“
ललित ने कहा: “शायद उन दिशानिर्देशों को परिष्कृत करने और अतिरिक्त अनिवार्यताएं लागू करने का समय आ गया है. नंबर एक, या तो उन दिशानिर्देशों को प्रसारित करना, उन दिशानिर्देशों को प्रचारित करना… इसे सभी के ध्यान में लाया जाना चाहिए.’
पूर्व SC न्यायाधीश ने आगे कहा कि “आज की दुनिया में, कोई बहाना नहीं है. ट्रायल कोर्ट को इसके बारे में पता होना चाहिए, उन दिशानिर्देशों को शामिल करना चाहिए.”
(संपादनः शिव पाण्डेय)
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