मुंबई: मुंबई पुलिस की ‘वॉल ऑफ फेम’ पर जो अंतिम तीन तस्वीरें टांगी गईं हैं, उनमें से दो तस्वीरें महानिदेशक (डीजी) रैंक के आईपीएस अधिकारियों परम बीर सिंह और संजय पांडे की थीं, जो जबरन वसूली और मनी लॉन्ड्रिंग जैसे गंभीर आरोपों के लिए जांच का सामना कर रहे हैं.
अतिरिक्त महानिदेशक (एडीजी) रैंक की महाराष्ट्र की एक अन्य आईपीएस अधिकारी, रश्मि शुक्ला, कथित तौर पर अवैध फोन टैपिंग के लिए जांच के दायरे में हैं, जबकि एक चौथे अधिकारी, पुलिस उपायुक्त सौरभ त्रिपाठी – जिन्हें अंगड़िया या पारंपरिक रूप में सामान लाने ले जाने वाले लोगों से जबरन वसूली में उनकी भूमिका के कथित आरोप के बाद निलंबित कर दिया गया है – के खिलाफ लुकआउट नोटिस जारी किया गया है.
इन मामलों ने महाराष्ट्र के पुलिस बल, जिसे कभी कुशल अधिकारियों के साथ देश के बेहतरीन पुलिस बलों में से एक माना जाता था, की प्रतिष्ठा को गंभीर रूप से धूमिल किया है. एक समय ऐसा भी था जब मुंबई पुलिस को लंदन के स्कॉटलैंड यार्ड के बाद दूसरे स्थान पर माना जाता था.
महाराष्ट्र पुलिस के पूर्व अधिकारियों का कहना है कि हालांकि मुंबई पुलिस की प्रतिष्ठा अब जाकर सवालों के घेरे में आ गई है, मगर इसमें कथित रूप से आई सड़ांध का सिलसिला दो दशक से भी ज्यादा समय से चल रहा था. वे इस तरह की गिरावट के लिए मुख्य रूप से पुलिस बल में बढ़ते राजनीतिक हस्तक्षेप और अधिकारियों की नियुक्ति उनसे मिलने वाले प्रतिफल के लिए किये जाने को दोष देते हैं. उनका यह भी कहना है कि इस चीज के अलावा राजधानी मुंबई के अपने ग्लैमर और अपार पैसे के साथ काम करने के प्रति प्रलोभन मामले को और खराब कर सकता है.
दिप्रिंट के साथ बात करते हुए एक वरिष्ठ आईपीएस अधिकारी डी. शिवानंदन, जो 2011 में महाराष्ट्र के पुलिस महानिदेशक के रूप में सेवानिवृत्त हुए थे, ने कहा, ‘यह उन सभी महानगरों में हो रहा है जहां उच्च स्तर की आर्थिक गतिविधियां हैं, जैसे कि दिल्ली, बेंगलुरु या कोलकाता. लेकिन, महाराष्ट्र को हमेशा से एक अच्छे और मजबूत प्रशासन वाला राज्य माना जाता था. हमने जबरन वसूली पर लगाम कस दी थी, और साल 2001 में सभी तरह की माफिया गतिविधियों को समाप्त कर दिया था. यही कारण है कि अब महाराष्ट्र में आयी यह सड़ांध विशेष रूप से लोगों के ध्यान में आ रही है.’
उन्होंने कहा, ‘इस सब का लब्बोलुआब यह है कि एक (पुलिस) अधिकारी को ईमानदार, जोखिम लेने वाला होना चाहिए और उसे अपने राजनीतिक आकाओं को उपकृत नहीं करना चाहिए.’
‘एक ट्रीचरस माइनफील्ड’
साल 2018 में, जब सुबोध कुमार जायसवाल, जो अब केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) के निदेशक हैं, ने मुंबई पुलिस प्रमुख के रूप में पदभार संभाला था तो उन्होंने अपने पुलिस बल को ग्लैमर और ‘पेज 3’ – एक शब्द जिसका इस्तेमाल अख़बारों द्वारा ‘हाई सोसाइटी’ के बारे में खबर छपने वाले पन्नों के लिए किया जाता है – पार्टियों से दूर रहने के लिए कहा था.
फिर, पिछले ही साल, महाराष्ट्र के तत्कालीन उपमुख्यमंत्री और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (राकांपा) नेता अजीत पवार ने महाराष्ट्र पुलिस कर्मियों को ‘व्यवसायियों द्वारा उन्हें दी गई महंगी कारों’ का उपयोग करने के खिलाफ आगाह किया था.
ये दो बयान महाराष्ट्र जैसे राज्य, विशेष रूप से राजधानी मुंबई में, पुलिस व्यवस्था के आकर्षण और मायाजाल को समेट हुए हैं.
सेवानिवृत्त आईपीएस अधिकारी और महाराष्ट्र के पूर्व डीजीपी एम.एन. सिंह इसे एक ट्रीचरस माइनफ़ील्ड (जोखिम भरा बारूदी सुरंगो वाला क्षेत्र) के रूप में वर्णित करते हैं.
सिंह, जो मुंबई के पूर्व पुलिस प्रमुख भी रह चुके हैं, ने दिप्रिंट को बताया, ‘सभी प्रकार के प्रलोभन हैं. यह अरमानों को हवा देने वाला शहर है, जहां पैसे की संस्कृति हावी है. यदि शीर्ष पर बैठे अधिकारी मजबूत नैतिक बनावट वाले नहीं हैं, तो ऐसी चीजें होती रहती हैं. कई अधिकारी लालच के आगे घुटने टेक चुके हैं. यह इस शहर की खासियत है.’
जुलाई महीने की शुरुआत में, प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) ने संजय पांडे, जो 30 जून को मुंबई पुलिस प्रमुख के रूप में सेवानिवृत्त हुए थे, को कथित तौर पर नेशनल स्टॉक एक्सचेंज के उन कर्मचारियों के फोन टैप करने के आरोप में गिरफ्तार किया, जिसके बारे में ईडी का मानना है कि यह संदिग्ध मनी लॉन्ड्रिंग के मामले से जुड़ा हो सकता है.
पांडे मुंबई के दूसरे पुलिस प्रमुख हैं जिन्हें सेवानिवृत्त होने के कुछ ही दिनों के भीतर किसी कानून प्रवर्तन एजेंसी ने गिरफ्तार किया है.
ऐसा कहा जाता है कि वह पहला बड़ा मामला जिसने महाराष्ट्र पुलिस की प्रतिष्ठा और सत्यनिष्ठा को सवालों के घेरे में ला दिया, वह था 2003 का नकली स्टांप पेपर घोटाला, जिसमें एक जालसाज शख्श अब्दुल करीम तेलगी मुख्य आरोपी था. मुंबई के पूर्व पुलिस प्रमुख आर.एस. शर्मा – जिन्होंने पुणे पुलिस का भी नेतृत्व किया था – को इस मामले में एक आरोपी के रूप में नामित किया गया था. शर्मा को साल 2007 में पुलिस सेवा से छुट्टी दे दी गई थी.
साल 2003 में इस मामले की जांच के लिए महाराष्ट्र सरकार द्वारा गठित एक विशेष जांच दल ने यहां तक पाया था कि कुछ पुलिसकर्मियों ने पूर्व में तेलगी के कोलाबा स्थित घर पर पार्टी की थी.
स्टांप पेपर घोटाले की वजह से ही दिसंबर 2003 में महाराष्ट्र के गृह मंत्री के रूप में कार्यरत राकांपा के छगन भुजबल को इस्तीफ़ा देना पड़ा था.
हालांकि, आधिकारिक तौर पर उन्होंने कहा था कि उन्होंने इस्तीफा इसलिए दिया क्योंकि कुछ राकांपा कार्यकर्ताओं ने इस मामले में भुजबल की कथित संलिप्तता को दर्शाने के लिए एक निजी टीवी चैनल के कार्यालय में तोड़फोड़ की थी.
एक सेवानिवृत्त वरिष्ठ आईपीएस अधिकारी मीरान बोरवणकर ने दिप्रिंट को बताया, ‘1980 के दशक तक पुलिस नेतृत्व ज्यादातर ईमानदार ही था. उसके बाद, भ्रष्टाचार और राजनेताओं के इशारे पर काम करने का चलन आया और महाराष्ट्र पुलिस में गिरावट शुरू हो गई. पिछले डेढ़ दशक में पुलिस-राजनेता-भवन निर्माताओं -अपराधियों का गठजोड़ एकदम से खुल्लम खुल्ला और बेशर्म हो गया. नागरिक, नागरिक समाज और मीडिया या तो चुप रहे या उन्होंने भी एक पक्ष चुन लिया.’
मुंबई पुलिस की अपराध शाखा के प्रमुख और पुणे के पुलिस आयुक्त जैसे प्रतिष्ठित पदों पर रह चुकीं बोरवणकर ने कहा, ‘जो पहले भूले भटके होता था, वह अब नयी सामान्य बात हो गयी है.’
साल 2000 के बाद का पहला दशक वह समय भी था जब मुंबई पुलिस के कई प्रसिद्ध शार्पशूटर, जैसे दया नायक, प्रदीप शर्मा और सचिन वाज़े, को हिरासत में हुई कथित हत्याओं से लेकर आय से अधिक संपत्ति के आरोपों तक की वजह से निलंबन का सामना करना पड़ा.
फिर, 2020 में, सेवानिवृत्त पूर्व मुंबई पुलिस प्रमुख राकेश मारिया ने अपनी आत्मकथा में लिखा कि कैसे वरिष्ठ आईपीएस अधिकारी देवेन भारती के कथित तौर पर एक टेलीविजन चैनल के शीर्ष स्तर के अधिकारीयों इंद्राणी और पीटर मुखर्जी, जिनपर इंद्राणी की बेटी शीना बोरा की हत्या करने का आरोप लगाया था, के साथ एक दूसरे को उनके पहले नाम से बुलाने जितने नजदीकी सम्बन्ध थे. मारिया ने अपनी किताब में दावा किया है कि भारती ने उन्हें बोरा के लापता होने की सूचना नहीं दी थी, हालांकि उन्हें इसके बारे में कुछ समय पहले से पता था. हालांकि भारती ने मारिया के इन दावों को खारिज कर दिया था .
उसके अगले साल, मुंबई पुलिस ने भारती के खिलाफ कथित तौर पर एक पुलिस अधिकारी पर एक भाजपा नेता की पत्नी के खिलाफ मामले का फॉलो-अप नहीं करने के लिए दबाव डालने के मामले में भारतीय पासपोर्ट अधिनियम के तहत धोखाधड़ी और जालसाजी करने के लिए एक प्राथमिकी दर्ज की थी.
इस साल की शुरुआत में, महाराष्ट्र सरकार ने आईपीएस अधिकारी सौरभ त्रिपाठी को निलंबित कर दिया था और मुंबई पुलिस ने एक अंगड़िया से जबरन वसूली करने में उनकी कथित संलिप्तता के लिए उनके खिलाफ लुकआउट सर्कुलर जारी किया था.
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प्रॉक्सी वार के साधन
प्रदीप शर्मा और वाज़े का नाम 2021 के एंटीलिया विस्फोटक मामले, जो पिछले कुछ वर्षों में पुलिस बल में राजनीतिक दबाव पर सवाल उठाने वाला पहला बड़ा मामला था, में एक बार फिर विवादों में उछाला. इस मामले में इन दोनों पूर्व एनकाउंटर स्पेशलिस्ट्स (अपराधियों के साथ मुठभेड़ के विशेषज्ञों) को राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआईए) ने 2021 में गिरफ्तार किया था.
उद्धव ठाकरे के नेतृत्व वाली पूर्व महा विकास अघाड़ी (एमवीए) सरकार – जो कांग्रेस, एनसीपी और शिवसेना की गठबंधन सरकार थी – ने शुरू में शिवसेना के पूर्व सदस्य रहे वेज़ को बचाने का काम किया. लेकिन बाद में इसने उन्हें निलंबित कर दिया (उन्हें अंततः बर्खास्त भी कर दिया गया) और फिर परम बीर सिंह को मुंबई के पुलिस आयुक्त के पद से स्थानांतरित कर दिया गया.
इस कदम से आहत परम बीर ने तत्कालीन गृह मंत्री अनिल देशमुख के खिलाफ जबरन वसूली और राजनीतिक हस्तक्षेप के आरोप लगाए, जो बाद में उनके खिलाफ की गई जांच का आधार बन गया और अंततः धन शोधन निवारण अधिनियम (प्रिवेंशन ऑफ़ मनी लॉन्डरिंग एक्ट) के तहत उनकी गिरफ्तारी हुई.
इसके बाद परम बीर को मुंबई पुलिस द्वारा दर्ज किए गए जबरन वसूली के कई मामलों का सामना करना पड़ा, जिनकी अब सीबीआई द्वारा जांच की जा रही है, और महाराष्ट्र पुलिस एक तरह से एमवीए और भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) के बीच प्रॉक्सी वार के लिए एक साधन बन गई.
परम बीर, जो तीन दशकों से महाराष्ट्र पुलिस का हिस्सा रहे थे, ने सुप्रीम कोर्ट को बताया कि उन्हें इस बल में कोई विश्वास नहीं है. यह एक ऐसा नैरेटिव था जो एमवीए के खिलाफ भाजपा के आरोपों का समर्थन करता था.
विपक्ष के तत्कालीन नेता, भाजपा के देवेंद्र फडणवीस, ने पुलिस तबादलों में भ्रष्टाचार पर आईपीएस अधिकारी रश्मि शुक्ला द्वारा तैयार की गई एक महत्वपूर्ण रिपोर्ट को दबाये रखने के लिए एमवीए सरकार पर निशाना साधा, जबकि महाराष्ट्र पुलिस ने शुक्ला के खिलाफ ही कथित अवैध फोन टैपिंग के मामले दर्ज किए.
कार्यवाहक पुलिस महानिदेशक के रूप में, आईपीएस अधिकारी संजय पांडे ने परम बीर के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज करने और शुक्ला के खिलाफ जांच शुरू करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी, और यहां तक कि ठाकरे प्रशासन द्वारा उन्हें मुंबई पुलिस प्रमुख नियुक्त किये जाने से पहले बॉम्बे हाईकोर्ट ने एमवीए उन्हें सरकार का ‘चहेता अधिकारी’ भी कहा था.
पांडे भी अपनी सेवानिवृत्ति के बाद एनएसई को-लोकेशन घोटाले के सिलसिले में मुश्किल में पड़ गए.
डी. शिवानंदन, जिन्होंने मुंबई पुलिस प्रमुख के साथ-साथ महाराष्ट्र के डीजीपी के रूप में भी कार्य किया है, ने कहा, ‘पिछले तीन या चार वर्षों से सड़ांध ज्यादा इसलिए है क्योंकि राजनीतिक व्यवस्था ही सड़ गई है, चाहे वह भाजपा-शिवसेना युति हो, या फिर एमवीए के रूप आई तिकड़ी हो. अधिकारियों का अब चयन सरकार या प्रशासन की पसंद से नहीं होता है. उन्हें केवल उनसे मिलने वाले प्रतिफल के लिए और अपने राजनीतिक आकाओं की सेवा करने के प्रति उनकी उपयोगिता के लिए चुना जाता है, और वे इसे हासिल करने के लिए पूरी तरह से झुक गए है.’
सेवानिवृत्त अधिकारी एम.एन. सिंह ने कहा, ‘अब एक अधिकारी एक राजनेता की मांगों को तब तक पूरा करता रहता है जब तक कि पानी उसकी नाक तक न आ जाए. परम बीर क्यों फट पड़े ? इस वजह से क्योंकि उन्होंने खुद को एक मुश्किल स्थिति में पाया.’
उन्होंने कहा, ‘परम बीर के पास छिपाने के लिए बहुत कुछ हो सकता है, लेकिन राजनीतिक वर्ग द्वारा जबरन वसूली के बारे में उन्होंने जो कुछ भी कहा, उसे खारिज नहीं किया जा सकता है.’
साथ ही, उन्होंने कहा कि जांच एजेंसियों को यह भी खुलासा करने की जरूरत है कि विस्फोटकों से भरी कार एंटीलिया के बाहर खड़ी ही क्यों की गई थी? और शुक्ला जब राज्य आपराधिक खुफिया विभाग की प्रमुख थीं तब उनके द्वारा दी गई रिपोर्ट में सामने आए तथ्यों को भी सार्वजनिक किया जाना चाहिए.
दिप्रिंट ने फोन कॉल और टेक्स्ट मैसेज के माध्यम से परम बीर सिंह से संपर्क करने की कोशिश की, लेकिन इस खबर के प्रकाशित होने तक उनकी कोई प्रतिक्रिया नहीं मिली थी; जबकि शुक्ला ने कहा कि वह कोई टिप्पणी नहीं करना चाहती हैं.
इस साल मार्च में, शुक्ला ने बॉम्बे हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया था, जिसमें उनके द्वारा कहा गया था कि उनके खिलाफ दर्ज की गई शिकायत सिर्फ ‘उन्हें परेशान करने के इरादे से’ की गई थी.
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‘सुधारों के बाद राजनीतिक दखल और बढ़ गया है’
साल 2006 में, सुप्रीम कोर्ट ने राज्य पुलिस बलों को राजनीति से दूर रखने हेतु सुधारों के लिए कई निर्देश जारी किए. हालांकि, पूर्व डीजीपी एम.एन. सिंह के अनुसार महाराष्ट्र सरकार द्वारा इन्हें लागू करने के बाद से नियुक्ति और तबादलों में राजनीतिक हस्तक्षेप का मामला और बिगड़ गया है. सुप्रीम कोर्ट के आदेश के तहत, सरकारों को तबादलों और नियुक्तियों के मामले में राज्य सरकार को सिफारिशें भेजने के लिए डीजीपी और वरिष्ठ अधिकारियों को शामिल करते हुए एक पुलिस इस्टैब्लिशमेंट बोर्ड स्थापित करने की आवश्यकता थी. राज्य के गृह मंत्री और मुख्यमंत्री से मोटे तौर पर इनकी सिफारिशों को मंजूरी दे दिए जाने की उम्मीद थी.
सिंह ने कहा कि महाराष्ट्र सरकार ने एक पुलिस इस्टैब्लिशमेंट बोर्ड का गठन तो किया, लेकिन उसने इसमें राज्य के गृह विभाग के एक सरकारी अधिकारी को भी शामिल किया, जिससे यह सुनिश्चित हो सके कि राजनीतिक हस्तक्षेप बना रहे.
पूर्व डीजीपी ने कहा कि महाराष्ट्र में गृह विभाग पारंपरिक रूप से मुख्यमंत्री के पास होता है, और यह महत्वपूर्ण बात है कि यह ऐसा ही होता रहे. उन्होंने कहा, ‘हाल की गठबंधन सरकारों में, यह उस मंत्रालय गठबंधन सहयोगी के पास चला जाता है, जिसके पास मुख्यमंत्री का पद नहीं होता है, जिससे कमान का एक और केंद्र बन जाता है.’
2014-19 की अवधि को छोड़कर, जब तत्कालीन मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ने भाजपा के तत्कालीन गठबंधन सहयोगी शिवसेना को गृह मंत्रालय देने के बजाय इसे खुद अपने पास रखा था, पिछले दो दशकों के अधिकांश भाग में एनसीपी ने ही गृह विभाग को संभाले रखा है.
सेवानिवृत्त आईपीएस अधिकारी बोरवणकर ने आरोप लगाया कि अधिकारियों और राजनेताओं के बीच राजनीतिक संबंध वाले हालत और खराब हो गए हैं.
उन्होंने कहा, ‘जिस समय तक मैं सेवानिवृत्त हुई थी, तब तक ‘पक्ष लेने’ वाली बात बहुत स्पष्ट हो गयी थी. यह बीमारी पहले भी मौजूद थी, लेकिन बहुत कम मात्रा में. इसलिए, सुप्रीम कोर्ट द्वारा निर्देशित पुलिस सुधारों को सभी राज्यों द्वारा इसकी वास्तविक भावना के साथ लागू किया जाना चाहिए.’
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