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Thursday, 14 November, 2024
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मानवता की सेवा के लिये कई बेड़ियों को तोड़ा पद्मश्री आचार्य चंदना ने

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( मोना पार्थसारथी )

नयी दिल्ली, 29 जनवरी ( भाषा ) मानवता की सेवा में लगीं पद्मश्री आचार्य चंदना के मार्ग में डाकुओं के हमले से लेकर धर्म और समाज के बंधन जैसी कई विघ्न-बाधाएं आईं लेकिन वह अपने पथ पर अनवरत चलती रहीं। महाराष्ट्र के अहमदनगर जिले के एक छोटे से गांव से निकलकर बिहार में एक विश्व विख्यात सेवा संगठन की स्थापना तक पांच दशक के अपने सफर में उन्होंने शिक्षा और चिकित्सा सेवा से लाखों जिंदगियों को रोशन किया ।

1987 में आचार्य की पदवी पाने वाली पहली जैन महिला चंदना या ‘ताई मां’ पद्मश्री सम्मान पाने वाली पहली जैन साध्वी हैं ।

उन्होंने बिहार के राजगीर से भाषा को दिये इंटरव्यू में कहा ,‘‘ अगर आप मुझसे पूछें तो यह मेरा अकेले का सम्मान नहीं है । इसके पीछे हजारों डॉक्टर, शिक्षक, सेवाभावी और उन लोगों की अथक मेहनत है जो मानवता की सेवा में जुटे हैं । गरीबों को शिक्षा दे रहे हैं या उनका इलाज कर रहे हैं । मैं वीरायतन नामक इस आंदोलन का एक हिस्सा मात्र हूं ।’’

महाराष्ट्र में जन्मी शकुंतला ने 1973 में राजगीर में वीरायतन की स्थापना की जो जैन धर्म के सिद्धांतों पर आधारित एक अंतरराष्ट्रीय संगठन है और जिसका लक्ष्य सेवा, शिक्षा और साधना के जरिये लोगों के जीवन में बदलाव लाना है ।

आज वीरायतन के भारत के अलावा अमेरिका, इंग्लैंड, कीनिया, संयुक्त अरब अमीरात, सिंगापुर, पूर्वी अफ्रीका और नेपाल में भी केंद्र है ।भारत में जगह जगह पर इसके अस्पताल, स्कूल, कॉलेज और रोजागरोन्मुखी प्रशिक्षण केंद्र हैं । प्राकृतिक आपदाओं की स्थिति में इसने आपात राहत और पुनर्वास कार्यक्रमों का भी संचालन किया है मसलन 2004 की सुनामी, 2006 सूरत में आई बाढ और हाल ही में कोरोना महामारी के दौरान ।

धर्म को समाजसेवा से जोड़ने वाली आचार्य चंदना ने कहा ,‘‘ मेरा हमेशा से मानना रहा है कि धर्म का मतलब सिर्फ प्रभु का नाम स्मरण नहीं है और साधु साध्वियों को समाज में बदलाव का जरिया बनना ही चाहिये । मेरे लिये धर्म का मतलब लोगों के जीवन को बेहतर बनाना और उनकी समस्याओं को दूर करना है । दया और करूणा का ज्ञान देने की बजाय लोगों की सेवा करके उसके व्यवहार में उतारना महत्वपूर्ण है ।’’

गणतंत्र दिवस पर अपना 86वां जन्मदिन मनाने वाली साध्वी ने कहा ,‘‘ सत्कर्म के बिना धर्म कुछ नहीं । सेवा ही अध्यात्म है । अगर मेरे सामने कोई बच्चा गिर गया है और मैं यह सोचकर उसे हाथ थामकर नहीं उठाती कि मेरा धर्म उसे छूने की इजाजत नहीं देता तो मैं इसे नहीं मानती । मानवता की सबसे बड़ा धर्म है और मैं अंतिम श्वास तक मानवता की सेवा करना चाहती हूं ।’’

पिछड़े इलाके में अपना दबदबा कम होने के डर से शुरूआती दिनों में कई राजनेता और अपराधी नहीं चाहते थे कि वीरायतन की स्थापना हो । ऐसे में एक बार चंदना और साध्वियों पर डाकुओं ने हमला भी किया ।

चंदना की साथी साध्वी यशा ने बताया ,‘‘ तब वीरायतन बना नहीं था और हम राजगीर में एक मकान में रहते थे । आधी रात को 15 . 20 पुरूष हाथ में भाले और लाठी लेकर घुस आये और साध्वियों को पीटा । तन के कपड़ों को छोड़कर सब कुछ लूटकर ले गए । अगले दिन हमें खादी भंडार से उधार कपड़े लेने पड़े लेकिन इस घटना ने भी ताइ महाराज को भयभीत नहीं किया।’’

उन्होंने कहा ,‘अगले दिन पुलिस पूछताछ के लिये आई तो उन्होंने यह कहकर हमलावरों का हुलिया बताने से इनकार कर दिया कि महावीर के अनुयायी दंड में नहीं क्षमा में विश्वास करते हैं ।हम लोगों को बदलने आये हैं, उन्हें दंडित करने नहीं ।’’

मात्र 14 वर्ष की उम्र में दीक्षा लेकर पारंपरिक जैन समाज की सोच में कई बदलाव करने वाली यह क्रांतिकारी साध्वी अमेरिका या इंग्लैंड में धर्म या अध्यात्म पर व्याख्यान देते हुए भी उतनी ही सहज रहती है जितनी बिहार के पिछड़े धूल धसरित इलाकों में गरीब और बीमार लोगों के बीच ।

उन्होंने कहा ,‘‘ अभी तक जीवन यात्रा से मैं संतुष्ट हूं कि लोगों के लिये कुछ कर सकी । मैं दूसरों को भी प्रेरित करना चाहती हूं । इस उम्र में भी मेरे पास इतनी जिम्मेदारियां है कि कभी थकान महसूस नहीं होती । मैं हर क्षण कुछ करते रहना चाहती हूं ।’’

उन्होंने कहा ,‘‘ मैं कभी चुनौतियों से घबराई नहीं या कभी यह सोचकर विचलित नहीं हुई कि कितने काम करने हैं । मेरा साहस और आत्मविश्वास बना रहा । मैने कभी किसी से विवाद नहीं किया लेकिन जो मार्ग मैने चुना, उसे कोई बदल भी नहीं सका । मैं अपने रास्ते पर चलती रही और आखिर में समाज ने उसे स्वीकार किया ।’’

एक समय पर जैन शास्त्र और विभिन्न धर्मों के अध्ययन के लिये 12 वर्ष तक मौन धारण करने वाली चंदना उच्च शिक्षित जैन साध्वियों के समूह की प्रेरणास्रोत हैं जिन्हें अलग अलग जिम्मेदारियां सौंपी गई है । कोई अस्पताल की देखरेख करती है तो कोई विद्यालयों की और कोई वैश्विक वीरायतन का काम देखती है ।

एक महिला और संन्यासी होने के नाते गैर पारंपरिक रास्ता चुनना कितना कठिन रहा , यह पूछने पर उन्होंने कहा ,‘‘ मुझे नहीं लगता कि महिला किसी मायने में पुरूष से कमतर है । आज तो महिलायें नयी ऊंचाइयों को छू रही है । शुरूआत में लोगों की मानसिकता बदलना और उनका विश्वास जीतना चुनौतीपूर्ण था लेकिन मैने हार नहीं मानी और आज यहां तक पहुंच सकी हूं ।’’

भाषा मोना

मोना उमा

मोना

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यह खबर ‘भाषा’ न्यूज़ एजेंसी से ‘ऑटो-फीड’ द्वारा ली गई है. इसके कंटेट के लिए दिप्रिंट जिम्मेदार नहीं है.

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