नई दिल्ली: ओवर-दि-टॉप (ओटीटी) प्लेटफॉर्म्स की चढ़ाई के बावजूद, पारंपरिक टेलीवीजन चैनल अभी भी भारतीय दर्शकों के एक बड़े हिस्से पर अपना दबदबा बनाए हुए हैं- ये खुलासा दिल्ली-स्थित थिंक टैंक ब्रॉडबैण्ड इंडिया फोरम, और राजस्थान-स्थित एनजीओ कट्स इंटरनेशनल्स के एक नए सर्वे में किया गया है.
बुधवार को जारी की गई सर्वे रिपोर्ट में पता चला, कि ‘सर्वे किए गए लोगों में हैरान कर देने वाली संख्या, 70 प्रतिशत को लगा कि टेलीवीज़न ही एक पैसा वसूल सेवा पेश करता है, जबकि इसके मुक़ाबले डिजिटल/ ओटीटी केवल 27 प्रतिशत को, और टीवी एप्स मुश्किल से 3 प्रतिशत को पैसा वसूल लगे’.
‘प्रभावी चुनाव की ओर: भारतीय टीवी उपभोक्ताओं का एक राष्ट्र-व्यापी सर्वे’ शीर्षक के पेपर में ये भी कहा गया कि हालांकि टीवी को पैसा वसूल पेशकश के रूप में देखा जाता है, लेकिन ‘उपभोक्ता कल्याण में सुधार की गुंजाइश है’.
उसमें पता चला कि जब उपभोक्ता चैनलों के ‘गुलदस्ते’ या बुके का चयन करते हैं, तो उन्हें सबसे ज़्यादा ख़याल उसकी क़ीमत का रहता है. ये चैनलों का वो मिश्रण या बण्डल होता है जो टाटा स्काई जैसे सेवा प्रदाता अपने उपभोक्ताओं को पेश करते हैं. सर्वे में कहा गया कि ऐसे बण्डल्स का चयन ज़्यादातर सेवा प्रदाता ही करते हैं, जिससे चुनाव सीमित हो जाता है.
देश भर से 11,000 लोगों का सर्वे किया गया. इनमें से 50.2 प्रतिशत लोग शहरी इलाक़ों से, 38.5 प्रतिशत अर्ध-शहरी इलाक़ों, और 11.1 प्रतिशत ग्रामीण क्षेत्रों से थे.
सर्वे किए गए पांच प्रतिशत लोग 10,000 से 25,000 रुपए मासिक कमाते थे, और 25.5 प्रतिशत लोग 25,000 रुपए से 50,000 रुपए के बीच कमाते थे.
ब्रॉडबैण्ड इंडिया फोरम एक स्वतंत्र पॉलिसी थिंक टैंक है, जो उसकी वेबसाइट के अनुसार, ‘समस्त ब्रॉडबैण्ड ईकोसिस्टम के विकास और वृद्धि के लिए, एक समग्र, प्रौद्योगिकी तटस्थ और सेवा-तटस्थ तरीक़े से काम करता है’. इसके सदस्यों में अमेज़ॉन, गूगल, मेटा (पूर्व का फेसबुक), माइक्रोसॉफ्ट, और बीएसएनएल शामिल हैं.
कट्स इंटरनेशनल (कंज़्यूमर यूनिटी एंड ट्रस्ट सोसाइटी) एक एनजीओ है जो उपभोक्ता मामलों पर काम करती है.
‘पैसा वसूल’
सबसे पहला एक पहलू जिसकी सर्वे ने खोज की, वो था प्लेटफॉर्म्स का मूल्य निर्धारण और उनकी आर्थिक व्यावहारिकता- चाहे वो डिजिटल हों या ब्रॉडकास्ट. उसमें कहा गया कि देखने के लिए बहुत से ओटीटी और डिजिटल प्लेटफॉर्म्स के बावजूद, उपभोक्ताओं को टेलीवीज़न अभी भी सबसे आसानी से सुलभ माध्यम लगता है.
लेकिन, उसमें कहा गया कि अभी भी ‘उपभोक्ता कल्याण को बढ़ाने’ की सख़्त ज़रूरत है, जिसके लिए या तो उपभोक्ताओं को ज़्यादा विकल्प दिए जा सकते हैं, या उन्हें अपने चुनावों के प्रति जागरूक किया जा सकता है.
सर्वे के अनुसार, ‘सामग्री की उपलब्धता तथा गुणवत्ता, और साथ ही देखने का अनुभव और सेवा की क्वालिटी’, दूसरे फैक्टर्स होते हैं जो उपभोक्ता के व्यवहार को तय करते हैं.
सर्वे में कहा गया, ‘बहुत से उपभोक्ताओं के लिए टीवी पैकेज का चुनाव करने में, सबसे अहम फैक्टर उसकी क़ीमत होती है. अधिकतर उपभोक्ताओं ने 100 से 200 चैनल्स लिए हुए हैं, जिनके लिए वो मासिक आधार पर 200 रुपए से 400 रुपए के बीच अदा करते हैं’.
पेपर में ये भी कहा गया कि उपभोक्ता टेलीवीज़न बुके इसलिए चुनते हैं, क्योंकि सर्विस प्रोवाइडर्स उन्हें तरह तरह के चैनल मुहैया कराते हैं.
उसमें कहा गया, ‘टीवी को आमतौर पर घर के विभिन्न सदस्य देखते हैं, जिनकी पसंद अलग अलग हो सकती है. टीवी अपने उपभोक्ताओं को जो पैसा वसूल पेशकश करता है, उसी के कारण भारत में इन बुकेज़ के लिए एक स्पष्ट प्राथमिकता होना कोई आश्चर्य की बात नहीं है’.
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TRAI के परामर्श पेपर के विपरीत
सर्वे के निष्कर्ष, इसी साल भारतीय दूरसंचार विनियामक प्राधिकरण की ओर से जारी किए गए, एक परामर्श पेपर के बिल्कुल उलट हैं.
‘प्रसारण व केबल सेवाओं के लिए नए विनियामक ढांचे से संबंधित मुद्दों पर परामर्श पत्र’ कहे जाने वाले ट्राई के इस पेपर में कहा गया, कि प्राधिकरण को स्थानीय केबल ऑपरेटर्स की ओर से, ओटीटी या डिजिटल प्लेटफॉर्म्स के लीनियर, या ब्रॉडकास्ट टेलीवीज़न पर पड़ रहे विपरीत प्रभाव पर, बहुत से विरोध-पत्र प्राप्त हुए थे.
उसमें फ्री डिश और ओटीटी सेवाओं की ‘बढ़ती लोकप्रियता’ की वजह से ‘टीवी दर्शकों की संख्या में गिरावट’ का उल्लेख किया गया. उसमें संभावना व्यक्त की गई कि लोकप्रिय चैनलों की क़ीमतों में इज़ाफा भी, जिसे उपभोक्ता संगठनों ने उजागर किया, और अधिक चुनौतियां पेश कर सकता है.
दूसरी ओर, बीआईएफ-कट्स इंटरनेशनल सर्वे में पाया गया कि उपभोक्ता ‘बहुत से प्रासंगिक मानदंडों पर टीवी को तरजीह देते हैं, जिनमें कंटेंट की उपलब्धता भी शामिल है’.
‘उपभोक्ता संतुष्टि बढ़नी चाहिए’
टेलीवीज़न को ओटीटी और डिजिटल प्लेटफॉर्म्स के ऊपर उल्लेखनीय रूप से तरजीह दिए जाने के बावजूद, सर्वे में पाया गया कि टीवी देखने के अपने अनुभवों के लिए, उपभोक्ता एक बेहतर स्ट्रक्चर, ज़्यादा विकल्प, और संभालने में आसान टेक्नॉलजी चाहते हैं.
उसमें कहा गया है: ‘क़रीब 40 प्रतिशत उपभोक्ता अपने सब्सक्रिप्शंस से संतुष्ट हैं, और इसलिए उपभोक्ता संतुष्टि में सुधार की काफी गुंजाइश है, जिससे उस नियामक सुधार प्रक्रिया को मान्यता मिल जाती है, जिसपर फिलहाल ट्राई में काम चल रहा है’.
तो उपभोक्ता संतुष्टि के अलग अलग स्तरों को कैसे समझा जा सकता है? पेपर में कहा गया कि मूल्यों के प्रति संवेदनशीलता, और चैनल चुनाव प्रक्रिया से जुड़ी जानकारी में कमी, इसका कारण हो सकती है.
बिज़नेस स्टैण्डर्ड के लिए एक ओपीनियन पीस में, मीडिया एक्सपर्ट वनीता कोहली-खांडेकर ने ब्रॉडकास्टिंग के भविष्य का इस तरह विश्लेषण किया:
‘ब्रॉडकास्टिंग का भविष्य फिर दो तरह से ज़ाहिर है. एक है एक वैकल्पिक फ्री ईकोसिस्टम का विकास, जिसे कोई मौजूदा मेट्रिक पर्याप्त रूप से नहीं पकड़ती. फिर एक बहुत बड़ी संख्या में फ्री ओटीटी भी हैं- जैसे मैक्स प्लेयर जिसके पास 15.6 करोड़ दर्शक हैं, या फिर जोश या इंस्टाग्राम रील्स जैसे आधा दर्जन छोटे वीडियो एप्स. इससे टेलीवीज़न की पहुंच लगातार बढ़ रही है, हालांकि वो एक कंटेंट सोर्स के तौर पर है’.
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