नई दिल्ली: कच्चा तेल और खाद्य तेल दो ऐसी मुख्य चीज़ें हैं, जो पिछले कुछ महीनों में महंगाई को बढ़ाती रही हैं. पिछले छह महीने में इनकी कीमतें तेज़ी से ऊपर चढ़ी हैं, जिसका मुख्य कारण करों की ऊंची दरें हैं जो सरकार उन पर लगाती है.
जहां पेट्रोल और डीज़ल के दाम बहुत से शहरों में 100 रुपए प्रति लीटर के मनोवैज्ञानिक निशान को पार कर गए हैं, वहीं पाम तेल की कीमतें, जो देश में सबसे अधिक आयात होने वाला खाद्य तेल है, इसके दाम पिछले एक साल में 60 प्रतिशत से अधिक बढ़कर, 1 जून 2021 को 138 रुपए प्रति किलो पहुंच गया, जो 1 जून 2020 को 86 रुपए प्रति किलो था- पिछले 11 वर्षों में ये इसके सबसे ऊंचे दाम हैं.
इसी तरह, इसी अवधि के दौरान अन्य खाद्य तेलों के दाम भी नई ऊंचाइयों पर पहुंच गए हैं- सोयाबीन तेल 100 रुपए प्रति किलो से 153.5 रुपए प्रति किलो, और सनफ्लावर तेल 110 रुपए प्रति किलो से बढ़कर 172 रुपए प्रति किलो पहुंच गया.
लेकिन जहां केंद्र सरकार खाद्य तेलों के बारे में चिंतित नज़र आती है- उसने कच्चे पाम तेल और रिफाइंड पाम तेल पर लगने वाले आयात शुल्क को घटा दिया है- वहीं उसने पेट्रोल और डीज़ल के दामों में कोई राहत नहीं दी है.
विश्लेषकों में इसे लेकर मतभेद है कि केंद्र सरकार ने पेट्रोल और डीज़ल के दाम घटाने के लिए हस्तक्षेप क्यों नहीं किया है. एक मत ये है कि पेट्रोल और डीज़ल जिन पर भारी कर लगते हैं, खाद्य तेलों के मुक़ाबले कहीं ज़्यादा राजस्व जुटाते हैं. दूसरा मत ये है कि खाद्य तेलों के आयात शुल्क में कटौती का सरकार पर अधिक बोझ नहीं पड़ेगा, क्योंकि उनके अंतर्राष्ट्रीय दाम तेज़ी से बढ़ रहे हैं. ये दाम इतने ऊंचे हैं कि खाद्य तेलों के आयात से होने वाली आय ऊंची ही बनी रहेगी.
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खाद्य तेल के आयात शुल्क में कटौती क्यों हुई
पिछले सप्ताह जारी एक आदेश में केंद्र सरकार ने बेसिक शुल्क में 5 प्रतिशत की कमी करके, कच्चे पाम तेल पर आयात शुल्क को घटाकर 30.25 प्रतिशत कर दिया. रिफाइंड पाम ऑयल पर लगने वाले आयात शुल्क को भी पहले के 49.5 प्रतिशत से घटाकर 41.25 प्रतिशत कर दिया गया है.
आईसीआरआईईआर (इंडियन काउंसिल फॉर रिसर्च ऑन इंटरनेशनल इकनॉमिक रिलेशंस) के विज़िटिंग फेलो और पूर्व कृषि सचिव सिराज हुसैन ने कहा कि कच्चे तेल के क्षेत्र में ऐसा न होने का मुख्य कारण ये है कि पेट्रोल और डीज़ल से सरकार को भारी राजस्व मिलता है.
उन्होंने दिप्रिंट से कहा, ‘केंद्र सरकार को खाद्य तेलों की अपेक्षा पेट्रोलियम से कहीं अधिक राजस्व मिलता है. बल्कि, पेट्रोलियम राजस्व का एक प्रमुख स्रोत है, ख़ासकर उसके बाद से जब सरकार ने 2019 में केंद्रीय बजट पेश करने के कुछ ही महीने बाद, अचानक कॉर्पोरेट टैक्स की दरों में कटौती कर दी थी’.
उन्होंने आगे कहा, ‘इसके अलावा, खाद्य तेलों की बढ़ी कीमतें खाद्य मुद्रास्फीति को बढ़ाकर सीधे आम नागरिकों को प्रभावित करती हैं, जैसा पेट्रोलियम के दामों के साथ नहीं है. इसलिए सरकार ने केवल खाद्य तेलों पर आयात शुल्क घटाने का फैसला किया, पेट्रोलियम पर नहीं’.
हुसैन ने ये भी कहा कि सरकार ने निर्देश दिया है कि उसे वस्तुओं के स्टॉक्स की नियमित रूप से जानकारी दी जाए. उनका कहना था कि निजी स्टॉक्स की जानकारी हासिल करने का ये बहुत बेकार तरीक़ा है.
उन्होंने कहा, ‘इसका कहीं ज़्यादा आसान और प्रभावी तरीक़ा ये होगा कि इलेक्ट्रॉनिक-निगोशिएबल वेयरहाउस रिसीट (ई-एनडब्लूआर) को देशभर में अनिवार्य कर दिया जाए. इससे सरकार को स्टॉक उपलब्धता और देशभर में उसकी गतिविधि की, रियल टाइम और कहीं ज़्यादा सही जानकारी मिल पाएगी’. उन्होंने आगे कहा, ‘इससे भविष्य में खाद्य मुद्रास्फीति से जुड़े निर्णय लेन और नीति तय करने का काम कहीं बेहतर ढंग से हो सकेगा’.
दूसरे विशेषज्ञों को लगता है कि सरकार ने शुल्क में कटौता का विकल्प इसलिए चुना कि खाद्य तेलों की अंतर्राष्ट्रीय कीमतें ऊंची रहने की वजह से, इस निर्णय के बाद भी उसे आय का ज़्यादा नुक़सान नहीं होगा.
सॉल्वेंट एक्सट्रेक्टर्स एसोसिएशन ऑफ इंडिया (एसईएआई) के एग्ज़िक्यूटिव डायरेक्टर बीवी मेहता ने दिप्रिंट को बताया, ‘पिछले साल खाद्य तेलों के कम दामों के चलते भारत सरकार को, नवंबर 2019 से अक्तूबर 2020 के बीच कुल 75,000 करोड़ रुपए के आयात से लगभग 30,000 करोड़ का राजस्व प्राप्त हुआ था’.
उन्होंने आगे कहा, ‘मौजूदा चक्र में 20 नवंबर 2020 के बाद से कीमतों में 70-80 प्रतिशत की वृद्धि हुई है. कुल आयात बिल 1,20,000 करोड़ रुपए से कम नहीं होगा, जिसमें से सरकार को 40,000-45,000 करोड़ की राजस्व आय होगी. सरकार को इस कोष का कुछ हिस्सा तिलहन का उत्पादन बढ़ाने में लगाना चाहिए, ताकि आयातित तेल पर हमारी निर्भरता कम हो सके, जो फिलहाल 65 प्रतिशत के क़रीब है’.
अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में खाद्य तेलों की कीमतों में हाल ही में तेज़ी से उछाल आया है.
बुरसा मलेशिया डेरिवेटिव्ज़ एक्सचेंज में सक्रिय रूप से ट्रेड किए गए वायदा अनुबंधों के लिए, कच्चे पाम तेल के भाव 25 मई को 69547.45 रुपए प्रति टन लगाए गए थे, जो एक साल पहले इसी दिन 40780.91 रुपए प्रति टन थे.
इसी तरह, शिकागो बोर्ड ऑफ ट्रेड में जुलाई डिलीवरी के लिए सोयाबीन का समापन भाव 41579.79 रुपए प्रति टन था, जो 24 मई को 22752.17 रुपए प्रति टन था.
मेहता ने कहा, ‘हो सकता है कि सरकार ने पाम ऑयल पर आयात शुल्क, क्रमिक अनलॉकिंग और आगामी त्यौहारी सीज़न को देखते हुए घटाया हो, जिसमें खाद्य तेलों के उपभोग में बढ़ोतरी हो सकती है’.
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खाद्य और कच्चे तेल का गोरखधंधा
भारत कच्चे और खाद्य तेलों की अपनी घरेलू मांग का एक बड़ा हिस्सा आयात से पूरा करता है. सोने के साथ ये दोनों देश में आयात होने वाली तीन सबसे बड़ी वस्तुएं हैं.
सॉल्वेंट एक्सट्रेक्टर्स एसोसिएशन ऑफ इंडिया और खाद्य एवं सार्वजनिक वितरण विभाग के आंकड़ों के अनुसार, कच्चे पाम ऑयल पर आयात शुल्क 2012 में 0 प्रतिशत से बढ़कर 2021 में 35.75 प्रतिशत हो गया है. कच्चे पाम ऑयल पर सबसे अधिक आयात शुल्क 2018 में 44 प्रतिशत था.
रिफाइंड, ब्लीच्ड और डियोडोराइज़्ड पाम ऑयल ड्यूटी भी 2012 में सिर्फ 7.5 प्रतिशत थी, लेकिन 2018 में ये बढ़कर 54 प्रतिशत हो गई. कच्चे सनफ्लावर और सोयाबीन ऑयल पर भी देश में 38.5 प्रतिशत आयात शुल्क लगता है.
इसी तरह पेट्रोल और डीज़ल पर भी भारी कर लगता है. जैसा कि दिप्रिंट ने ख़बर दी थी, केंद्र सरकार फ्यूल पर एक्साइज़ ड्यूटी और सेस लगाती है और राज्य उस पर वैल्यू-एडेड टैक्स (वैट) लगाते हैं.
फिलहाल पेट्रोल के खुदरा बिक्री मूल्य में कुल मिलाकर 58 प्रतिशत टैक्स का अंश होता है और डीज़ल के खुदरा बिक्री मूल्य में ये लगभग 52 प्रतिशत होता है. इसका मतलब है कि अगर पेट्रोल के दाम 100 रुपए प्रति लीटर हैं, तो उसमें केंद्र सरकार और राज्य सरकारों द्वारा लगाए गए टैक्स मिलकर 58 रुपए हो जाते हैं. इसमें केंद्र सरकार का उत्पाद शुल्क क़रीब 32-33 रुपए है, और बाक़ी वैट है जिसे राज्य सरकारें लगाती हैं.
इतने भारी कर लगाए जाने के अलावा, इन दोनों वस्तुओं के दामों में पिछले कुछ महीनों में बहुत तेज़ी देखी गई है.
बहुत से शहरों में मई महीने में ईंधन मुद्रास्फीति में 11.6 प्रतिशत की वृद्धि देखी गई, जो अप्रैल में 7.9 प्रतिशत और मार्च में 4.5 प्रतिशत थी.
केंद्र सरकार के आंकड़ों के अनुसार, खाद्य तेलों में भी मई महीने में सबसे अधिक 30.8 प्रतिशत तेज़ी देखी गई, जिससे खुदरा मुद्रास्फीति में वृद्धि हुई और वो बढ़कर 6 प्रतिशत से ऊपर हो गई.
खाद्य तेलों के घरेलू दामों में बढ़ोत्तरी अंतर्राष्ट्रीय कीमतों को भी प्रतिबिंबित करती है, क्योंकि भारत अपनी 50 प्रतिशत से अधिक घरेलू मांग आयात के ज़रिए पूरी करता है.
जहां वनस्पति तेलों का हमारा उत्पादन 75 से 80 लाख टन है, वहीं 1.3-1.4 करोड़ टन तेल आयात किया जाता है, जिसका मूल्य क़रीब 75,000 करोड़ होता है.
बढ़ता आयात
देश में खाद्य तेल की मांग बढ़ने के साथ साथ, उसका आयात भी उसी हिसाब से बढ़ रहा है.
जहां देश में खाद्य तेलों का कुल उपभोग 2017-18 में 249.52 लाख मीट्रिक टन (एलएमटी) से बढ़कर, 2018-19 में 259.22 एलएमटी हो गया, वहीं इसी अवधि में खाद्य तेलों का आयात 145.92 एलएमटी से बढ़कर 155.70 एलएमटी हो गया.
इसी अवधि में घरेलू खाद्य तेलों की उपलब्धता थोड़ी सी बढ़कर, 103 एलएमटी के अंदर बनी हुई है, जिससे आयात पर देश की निर्भरता बरक़रार है. इसके अलावा, देश का पाम ऑयल आयात 2019 में 73.98 एलएमटी से 13 प्रतिशत बढ़कर, 2020 में 84 एलएमटी पहुंच गया.
इसी तरह, पेट्रोलियम एवं प्राकृतिक गैस मंत्रालय के आंकड़ों से पता चलता है कि कच्चे तेल का आयात 2018-19 में 333.48 एलएमटी से बढ़कर 2019-20 में 437.88 एलएमटी हो गया.
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