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Thursday, 25 April, 2024
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SC ने ऑल्ट न्यूज़ के जुबैर के खिलाफ सभी FIR को एक क्यों किया, संविधान क्या कहता है इस बारे में

अनुच्छेद 21 जीवन के अधिकार की गारंटी देता है, तो अनुच्छेद 20(2) कहता है कि किसी को भी 'एक ही अपराध के लिए दो बार दंडित नहीं किया जा सकता है.' तर्क दिया गया कि एक अपराध के लिए दर्ज की गईं कई एफआईआर इन दोनों अधिकारों का उल्लंघन करती हैं.

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नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने पिछले हफ्ते ऑल्ट न्यूज़ के सह-संस्थापक मोहम्मद जुबैर के खिलाफ दिल्ली और उत्तर प्रदेश में दर्ज छह एफआईआर को एक करते हुए, जांच को दिल्ली पुलिस के पास ट्रांसफर कर दिया. साथ ही शीर्ष अदालत ने जुबैर को तीन सप्ताह से ज्यादा समय तक हिरासत में रहने के बाद जमानत पर रिहा करने का निर्देश दिया. उन पर एफआईआर में अलग-अलग ट्वीट्स के जरिए धार्मिक भावनाओं को आहत करने का आरोप लगाया गया था.

सुप्रीम कोर्ट का फैसला तीन निचली अदालतों की तीन बार उन्हें जमानत देने से इनकार करने के बाद आया.

शीर्ष अदालत ने भारतीय जनता पार्टी की पूर्व प्रवक्ता नूपुर शर्मा द्वारा एक टेलीविजन बहस के दौरान पैगंबर मुहम्मद के खिलाफ विवादास्पद टिप्पणियों के लिए उनके खिलाफ दर्ज मामलों को एक करने के लिए इसी तरह की याचिका पर भी विचार किया है. सुप्रीम कोर्ट पहले ही शर्मा को पिछले हफ्ते गिरफ्तारी से अंतरिम राहत दे चुका है.

न्यायमूर्ति सूर्यकांत और न्यायमूर्ति जेबी पारदीवाला की पीठ – जिन्होंने पहले शर्मा की टिप्पणियों के लिए उनकी आलोचना की थी और उनके खिलाफ दर्ज एफआईआर को एक करने वाली याचिका पर विचार करने से इनकार कर दिया था — ने दूसरी बार अनुरोध पर उन विभिन्न राज्यों, जहां मामले में एफआईआर दर्ज की गई, सहित सभी प्रतिवादियों को नोटिस जारी किया है.

अदालत के समक्ष अपनी-अपनी याचिकाओं में शर्मा और जुबैर ने “समान अपराध” के सिद्धांत का हवाला देते हुए शीर्ष अदालत से उनके खिलाफ दर्ज प्राथमिकी को एक करने का आग्रह किया था.

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दोनों ने सुप्रीम कोर्ट के पहले के फैसलों को ध्यान में रखते हुए अपनी याचिकाओं पर गौर करने के लिए कहा. इन फैसलों में कहा गया था कि एक अपराध के लिए दर्ज कई एफआईआर अनुच्छेद 21– जीवन का अधिकार – के तहत किसी के संवैधानिक अधिकार का उल्लंघन करती है और इसके साथ ही अनुच्छेद 20(2) का भी उल्लंघन है जो किसी को भी ‘एक ही अपराध के लिए दो बार दंडित नहीं किए जाने की बात करता है.’

दिप्रिंट सुप्रीम कोर्ट के उन फैसलों पर नजर डाल रहा है जिन्होंने इस सिद्धांत की पुष्टि की है.


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‘दो बार दंड दिए जाने’ से बचाव

भारतीय संविधान का अनुच्छेद 32 एक मौलिक आधार है जिसके तहत एफआईआर को एक किया गया हैं. इस अनुच्छेद के तहत प्रत्येक नागरिक को संविधान द्वारा मान्यता प्राप्त है कि वह अन्य मौलिक अधिकारों को लागू कराने के लिए सुप्रीम कोर्ट के समक्ष याचिका दायर कर सकता है. यह संवैधानिक उपचारों का अधिकार से संबंधित है.

यह राहत सिर्फ शीर्ष अदालत में मांगी जा सकती है, क्योंकि राज्य के उच्च न्यायालय के पास एक आपराधिक मामले को एक राज्य से दूसरे राज्य में ट्रांसफर करने का आदेश देने का अधिकार नहीं है.

ऐसे कई मामले हैं जहां अदालत ने एक मामले में कई मुकदमों का सामना करने वाले एक आरोपी के अधिकारों और स्वतंत्रता की रक्षा के लिए, उसके खिलाफ दर्ज एफआईआर को एक या कंसोलिडेट किया है.

1960 में सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने अनुच्छेद 20(2) पर विचार-विमर्श करते हुए इसकी एक संविधान में कहा था ‘दूसरे अभियोजन और उसके तहत सजा ‘एक ही अपराध’ के लिए होनी चाहिए.’

यहां जरूरी है कि जिन दर्ज की गई कई एफआईआर की जांच की मांग की जा रही है वह एक ही अपराध से संबंधित हो.

इसके बाद के फैसलों ने दोहरे दंड के सिद्धांत को मान्यता दी और अपने ऊपर चल रहे कई मुकदमों से अनेक लोगों को राहत पहुंचाई.

2001 के टीटी एंटनी बनाम केरल राज्य के मामले में दिया गया एक निर्णय, कई एफआईआर को एक करने के लिए ‘समानता की परीक्षा’ को रेखांकित करता है.

इस मामले में शीर्ष अदालत ने दूसरी प्राथमिकी दर्ज करने की वैधता पर चर्चा की और कहा कि यह संविधान के अनुच्छेद 20(2)और 21 के साथ-साथ दंड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) की धारा 300 के तहत अस्वीकार्य है. ये कानून दोहरे दंड को रोकते हैं.

इसमें आगे कहा गया कि एक बार सीआरपीसी की धारा 154 -एक संज्ञेय अपराध में दी गई जानकारी – के प्रावधानों के तहत प्राथमिकी दर्ज होने और जांच शुरू होने के बाद प्राप्त कोई भी जानकारी दूसरी प्राथमिकी का आधार नहीं बन सकती है.

शीर्ष अदालत ने 2016 में इस हद तक स्पष्टीकरण दिया था कि अलग-अलग रिपोर्ट के मामलों में कानूनी रूप से एक से अधिक एफआईआर दर्ज करने की अनुमति है.

इसका मतलब है कि ऐसे मामले में जहां पहली एफआईआर दर्ज होने के बाद अलग मामला रिपोर्ट किया जाता है और आरोपों का सार अलग होता है, तो दूसरी प्राथमिकी कानूनी रूप से मान्य होगी.


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कई मुकदमों में राहत

हाल के फैसलों के कई उदाहरण हैं जो पत्रकारों पर उनके टेलीविजन शो की वजह से कई न्यायालयों में चल रहे उनके खिलाफ मुकदमों से राहत प्रदान करते हैं.

उदाहरण के लिए, रिपब्लिक टीवी के प्रधान संपादक अर्नब गोस्वामी ने एक प्रसारण के संबंध में विभिन्न राज्यों में उनके खिलाफ दर्ज एफआईआर के खिलाफ 2020 में एक याचिका दायर की थी. इसका जवाब देते हुए शीर्ष अदालत ने कहा था कि ‘एक ही कारण के आधार पर विभिन्न न्यायालयों में चल रहे कई मुकदमों के लिए किसी व्यक्ति को कानून के अधीन करना उसके मौलिक अधिकारों का उल्लंघन है’

इसी तरह राजस्थान, तेलंगाना, महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश में उसी साल टेलीविजन एंकर अमीश देवगन के खिलाफ कथित रूप से धार्मिक भावनाओं को आहत करने के लिए दर्ज की गईं एफआईआर को एक कर अजमेर, राजस्थान में जांच के लिए ट्रांसफर कर दिया था. हालांकि, शीर्ष अदालत ने उनके खिलाफ मामलों को रद्द करने से इनकार कर दिया था.

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)

(संजली सक्सेना दिल्ली विश्वविद्यालय में कानून की छात्रा हैं और दिप्रिंट में इंटर्न हैं.)


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