हैदराबाद: अपने पति से तीन साल तक हजार मिन्नतें करने के बावजूद 24 साल की मोगलम्मा उसे अपने घर में शौचालय बनाने के लिए राजी नहीं कर पाई. वह तीन महीने पहले तक ताजिंदगी खुले में शौच करती रही थी – तब तक जब उसका पति नरसैय्या आखिरकार शौचालय बनाने के लिए तैयार नहीं हो गया.
ऐसा इसलिए नहीं कि खुले में शौच हानिकारक है, बल्कि यह बदलाव पंचायत के दबाव के कारण हुआ.
मोगलम्मा हैदराबाद से कुछ ही घंटों की दूरी पर स्थित तेलंगाना के मेकावनमपल्ले गांव की रहने वाली हैं.
तेलंगाना ओडीएफ+ (ओपन डिफेकशन फ्री प्लस) घोषित सबसे अधिक गांवों की संख्या वाला राज्य है. इस बात की घोषण इस महीने की शुरुआत में केंद्र के स्वच्छ भारत मिशन (ग्रामीण) चरण- II कार्यक्रम के तहत की गयी थी.
लगभग 96.74 प्रतिशत गांव – यानि कि राज्य के 14,200 गांवों में से 13,737 – ओडीएफ + सूची में हैं. यहां ‘प्लस’ का दर्जा यह दर्शाता है कि गांवों ने अपनी ओडीएफ वाली स्थिति को लगातार बनाए रखा है, सॉलिड एंड लिक्विड वेस्ट मैनेजमेंट (ठोस और तरल अपशिष्ट प्रबंधन) सुनिश्चित किया है और वे शत-प्रतिशत शौचालय की सुविधा उपलब्ध करवाने के साथ एकदम से स्वच्छ दिखते हैं.
इसके बाद तमिलनाडु और कर्नाटक नंबर था जिनके क्रमशः केवल 35.39 प्रतिशत (4,432 गांव) और 5.59 प्रतिशत (1,511 गांव) ओडीएफ+ के रूप में वर्गीकृत थे.
न सिर्फ तेलंगाना सरकार, बल्कि राज्य की स्वच्छ भारत टीम भी राज्य की इस उपलब्धि का एक बड़ा श्रेय अपने ‘पल्ले प्रगति’ कार्यक्रम को देती है, जिसका उद्देश्य बेहतर बुनियादी ढांचे और रखरखाव के साथ गांवों में जीवन की गुणवत्ता में सुधार करना है.
मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव (केसीआर) का यह प्रमुख कार्यक्रम जिला, मंडल स्तर पर गठित विशेष टीमों और फ्लाइंग स्क्वाड्स (उड़न दस्तों) के साथ गांवों के विकेन्द्रीकृत प्रबंधन पर केंद्रित है.
इस कार्यक्रम का पहला दौर 2019 में शुरू किया गया था.
राज्य की स्वच्छ भारत टीम के अनुसार, ‘पल्ले प्रगति’ के पूरी तरह से क्रियान्वित होने से पहले ही तेलंगाना ने 2019 में ओडीएफ लक्ष्य (100 प्रतिशत घरों में शौचालय) हासिल कर लिया था.
गांवों को ओडीएफ+ का दर्जा प्रभावी ठोस, तरल अपशिष्ट प्रबंधन और संस्थागत शौचालय उपलब्ध कराने के आधार पर दिया गया था.
सुबह से शाम तक सीटी और टॉर्च के साथ गश्त
स्वच्छ भारत मिशन (एसबीएम) से जुड़े अधिकारियों के आंकड़ों के अनुसार,जब 2014 में यह (एसबीएम) कार्यक्रम शुरू किया गया था, तब राज्य में केवल 30 प्रतिशत घरों में ही शौचालय थे और मुश्किल से किसी गांव में ठोस अपशिष्ट प्रबंधन का जुगाड़ था.
राज्य एसबीएम कार्यक्रम के निदेशक सुरेश बाबू ने दिप्रिंट को बताया कि इस दिशा में पहला कदम कुछ गांवों में पंचायत सचिव के घर में शौचालय बनवाना था.
गांवों को खुले में शौच से मुक्त (ओडीएफ) बनाने की वास्तविक प्रक्रिया करीब दो साल बाद 2016 में शुरू हुई थी.
ओडीएफ कार्यक्रम के लिए राज्य के सबसे अच्छे आदर्श गांवों में से एक हरिदासपुर गांव (कोंडापुर मंडल, संगारेड्डी जिला) के सरपंच मोहम्मद शफी ने कहा, चुनौती सिर्फ शौचालय बनाने की नहीं बल्कि उनकी स्थिरता बरकरार रखने की थी.
गांव के स्वयंसेवकों को यह सुनिश्चित करने में लगभग एक साल लग गया कि घर में शौचालय होने के बावजूद कोई भी खुले में शौच न करे.
ये ग्राम स्वयंसेवक प्रत्येक ग्राम पंचायत के तहत गठित ‘निगरानी समिति’ का हिस्सा हैं और जिसमें आमतौर पर पंचायत प्रतिनिधियों की भी भागीदारी होती है.
शफी ने कहा, ‘मैंने लगभग 20 युवा सदस्यों को इकट्ठा कर इस समिति का गठन किया और मैं भी इसका हिस्सा हूं. हम रोज सुबह सूर्योदय से पहले उठ जाते थे और उस स्थान पर जाते थे जहां खुले में शौच किया जाता है. फिर हम वहां टॉर्च की रोशनी में बैठकर किसी भी ऐसे शख्श को जो नियमों का उल्लंघन कर रहा है, रोकने के लिए उसे सीटी बजाकर चेतावनी देते थे और उन्हें घर वापस भेज देते थे. सूर्यास्त के बाद वही कवायद की जाती थी.’
उन्होंने आगे बताया, ‘मैंने कुछ लोगों को मंदिर की छतों, स्कूल की छतों के ऊपर बैठाया ताकि यह देखा जा सके कि कौन खुली जमीन की ओर जा रहा है. हमने साल 2020 में सात महीने से अधिक समय तक ऐसा किया. ‘
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‘शौचालय नहीं, तो राशन नहीं, बिजली भी नहीं’
इस रिपोर्ट के सिलसिले में दिप्रिंट ने जिन गांवों का दौरा किया, उनमें घरों और सार्वजनिक संरचनाओं (इमारतों) की दीवारों पर तेलुगू में चित्रित संदेश देखने को मिले जिसमें कहा गया था कि जो कोई भी बाहर शौच करेगा उसे हर बार 1,000 रुपये का जुर्माना देना होगा.
इतना ही नहीं, शफी ने बताया कि उन्हें उस दिन 50 पौधों को पानी भी देना होगा.
एसबीएम ने कई व्यवहार संबंधी अभियान भी चलाए जैसे स्कूली बच्चों को अपने माता-पिता को शौचालय निर्माण के लिए पत्र लिखने के लिए कहना, और ग्राम पंचायतों से इस संबंध में ग्रामीणों से लिखित आश्वासन लेना.
एसबीएम अधिकारियों ने उनका नाम न छापने की शर्त पर कहा कि कुछ चरम परिस्थितियों वाले मामलों में, गांव के लोगों को धमकाना पड़ता था कि उनकी बिजली आपूर्ति काट दी जाएगी या फिर उनका सरकारी राशन रोक दिया जाएगा.
ऐसा ही कुछ हरिदासपुर निवासी 45 वर्षीय धनय्या के साथ घटित हुआ, जिनका कहना है कि उन्होंने शौचालय बनाने के बारे में सिर्फ इस वजह से विचार किया क्योंकि पंचायत ने उन्हें ‘धमकी’ दी थी कि इसके आभाव में उनका मासिक राशन बंद कर दिया जाएगा.
यह शौचालय 2019 के अंत तक बनाया गया था, लेकिन धनय्या को कुछ शिकायतें भी हैं.
उन्होंने कहा, ‘शौचालय बनाने के लिए मेरे पास जो कुछ भी था, उससे मैंने सोने पर ऋण (गोल्ड लोन) लिया. इसकी कीमत मुझे 15,000 रुपये पड़ी और मुझे पता है कि प्रतिपूर्ति (रैम्बुरसंनेट) – यानि कि सरकार की तरफ से वापस मिलने वाली राशि – केवल 12,000 रुपये है, लेकिन मुझे अभी तक वह भी प्राप्त नहीं हुआ है. पूरे गांव ने हमारे घर आकर जबरन शौचालय बनवाया, मुझे धमकी दी गई कि शौचालय नहीं बनाने पर राशन नहीं मिलेगा.’
इस बारे में सरपंच शफी ने कहा कि कोरोना महामारी के कारण धनराशि के भुगतान में देरी हुई है, और उन्होंने ग्रामीणों को यह कहकर आश्वस्त करने का प्रयास किया कि ‘अगले कुछ महीनों’ में बकाया राशि का भुगतान कर दिया जाना चाहिए.
कई अन्य ऐसे मुद्दे भी हैं जिनका समाधान किया जाना बाकी है.
हरिदासपुर के सरकारी हाई स्कूल का शौचालय टूटा हुआ है. स्कूल के पास खेल रहे कुछ लड़कों ने इमारत के पीछे बने शौचालयों को दिखाया, जो बिल्कुल जर्जर अवस्था में हैं.
बारह वर्षीय नवीन ने टूटे शौचालय की ओर इशारा करते हुए कहा, ‘लड़के यहां खुले में पेशाब करते हैं, लड़कियां दीवार के पीछे पेशाब करती हैं. शिक्षक लोग टूटे हुए शौचालयों में से एक का उपयोग करते हैं. ‘
इन शौचालयों की ऐसी स्थिति के बारे में पूछे जाने पर शफी ने कहा कि ये मानसून के मौसम के बाद टूट गए हैं और इन्हें फिर से बनाया जाएगा.
‘गर्भवती महिलाएं घर पर हैं आदि’ जैसे बहाने – कुछ लोग ‘शौचालय’ क्यों नहीं चाहते?’
घर में गर्भवती महिला के होने पर शौचालय बनाना अशुभ होता है, घर में शादी के छह महीने बाद तक शौचालय बनाना अशुभ होता है, शौचालय घर के वास्तु के अनुसार फिट नहीं है, यह घर को अपवित्र बना देता है – ये कुछ ऐसे बहाने हैं जो कई लोगों ने शौचालय बनाने के लिए कहे जाने पर सरपंचों के सामने कथित तौर पर पेश किये.
हरिदासपुर से लगभग एक घंटे की दूरी पर मेकावनमपल्ले गांव है जहां के 31 वर्षीय सरपंच शशिधर रेड्डी ने कहा कि यहां की वृद्ध आबादी को शौचालय का उपयोग करने में मुश्किल हो रही है और वे खुले में शौच का सहारा ले रहे हैं. इस गांव की आबादी 2500 है.
उन्होंने कहा, ‘गांव में लगभग 120 वरिष्ठ नागरिक हैं और वे अभी भी बाहर शौच करते हैं. अगर मैं कहूं कि वे सभी शौचालय का उपयोग कर रहे हैं, तो मैं झांसा दे रहा होऊंगा.’
वे बताते हैं, ‘लेकिन, हम इस मामले में कदम उठा रहे हैं. वे कहते हैं कि उनका दम घुटता है, उनके घुटनों में दर्द है. वे दशकों से, वे बाहर (शौच हेतु) जा रहे हैं, इसलिए कुछ हफ्तों या महीनों में उन्हें मनाना मुश्किल है. कुछ ऐसे भी उदाहरण थे जब लोगों ने शौचालय बनाने से साफ इनकार कर दिया – हमें जेसीबी को उनके घर तक ले जाना पड़ा और जबरन काम करवाना पड़ा.‘
‘पल्ले प्रगति’ योजना ने कैसे की मदद?
मोटे तौर पर ‘पल्ले’ का अर्थ है ग्रामीण आवास, और ‘प्रगति’ का मतलब है विकास. यह कार्यक्रम गांवों को ‘स्वच्छ और हरा-भरा’ बनाने के उद्देश्य से शुरू किया गया था.
जनवरी 2020 में, मुख्यमंत्री केसीआर ने कहा था कि उनकी सरकार इस कार्यक्रम के लिए हर महीने 339 करोड़ रुपये जारी कर रही है.
ओडीएफ+ का एक महत्वपूर्ण हिस्सा ठोस और तरल अपशिष्ट प्रबंधन है.
हालांकि स्वच्छ भारत मिशन ओडीएफ+ का दर्जा प्राप्त करने के लिए ठोस अपशिष्ट प्रबंधन को अनिवार्य बनाता है, लेकिन इस कार्य के लिए इसमें अलग से कोई धनराशि आवंटित नहीं की गई है.
एसबीएम की स्टेट सॉलिड एंड लिक्विड वेस्ट मैनेजमेंट कंसल्टेंट श्रव्या रेड्डी ने कहा कि पल्ले प्रगति टीमों ने उनके द्वारा बनाए गए शौचालयों के संचालन और प्रबंधन में सहायता की.
वे कहती हैं, ‘शौचालय बनाना एकमात्र समाधान नहीं है, इसका संचालन और प्रबंधन भी स्थिरता के लिहाज से महत्वपूर्ण हैं. एसबीएम के तहत रखरखाव, सफाई कर्मचारियों आदि के लिए धन उपलब्ध नहीं कराया जाता है.’
सांगारेड्डी के अलीयाबाद गांव में, जो 2016 तक ओडीएफ घोषित होने वाले पहले गांवों में से एक है, सरपंच सैयद फहीम ने कहा कि यहां भी ठोस कचरा प्रबंधन उसी पैमाने का है.
अधिकांश गांवों में, सूखे और गीले कचरे को अलग करने के लिए प्रत्येक घर में दो कूड़ेदान (हरे और नील रंग के) उपलब्ध कराये जाते हैं. एक ट्रैक्टर हर दिन कूड़ा उठाने के लिए गांव का चक्कर लगाता है.
हरिदासपुर में, शफी ने बताया कि लोगों द्वारा सही तरीके से कचरे का निपटान सुनिश्चित करने के लिए, उन्हें ट्रैक्टर के साथ घर-घर जाना पड़ा था.
उन्होंने कहा कि जितनी अधिक बार ये ट्रैक्टर चक्कर लगाते हैं, गांव में सड़कों पर कचरे के ढेर उतने ही कम होते जाते हैं.
हरिदासपुर में अब ‘किचन गार्डन’ नाम की एक चीज़ भी है. जहां कभी कूड़े के ढेर लगे रहते थे वहां अब छोटे-छोटे पौधे उगाए जा रहे हैं. कुछ इसी तरह की स्थिति मेकावनमपल्ले गांव में भी है, जहां सरपंच स्वयं कचरा संग्रहण के लिए घर-घर जाते हैं.
कई गांवों को कचरे के निपटान और उसके प्रसंस्करण के लिए सेग्रीगेशन-कम-कम्पोस्ट शेड (कचरे को अलग करने और उससे खाद बनाने के लिए शेड) भी दिए गए हैं.
गीले कचरे से संसाधित किया गया वर्मीकम्पोस्ट (कृमि से बना खाद) गांवों की हरित पट्टी में दे दिया गया.
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ट्रैक्टर ठोस अपशिष्ट प्रबंधन का एक महत्वपूर्ण पहलू है
पल्ले प्रगति योजना के तहत सभी ग्राम पंचायतों को ट्रॉली और टैंकर के साथ ट्रैक्टर दिए गए और इसके अलावा सरकारी स्कूलों, अस्पतालों, आंगनबाड़ियों जैसे सभी सार्वजनिक भवनों की नियमित रूप से सफाई की गई.
श्रव्या ने कहा, ‘एक ट्रैक्टर की कीमत लगभग 8 लाख रुपये है और यह पल्ले प्रगति के तहत गांवों को दिया गया था. पानी के निपटान के लिए घरेलू सोकपिट (पानी सोखने के गड्ढे) और सामुदायिक सोकपिट का निर्माण किया गया है.’
उन्होंने कहा, ‘नाली की लाइनें डाली गईं. अधिक संख्या में पंचायत सचिवों को नियुक्त किया गया, जिला-मंडल स्तर की टीमों का गठन किया गया – इसलिए इन सभी ने हमें इस कार्यक्रम को सुचारू रूप से लागू करने में मदद की.’
साथ ही, ये पल्ले प्रगति के जमीनी स्तर के कार्यकर्ता ही हैं जो अपने ऐप पर गांवों के रखरखाव का डेटा अपलोड करते हैं. इसे एसबीएम (जी) 2.0 मोबाइल ऐप पर डाला और फिर दर्शाया जाता है – जो आगे चलकर राष्ट्रीय डैशबोर्ड पर दिखाया जाता है, जिससे डेटा का सुचारू प्रवाह सुनिश्चित होता है.
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