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Sunday, 22 December, 2024
होमदेशदिल को खुश करने को होम्योपैथी अच्छी है, कोरोनावायरस तो छोड़िए ये किसी मर्ज की दवा नहीं

दिल को खुश करने को होम्योपैथी अच्छी है, कोरोनावायरस तो छोड़िए ये किसी मर्ज की दवा नहीं

होम्योपैथी भारत में चर्चित है लेकिन विश्व के विशेषज्ञ इसके प्रभाव को खारिज करते हैं. आस्ट्रेलिया में की गई समीक्षा में इसे प्रभावहीन पाया गया और स्पेन इस पर बैन लगाने की सोच रहा है.

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बेंगलुरू: जब चीन में 3000 से भी अधिक लोगों की जान ले चुके कोरोनावायरस के मामले भारत में पहली बार रिपोर्ट किए गए थे, आयुष मंत्रालय ने भारतिय नागरिकों को इस वायरस के संक्रमण को रोकने के लिए होम्योपैथी का उपयोग करने की सलाह दी थी.

एक वैकल्पिक चिकित्सा पद्धति के रूप में होम्योपैथी भारत में काफ़ी हद तक लोकप्रिय है. इसकी व्यापक स्वीकार्यता का आलम यह है कि कई लोग यह भी मानते हैं कि यह एक मूलतः भारतीय प्रणाली है. सरकार के अपने आंकड़ों के अनुसार, यह देश में चिकित्सा का दूसरा सबसे लोकप्रिय रूप है, जिस पर हमारे देश की लगभग 10 प्रतिशत से अधिक आबादी निर्भर करती है.

इस चिकित्सा पद्धति के तहत उन बीमारियों- मधुमेह और छालरोग (सराइयसिस) लेकर से पॉलीसिस्टिक अंडाशय सिंड्रोम (पीसीओएस)- का इलाज करने का भी दावा किया जाता है जिनके लिए एलोपैथी, या किसी भी अन्य पश्चिमी चिकित्सा पद्धति में वर्तमान में कोई इलाज उपलब्ध नहीं है. इसके अनुयायियों के बीच, इसे प्राकृतिक चिकित्सा की एक ऐसी पद्धति के रूप में देखा जाता है जो दर्द रहित उपचार का वादा करती है. साथ ही कई लोगों को इसमें पूर्वी रहस्यवाद की भावना की भी झलक देखेने को मिलती है.

परंतु, असल में होम्योपैथी न तो पूरी तरह से प्राकृतिक है और न ही भारतीय. इसका तो पूर्वी विश्व से भी कोई लेना देना नहीं. इसे साल 1796 में सैमुएल हैनीमेन नामक एक जर्मन चिकित्सक ने सर्वप्रथम ईजाद क्या था, जिन्होनें कथित तौर पर ‘एलोपैथी’ शब्द को आधुनिक चिकित्सा के लिए एक सहायक के रूप में गढ़ा था.

इस चिकित्सा प्रणाली के दो बुनियादी सिद्धांतों में से एक हैं ‘जैसे रोग वैसे इलाज’ – यानी, सरल शब्दो में अगर कोई चीज़ एसिडिटी (अम्लता) पैदा करती है, तो वही चीज इसे दूर भी करेगी. इसका दूसरा सिद्धांत है न्यूनतम खुराक का नियम है अर्थात एक मुख्य घटक लेना और इसे इस हद तक क्षरित (डाइल्यूट) करना कि मूल पदार्थ का एक भी अणु शेष न रह जाए.

अपनी इस लोकप्रियता के बावजूद होम्योपैथी एक विवादास्पद प्रणाली बनी हुई है. अधिकांश स्वास्थ्य विशेषज्ञ- विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) से जुड़े लोग, अमेरिका की डिपार्टमेंट ऑफ हेल्थ एंड ह्यूमन सर्वीसेज़ और ब्रिटेन की नेशनल हेल्थ सर्विस के लिए काम करने वाले लोग- कई प्रकार के अनुसंधान का उल्लेख करते हुए इस पर संदेह व्यक्त करते हैं. वे प्राण घातक बीमारियों में इसके पारंपरिक चिकित्सा के विकल्प के रूप में उपयोग को हतोत्साहित करते हैं. वे इसे इसके सबसे अच्छे रूप में एक हानिरहित प्लेसेबो के रूप में देखते हैं और इसके सबसे खराब अवतार मे वे इसे संभावित रूप से घातक सम्मिश्रणों का वाहक मानते हैं.

ब्रिटेन और फ्रांस जैसे कई देशों में इसके लिए किसी भी तरह के सरकारी फंड के उपयोग की अनुमति नहीं हैं, जबकि ऑस्ट्रेलिया ने गहन समीक्षा के बाद इसे एक छद्म विज्ञान घोषित कर रखा है. स्पेन ने तो इसे एक खतरनाक विधा बताते हुए इस पर पूर्ण प्रतिबंध लगाने का भी प्रस्ताव किया है.

फिर भी, ऐसे लोगों की कोई कमी नहीं है जो बीमारियों की एक ऐसी लंबी – चौड़ी लिस्ट गिना सकते हैं जिसके इलाज की क्षमता सिर्फ़ होम्योपैथी में है. भारत में, यह एक स्नातक स्तरीय पाठ्यक्रम का विषय है जो इसे पूरा करने वाले छात्रों को पंजीकृत चिकित्सक बनने की अनुमति देता है. साथ ही सरकार का एक पूरा महकमा इसकी देखरेख के लिए समर्पित है.

इन्हीं विरोधाभाषी कारणों के चलते आयुष मंत्रालय के कोरोनोवायरस संबंधी सलाह से कई हलकों में खलबली सी मच गई और कई लोग इसे घोर स्वास्थ्य संकट के समय ‘अधकचरी सलाह’ देने के तरीके पर सवाल उठाने लगे. लेकिन दूसरी ओर इस चिकित्सा प्रणाली के समर्थक भी समान रूप से सक्रिय और मुखर हैं.

ऐसे में सवाल यह उठता है कि एकआम आदमी क्या समझे?

 

आख़िर होम्योपैथी है क्या?

होम्योपैथी के जनक डॉक्टर हैनीमैन का मानना ​​था कि बीमारियां केवल तीन तरह की होती हैं – सिफलिस, साइकोसिस, और खुजली (जहां त्वचा में खुजली होती है). उन्हें यह भी लगता था कि ये सब अन्य गंभीर बीमारियों जैसे कि कैंसर, बहरापन और मिर्गी के लक्षण हैं. यह सिद्धांत आज होम्योपैथिक समुदायों के भीतर भी विवादास्पद माना जाता है.

हैनीमैन की यह मूल अवधारणा इस सिद्धांत को खारिज करती है कि कोई भी बीमारी या संक्रमण किसी बाहरी कारण से भी हो सकती है और इसका यह भी मानना था कि प्रत्येक बीमारी के कारक शरीर के भीतर हीं होते हैं.

होम्योपैथिक का ‘जैसे रोग, वैसे इलाज’ अथवा ‘जहर जहर को कटता है’ के सिद्धांत का आधार हैनीमैन के द्वारा किए गये एक निजी प्रयोग से उपजा है. उन्होंने कथित तौर पर सिनकोना छाल – (इसमें क्विनिन पाया जाता है, जिसका उपयोग आज भी मलेरिया के इलाज के लिए किया जाता है)- का बड़ी मात्रा में सेवन कर लिया था. माना जाता है कि हैनीमैन ने निष्कर्ष निकाला कि अत्यधिक उपभोग द्वारा उत्पन्न लक्षण मलेरिया के ही समान थे और इस तरह उन्होंने यह निष्कर्ष निकाला की सिनकोना की छाल से इस रोग का इलाज हो सकता है.

हालांकि आम तौर पर यह माना जाता है कि होम्योपैथिक दवाएं पेड़ों से बनती हैं और प्राकृतिक होती है. पर असलियत में होम्योपैथिक उपचार में शामिल मुख्य अवयव पशुओं से लिए जा सकते हैं- या पौधे-आधारित, खनिज से प्राप्त अथवा सिंथेटिक अवयव – जिन्हें लैटिन या लैटिन-जैसे लगने वाले नामों से पुकारा जाता है – से भी बने हो सकते हैं.

उपचार के लिए औषधि निर्माण के दौरान मुख्य घटक को पानी, शराब या चीनी के साथ इस हद तक पतला करना शामिल होता है कि मूल पदार्थ का एक भी अणु शेष ना रहे.

कोरोनोवायरस की रोकथाम के लिए आयुष मंत्रालय द्वारा जिस आर्सेनिक ऑक्साइड के सेवन की सलाह दी गयी थी उसे होम्योपैथी में आर्सेनिकम एल्बम के रूप में जाना जाता है. यह परंपरागत रूप से होम्योपैथी चिकित्सकों द्वारा पाचन संबंधी विकार, एलर्जी और यहां तक ​​कि चिंता और अनिद्रा जैसी स्थितियों के उपचार के रूप में प्रयुक्त किया जाता है.

होम्योपैथिक दवाओं के लिए प्रयुक्त अन्य मुख्य अवयवों में नैट्रम म्यूरिएटिकम (सोडियम क्लोराइड या सामान्य नमक), जहरीला बेलाडोना फूल, अफीम और यहां तक ​​कि एक रोगग्रस्त व्यक्ति के शरीर से निकाले गये/निकले रक्त, मूत्र, मल, मवाद और बलगम आदि भी शामिल हैं.

कुछ मिश्रणों में ‘कैप्चर’ किए गये अवयवों जैसे की एक्स-रे और सूर्य के प्रकाश का भी उपयोग होता है. ‘सोल’ या सूरज की रोशनी विशेष रूप से आम अवयव है और इसे लैक्टोज (दूध में होने वाली प्राकृतिक चीनी) को सूर्य के सामने देर तक रख कर ‘प्राप्त’ किया जाता है.

विकिरण चिकित्सा के प्रभावों को कम करने के लिए, एक्स-रे के संपर्क में लाई गयी शराब का उपयोग किया जाता है (जो कतई ‘प्राकृतिक’ नहीं है). अक्सर, ग्रेनाइट जैसे अघुलनशील पदार्थ को लैक्टोज के साथ महीन पीस लिया जाता है और फिर उसे डाइल्यूट किया जाता है. उदाहरण के लिए, पिछले साल सुनने मे आया था कि एक ब्रिटिश होम्योपैथी, जो शाही परिवार की भी सेवा करता है, अवसाद और अस्थमा के लिए ‘इलाज’ के रूप में बर्लिन की दीवार के टुकड़ों से तैयार एक उपचार की पेशकश कर रहा था.

अवयवों को पतला करने की प्रक्रिया लघुगणत्मक स्तर पर संपन्न होती है (जहां प्रत्येक चरण पिछले से कई गुना अधिक होता है). आमतौर पर इस्तेमाल किए जाने वाले पोटेंसी हैं, एक्स (जहां प्रत्येक चरण में डायलुशन की मात्रा 10 गुणी बढ़ जाती है) और सी (जहां डायलुशन 100 के गुणकों मे होता है).

एक 2 एक्स (पोटेंसी की इकाई) स्केल का मतलब होगा कि किसी भी पदार्थ के एक भाग को 9 भाग अन्य पदार्थ (पानी, अल्कोहल अथवा चीनी) मे मिला कर पतला किया गया और परिणामस्वरूप प्राप्त मिश्रण के एक हिस्से को फिर से विलायक के 9 भागों में मिलाकर पतला किया गया है.

उदाहरण के लिए, एक मुख्य घटक, जैसे कि आर्सेनिक ऑक्साइड, के एक मिलीलीटर को पहले 9 मिलीलीटर पानी में मिलाकर पतला किया गया और परिणामस्वरूप प्राप्त मिश्रण के एक हिस्से को फिर से 9 मिलीलीटर पानी से पतला किया गया.

इस तरह अगर पोटेंसी 10 एक्स है तो यह प्रक्रिया 10 बार दोहराई जाएगी और अगर 15 एक्स है तो 15 बार.
यह प्रक्रिया सी के लिए भी इसी समान है, लेकिन 100 के गुणक में अर्थात: एक हिस्सा अवयव को 999 भागों के साथ पतला किया जाता है.

उपयोग की जाने वाली सामान्य पोटेंसी 30 एक्स या 300सी है, लेकिन 12 सी या 24 एक्स से परे, मूल पदार्थ का एक भी अणु औषधि में उपस्थिति नहीं होता है.

होम्योपैथी के चिकित्सकों का मानना ​​है कि कोई भी उपचार जितना अधिक डाइल्यूटेड होता है, वह उतना ही अधिक गुणकारी भी होता है. उदाहरण के लिए, 100 एक्स की क्षमता 10 एक्स से अधिक मानी जाती है. इस तथ्य को रसायन शास्त्री काउंटरटिविटिव के रूप में देखते हैं.

यह विचार इस विवादास्पद धारणा पर आधारित है कि पानी में अपनी ‘मेमोरी’ होती है और यह उन पदार्थों के बारे में जानकारी ग्रहित कर लेता है जो इसके संपर्क में आते हैं (और इस प्रकार यह शरीर को रोगमुक्त करता है).

इस पूरी प्रक्रिया से प्राप्त अंतिम समाधान को चीनी की गोलियों पर डाला जाता है और फिर वाष्पित होने के लिए छोड़ दिया जाता है.

इस प्रकार होम्योपैथिक उपचार मानव शरीर के लिए बिल्कुल हानिकारक नहीं होता है, लेकिन केवल तभी जब सारी मिश्रण प्रक्रिया सही ढंग से संपन्न हो. भारत में होमियोपैथिक औषधियों को तैयार करने के खराब तरीके से आर्सेनिक विषाक्तता (पॉइजेनिंग) के कई मामले सामने आए हैं.

होम्योपैथी का विकास और प्रसार

होम्योपैथी को 1800 के दशक में व्यापक रूप से उस वक्त अपनाया गया था जब आधुनिक चिकित्सा विकसित हो ही रही थी और इसमें इलाज की कई दर्दनाक पद्धतियां शामिल थी. दूसरी ओर नई-नई बीमारियां मानव आबादी को संक्रमित कर रही थीं, और वें चिकित्सा विज्ञान में अभी तक पकड़ में नहीं आई थीं. ऐसे माहौल में होम्योपैथी ने दर्द रहित ‘उपचार’ का वादा किया और काफ़ी लोकप्रियता हासिल की.

19वीं शताब्दी के अंत में अमेरिका और यूरोप में कई होमियोपैथिक स्कूल खोले गए, इसके पीछे हैजा जैसे प्रकोप – जिसने उस समय सैकड़ों-हजारों लोगों की जान ले ली थी- के लिए आधुनिक चिकित्सा का अप्रभावी उपचार भी काफ़ी हद तक ज़िम्मेदार था. चिकित्सा जगत के चिकित्सकों ने इस प्रणाली का उसकी प्रभावकारिता आंकने के लिए आकलन भी किया और और यह माना जाता है कि इस प्रतिस्पर्धा ने आधुनिक चिकित्सा में भी कई कठोर प्रयासों को प्रोत्साहित किया.

हालांकि, इस क्षेत्र के सभी प्रमुख होमियोपैथ ने 20वीं शताब्दी के मध्य में इस प्रणाली को छोड़ना शुरू कर दिया क्योंकि आधुनिक चिकित्सा ने वास्तविक परिणाम दिखाने शुरू कर दिए थे. अमेरिका में आखिरी होम्योपैथिक स्कूल साल 1920 में बंद कर दिया गया था.

बाद में, होम्योपैथी में नाजी जर्मनी की रुचि ने 1930 और 40 के दशक में सार्वजनिक चेतना में इसके पुनरुत्थान का मार्ग प्रशस्त किया – लेकिन जल्द हीं उन्होंने भी इस प्रणाली को त्याग दिया.

इसके बाद 1970 के दशक में ‘न्यू एज मूवमेंट’ के दौर में इसकी फिर से वापसी हुई. यह मूवमेंट एक पश्चिमी फेनॉमेना था जिसने कई प्रकार के आध्यात्मिक और धार्मिक विश्वासों को जन्म दिया. इस मूवमेंट के तहत मन, शरीर और आत्मा के लिए ‘प्राकृतिक’ उपायों को स्वास्थ्य के केंद्रीय सिद्धांत के रूप में शामिल किया गया.

इस आंदोलन को ज्योतिष जैसे छद्म वैज्ञानिक मान्यताओं को संस्थागत स्थापना संरचनाओं के खिलाफ प्रतिक्रिया के रूप में अपनाने के लिए जाना जाता है, और आज होम्योपैथी की बढ़ती लोकप्रियता का श्रेय इसे ही दिया जाता है.

भारत में, होम्योपैथी की शुरुआत 19वीं शताब्दी के दौरान हुई और इसे बंगाल के माध्यम से देशभर में जल्दी ही अपना लिया गया. पहला भारतीय होम्योपैथिक संस्थान, कलकत्ता होम्योपैथिक मेडिकल कॉलेज, वर्ष 1881 में स्थापित किया गया था.

1973 में, केंद्र सरकार ने होम्योपैथी को चिकित्सा की राष्ट्रीय प्रणालियों में से एक के रूप में मान्यता दी और इसकी शिक्षा और अभ्यास को विनियमित करने के लिए सेंट्रल काउंसिल ऑफ होम्योपैथी (अब आयुष मंत्रालय की देखरेख में) की स्थापना की.

वैज्ञानिक सहमति

होम्योपैथिक प्रशिक्षण में कई तरह की मान्यताएं शामिल हैं जो विज्ञान के स्थापित सिद्धांतों के विरुद्ध हैं. यह चिकित्सा प्रणाली रोगाणु के सिद्धांत को खारिज करती है और इसका विश्वास है कि सभी बीमारियां मानव शरीर के भीतर से ही आती हैं. प्रशिक्षु चिकित्सकों को कथित तौर पर सिखाया जाता है कि टीके जहरीले होते हैं और एंटीबायोटिक्स बस एक दिखावा हैं.

होम्योपैथी अपनी स्थापना के समय से ही चिकित्सकों द्वारा आलोचना का शिकार रही है. कहा जाता है कि इसकी प्रभावकारिता के प्रमाणों को हैनीमैन द्वारा स्थापित किया गया था जिसमें उन्होनें मरीजों को औषधि का सेवन कराने के बाद अपने लक्षणों के बारे में विस्तार से लिखने को कहा. स्पष्टतः इस प्रक्रिया में कठिन अभ्यासों का कोई स्थान नही था.

वैज्ञानिक अध्ययनों ने लगातार होम्योपैथी को बीमारियों या उनके लक्षणों के इलाज में अप्रभावी दिखाया है – या कभी-कभी इस प्लेसबो के समान ही प्रभावी पाया है.

मौजूदा अध्ययनों के विश्लेषण से पता चलता है कि सकारात्मक परिणामों की ओर इशारा करने वाले अनुसंधान या तो आवश्यक कठोरता से आयोजित नहीं किए गए थे या उनके निष्कर्षों के समर्थन के लिए साक्ष्य अपर्याप्त थे.

2002 में एक ब्रिटिश शोधकर्ता द्वारा आयोजित एक अध्ययन – होम्योपैथी पर अन्य व्यवस्थित समीक्षाओं की एक व्यवस्थित समीक्षा – ने पाया कि इस बारे कोई भी अध्ययन सकारात्मक परिणामों को निर्धारित करने में सक्षम नहीं था. अंततः यह निष्कर्ष निकला कि ‘होम्योपैथी के लिए आज तक उपलब्ध सबसे अच्छे नैदानिक ​​प्रमाण भी इसके चिकित्सकीय उपयोग के लिए सकारात्मक अनुशंसा नहीं प्रदान करते हैं.

इसके बाद के दो दशकों में इस तरह के कई अन्य अध्ययन हुए हैं.

हाल ही में, ऑस्ट्रेलिया में चिकित्सकीय अनुदान देने वाली शीर्ष संस्था नेशनल हेल्थ एंड मेडिकल रिसर्च काउंसिल द्वारा  2015 में एक व्यापक अध्ययन आयोजित किया गया था जिसमे 1800 से भी अधिक अन्य अध्ययनों का आकलन किया और परिणाम अभी भी होम्योपैथी के पक्ष में नहीं थे.

होम्योपैथी की मूल धारणा कि पानी में उन पदार्थों की स्मृति समाहित होती है जो इसके संपर्क में रहे हैं, व्यापक रूप से झुठलाई जाती रही है लेकिन फिर भी यह मामला विवादास्पद बना हुआ है. वैज्ञानिकों द्वारा होम्योपैथी की बड़े पैमाने पर निंदा किए जाने के बाद कई चिकित्सा निकायों और स्वास्थ्य सेवाओं ने अपने स्तर पर स्वतंत्र अनुसंधान किए और उन्होंने भी होम्योपैथी के उपयोग के खिलाफ सलाह जारी की.

अमेरिका और ब्रिटेन की स्वास्थ्य एजेंसियों ​​- क्रमशः डिपार्टमेंट ऑफ हेल्थ एंड ह्यूमन सर्विसेज़ और ब्रिटन’स नॅशनल हेल्थ सर्विस – दोनों ने अपनी वेबसाइटों पर स्पष्ट रूप से बता रखा है कि होम्योपैथी की कथित प्रभावशीलता अनुसंधान द्वारा समर्थित नहीं है. डब्ल्यूएचओ ने गंभीर बीमारियों के इलाज के लिए इसके उपयोग को हतोत्साहित किया है, और घातक परिणामों से बचने के लिए होम्योपैथी की गुणवत्ता नियंत्रण और विनियमन का आह्वान किया है.

रूस, ऑस्ट्रेलिया और यूरोप में राष्ट्रीय चिकित्सा और स्वास्थ्य निकायों ने होम्योपैथी के खिलाफ चेतावनी जारी की है. ब्रिटेन और फ्रांस जैसे देशों ने होम्योपैथिक उपचार के लिए रिएंबेर्समेंट की मनाही कर दी है, जबकि स्पेन ने तो इसे खतरनाक और अनैतिक बताते हुए इस पूरी व्यवस्था पर प्रतिबंध लगाने पर जोर दिया है.

चेन्नई के विजया अस्पताल के एक वॅस्क्युलर सर्जन अमरलोपवनथन जोसेफ ने कहा, ‘कई देशों ने इस बारे में व्यापक शोध किया है और अंततः यह निर्णय लिया है कि यह काम नहीं करता है.’

कोरोनावायरस के खिलाफ हाल ही में जारी सरकारी सलाह के बारे में बोलते हुए उन्होंने कहा, ‘भले ही इसे इलाज के रूप मे नहीं बल्कि प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ा कर निवारक उपाय के रूप में जारी किया गया था, फिर भी यह काम नहीं कर सकता है. क्योंकि रोग प्रतिरोधक क्षमता (इम्यूनिटी) बढ़ाने में कई साल लगते हैं, यह कुछ दिनों में नहीं हो सकता है.’

‘हर मर्ज का इलाज’

होम्योपैथी के समर्थकों का दावा है कि इसमें लगभग हर बीमारी -जिसमें पॉलीसिस्टिक ओवरी सिंड्रोम (पीसीओएस), सोरायसिस और मधुमेह जैसी बीमारियां भी शामिल हैं – ठीक करने की क्षमता है, जिनके लिए पश्चिमी चिकित्सा पद्धति में अभी तक कोई इलाज नहीं है.

‘होम्योपैथी में थायरॉइड, पीसीओडी, सोरायसिस, डायबिटीज, हेयर-फॉल, ऑस्टियोआर्थराइटिस और यहां तक ​​कि कैंसर सहित सभी चीजों के लिए दवाएं हैं.’

जॉय के अनुसार, उनके रोगियों ने आधुनिक चिकित्सा की सहायता के बिना इन सभी बीमारियों में काफ़ी सुधार देखा है.
इस दवा प्रणाली की व्यापक स्तर पर की जा रही आलोचना के बारे में पूछे जाने पर उन्होंने कहा, ‘पश्चिमी विज्ञान होम्योपैथिक दवाओं में भौतिक सामग्री की तलाश करता है, लेकिन होम्योपैथी एक गतिशील तरीके से कार्य करती है. यदि दवाओं का उपयोग सही तरीके से किया जाता है, तो परिणाम देखे जा सकते हैं.

‘हमारे रोगियों ने होम्योपैथी के माध्यम से अपने गोइटर को गलते हुए देखा है लेकिन एलोपैथी में इनमें से अधिकांश के लिए केवल सर्जरी हीं एक मात्र उपाय है.’

चिकित्सा विशेषज्ञों की असहमति

होम्योपैथी की असरकारिका के बारे में किसी भी दावे को डेटा और साक्ष्य द्वारा भी समर्थित होना चाहिए’ चेन्नई के विजया अस्पताल के जोसेफ कहते हैं कि अभी तक कोई भी ऐसा प्रमाण नहीं है कि होम्योपैथी काम करती है और बीमारियों से लोगों को ठीक कर सकती है. वे आगे कहते हैं, ‘अगर होम्योपैथी के वास्तव में काम करने के सबूत मिलते हैं तो, सर्वप्रथम डॉक्टर हीं इसे अपनाएंगे. आख़िर हम भी चाहते हैं कि हमारे मरीज बिल्कुल ठीक और स्वस्थ हो जाएं.’

फैक्ट चेकिंग पोर्टल ऑल्ट न्यूज़ के विज्ञान संपादक के रूप में कार्य करने वाली स्वीडन की न्यूरोसाइंटिस्ट सुमैया शेख ने अपने रिपोर्टिंग के एक भाग के रूप में होम्योपैथी और होम्योपैथिक के अकादमिक प्रकाशनों पर गहन शोध किया है.

उनका कहना है ‘वे अध्ययन (जो होम्योपैथी को प्रभावी साबित करता है) आरंभ से ही दोषपूर्ण आंकड़े पर आधारित हैं.’
‘होम्योपैथी की दवाओं की गतिशीलता को कभी भी एक यांत्रिक व्याख्या की चर्चा में लाने की कोशिश नहीं की गई, एक परिकल्पना के रूप में भी नही. ऐसा इसलिए है क्योंकि लेखक स्वयं कभी भी इस बात को नहीं जान पाते कि आख़िर दवा काम किस तरह से कर रही है. अक्सर निष्कर्षों को अत्यंत क्लिष्टता के साथ संक्षेप मे प्रस्तुत कर दिया जाता है, लेकिन जब इन्हीं अध्ययनों की सावधानीपूर्वक जांच की जाती है, तो आंकड़े निष्कर्ष में दिए गये दावे के अनुरूप नही होते. ‘शेख ने कहा.

इसके अतिरिक्त, होम्योपैथी के आलोचक यह भी दावा करते हैं, ऐसी प्रक्रियाएं जो वैज्ञानिक जटिलता को प्रदर्शित करती हैं, जैसे कि ब्लाइनडिंग, का शायद ही कभी होम्योपैथी में उपयोग किया जाता है. ब्लाइनडिंग का तात्पर्य यह है कि जब रोगी को पता नहीं होता कि उन्हें कौन सी होम्योपैथिक दवा या एलोपैथिक दी जा रही है. इसी प्रकार की एक और प्रणाली डबल-ब्लाइंडिंग है, जब डॉक्टर खुद भी दवा के बारे में नहीं जानते हैं.

उपचार की प्रभावशीलता को बिना किसी तरह के पूर्वाग्रह के साथ स्थापित करने के लिए ऐसी प्रणालियां काफ़ी महत्वपूर्ण होती हैं.

शेख ने समझाया कि कैसे शोध के उद्धरण मूल्य ’- जो विश्वसनीयता का एक तरीका है – होम्योपैथी के लेखकों या अन्य होम्योपैथ द्वारा बार-बार दोषपूर्ण अध्ययनों का हवाला देकर बढ़ा चढ़ा कर पेश किया जाता है इसकी आड़ में अन्य वैरियबल्स की अनदेखी कर दी जाती है.

हालांकि, होम्योपैथी के समर्थक विश्वसनीय शोध की कमी के बारे में दिए गये तर्कों को तत्परता से खारिज करते हैं, यह कहते हुए कि यह वैकल्पिक चिकित्सा प्रणाली के प्रति पश्चिम की उदासीनता का परिणाम है.

आयुष मंत्रालय के अंतर्गत आने वाले एक संस्थान, सेंट्रल काउंसिल फॉर रिसर्च इन होम्योपैथी के महानिदेशक डॉ. अनिल खुराना ने कहा, ‘होम्योपैथिक प्रणाली की पहुंच पश्चिमी दुनिया में अत्यंत सीमित है और एलोपैथी की तुलना में इसके विकास पर भी ज्यादा ध्यान नहीं दिया गया है.’

डॉक्टर खुराना आगे कहते हैं, ‘दवाओं की कम कीमत के कारण, इसे प्रायोजकों से निवेश भी नहीं मिल पाता. पश्चिमी देशों की सरकारों ने भी होम्योपैथी सहित वैकल्पिक चिकित्सा में धन का कभी निवेश नहीं किया. एलोपैथी के प्रति उनके अंध समर्थन ने उन्हें होम्योपैथी की प्रभावशीलता साबित करने के लिए और ज़्यादा शोध और अध्ययन में निवेश करने से रोक दिया है.’

‘हालांकि, दूसरी तरफ ब्राजील, क्यूबा और मैक्सिको जैसे कई देश हैं जहां सरकारें चिकित्सा की इस प्रणाली का समर्थन करती हैं. अमेरिका में इस चिकित्सा का प्रयोग बढ़ने लगा है और वहां के सात राज्यों ने होम्योपैथी के अभ्यास को क़ानूनी रूप से अनुमति दे दी है. यूरोप में, इटली, जर्मनी, फ्रांस और स्विट्जरलैंड सहित अधिकांश देशों में इस चिकित्सा प्रणाली की स्वीकार्यता अपने सर्वकालिक उच्च स्तर पर है.’

हालांकि, 60 फीसदी फ्रांसीसी आबादी होम्योपैथी का उपयोग करती है फिर भी 2021 के बाद से यहां की सरकार इस प्रणाली के तहत दवाओं के लिए सार्वजनिक समर्थन को समाप्त कर देगी. इस बीच, स्विट्जरलैंड में होम्योपैथी को पारंपरिक चिकित्सा के समान दर्जा दिया गया है.

डॉक्टर खुराना के अनुसार, होम्योपैथी में प्रशिक्षण प्राप्त करने वाले छात्रों को साढ़े पांच साल के कठोर पाठ्यक्रम से गुजरना पड़ता है, जिसमें एक साल की इंटर्नशिप भी शामिल होती है और यह ‘एमबीबीएस के समकक्ष ही होती है, जहां पाठ केवल होम्योपैथी के बारे में ही नहीं होते बल्कि अन्य विषयों से भी संबंधित होते हैं, जैसा कि एलोपैथिक के मेडिकल कॉलेजों में होता है.

‘इस समय होम्योपैथी का सबसे बड़ा आधारभूत ढांचा भारत में है, क्योंकि यहां की जनता ने होम्योपैथी के लाभों को अनुभव किया है.’

आज भारत में लगभग 3 लाख पंजीकृत होमियोपैथ हैं. अनुमानित रूप से 32000 छात्र प्रत्येक वर्ष आयुष कॉलेजों में दाखिला लेते हैं, जिनमें से 13000 से अधिक छात्र होम्योपैथी का चयन करते हैं.

लेकिन इस पाठ्यक्रम का संभवतः एक अंधकारपूर्ण दूसरा पक्ष भी है.

एक प्रशिक्षित होम्योपैथ शांतनु अभ्यंकर, जो अब आधुनिक चिकित्सा पद्धति को अपना चुके हैं, ने कहा, ‘होम्योपैथी की डिग्री उन छात्रों के लिए एक आसान प्रवेश द्वार है, जो एमबीबीएस में प्रवेश करने के लिए अच्छे अंक प्राप्त नहीं करते हैं.’ यह जानने के बाद कि होम्योपैथी एक बड़ा गड़बाड़झाला है शांतनु ने आधुनिक चिकित्सा पद्धति को अपनाना ही बेहतर समझा.

अभ्यंकर खुद भी यह रास्ता अपना चुके हैं. उन्होंने होम्योपैथी पाठ्यक्रम में सिर्फ़ इसलिए प्रवेश लिया क्योंकि वह एमबीबीएस के लिए उनका स्कोर पर्याप्त नहीं था.

लेकिन अपने प्रशिक्षण के दौरान, उन्होंने महसूस किया कि उन्हें सिर्फ सिद्धांत सिखाया गया था, और इस क्षेत्र में प्रकाशित शोध पत्रों ने कभी इस बात के कोई सबूत पेश नहीं किए कि होम्योपैथी वाकई काम करती है.

उन्होने बताया, ‘होमियोपैथ को उनके नाम के साथ डॉक्टर लगाने की क़ानूनी मान्यता है और सिर्फ़ इस कारण वे अपना क्लिनिक खोल लेते हैं.’

अभ्यंकर ने अंततः एमबीबीएस की डिग्री प्राप्त की, और अब 20 वर्षों के लिए एक स्त्री रोग विशेषज्ञ के रूप में कार्यरत हैं.

प्लेसबो कैसे काम करते हैं?

कई ऐसे कारण हैं जिनसे होम्योपैथी के आलोचकों का मानना ​​है कि लोगों को लगता है कि होम्योपैथी काम करती है. इनमें से प्राथमिक कारण को रिग्रेशन टू द मीन (माध्य के लिए प्रतिगमन) कहा जाता है.

लगभग हर बीमारी का एक प्राकृतिक विकास वक्र होता है जिसमें वह समय के साथ या तो रोगी को मार देती है या खुद ही धीरे-धीरे ख़त्म हो जाती है. आमतौर पर जैसे ही बीमारी होती है, मरीज डॉक्टरों के पास चले जाते हैं. एंटीबायोटिक्स या अन्य आधुनिक दवाएं दी जाती हैं और वे हमेशा कारगर साबित नहीं हो पातीं. इसके बाद होमियोपैथ उपचार एक लंबा कोर्स निर्धारित करता है. मरीज उनका सेवन करने लगता है और रोग की प्राकृतिक अवधि के बाद उसकी बीमारी कम होने लगती है और आखिरकार मरीज ठीक हो जाता है.

रिग्रेशन के इसी सिद्धांत को कई अवसरों पर प्लेसीबो प्रयोगों में दोषपूर्ण परिणाम मिलने के पीछे कारक के रूप में उल्लेख किया जाता है. यह इस बात का भी कारण माना जाता है कि बहुत से मरीज जो कैंसर जैसी खतरनाक बीमारियों से बच जाते हैं, वे जब होमियोपैथ के पास फॉलो अप उपचार के लिए जाते हैं तो बेहतर महसूस करते हैं.

होम्योपैथ जॉय ने कहा, ‘हमने कई कैंसर रोगियों का इलाज किया है जो सभी प्रकार के कैंसर जैसे फेफड़ों के कैंसर और स्तन कैंसर से पीड़ित हैं.’

जॉय के अनुसार ‘होम्योपैथी में जीवन को लंबा करने की क्षमता होती है. कीमोथेरेपी के साथ समस्या यह है कि कैंसर की पुनरावृत्ति (फिर से रोग होने) की संभावना बढ़ जाती है (हालांकि इस दावे के कोई पुख़्ता सबूत नहीं है), लेकिन लोग अभी भी हमेशा पहले कीमोथेरेपी के लिए जाते हैं और फिर होम्योपैथी में आते हैं. हमने कई तरह के कैंसर में रोगियों को पुनरावृत्ति से सफलतापूर्वक बचा लिया है.’

उन्होंने कहा, ‘विभिन्न रोगियों की अलग-अलग ज़रूरतें होती हैं, इसलिए हम आर्सेनिक, बेलाडोना आदि से बने विभिन्न उपचारों का उपयोग करते हैं.’

हालांकि, उन्होंने स्वीकार किया कि उन्हें कैंसर के ऐसे कोई मरीज नहीं मिले जो कीमोथेरेपी से पहले सीधे होम्योपैथी में आए हों.

रिग्रेशन टू द मीन के समान प्रभाव को बिना बाहरी सहायता वाली प्राकृतिक चिकित्सा में भी देखा जाता है, जहां शरीर की आंतरिक प्रणाली किसी बीमारी से लड़ने के लिए समय के साथ प्रतिरक्षा का निर्माण कर लेती है, और अक्सर यह होम्योपैथिक उपचार के साथ मेल खाता है.

यह भी संभव है कि रोगी अपने जीवन के पूरी तरह से अलग पहलू – जैसे कि ध्यान का एक नया तरीका – के कारण बेहतर महसूस करता है जो शरीर में औषधीय परिवर्तन को प्रेरित कर रहा है और बीमारी का इलाज कर रहा है,
मरीज अक्सर होम्योपैथी का उपयोग अपने सामान्य चिकित्सा उपचार के साथ एक पूरक उपचार के रूप में भी करते हैं.

इसकी प्रभाविकता का एक कारण चिकित्सकीय परामर्श का मनोवैज्ञानिक चिकित्सकीय प्रभाव भी है. होम्योपैथिक परामर्श आमतौर पर दो घंटे तक चल सकता है और ब्रिटिश जर्नल रूममेटोलॉजी में प्रकाशित एक 2010 के अध्ययन के अनुसार होम्योपैथी रोगियों में परिलक्षित नैदानिक ​​लाभ के लिए चिकित्सकीय परामर्श को भी कारक माना जा सकता है.

होम्योपैथी को एक तरह का प्लेसबो भी माना जाता है- यह इसलिए काम करता है क्योंकि इसे लेने वाले लोग सोचते हैं कि यह वास्तव में काम करता है. लेकिन इसके लिए दृढ़ विश्वास की आवश्यकता होती है और यह सभी उपयोगकर्ताओं के मामले में सही नहीं है. प्लेसीबो प्रभाव गहन एवं सक्रिय शोध का एक विषय है, विशेष रूप यह जानने के बाद की रोगी तब भी सकारात्मक प्रतिक्रिया देते हैं जबकि वे पहले से ही जानते हों कि उन्हें प्लेसबो दिया गया है.

लेकिन प्लेसबो प्रभाव ज्यादातर बीमारियों के लक्षणों को कम करने अथवा और दर्द के प्रबंधन में काम करने के लिए जाना जाता है, न कि वास्तविक बीमारी के इलाज के लिए. उदाहरण के लिए, कैंसर के ट्यूमर के मामले में प्लेसबो प्रभाव के तहत कोई व्यक्ति कम दर्द महसूस कर सकता है, लेकिन ट्यूमर अंदर ही अंदर उसके शरीर को ख़ाता रहता है.

हालांकि, डॉक्टर खुराना ने कहा कि यह महज एक मिथक है कि होम्योपैथी एक प्लेसबो के रूप में काम करती है.
उन्होंने बताया, ‘आधुनिक चिकित्सा में भारत के शीर्ष अनुसंधान संस्थान माने जाने वाले, एम्स, स्कूल ऑफ ट्रॉपिकल मेडिसिन, कोलकाता, और बोस इंस्टीट्यूट, कोलकाता व अन्य ने इस मिथक को दूर करने के लिए कि ये दवाएं केवल प्लेसीबो हैं, प्री-क्लिनिकल ट्रायल (मनुष्यों पर होने वाले क्लिनिकल परीक्षण से पहले के परीक्षण) किए हैं’

‘इस तरह के परीक्षणों के दावों को मान्य बनाने के लिए पर्याप्त रूप से डॉक्युमेंट्स तैयार किए गये हैं और ये अध्ययन अंतर्राष्ट्रीय सहकर्मी-समीक्षित पत्रिकाओं (पियर रिव्यूड जरनल्स) में प्रकाशित भी हुए हैं.’

हालांकि, इनमें से कुछ अध्ययनों में होम्योपैथी की प्रभावकारिता के बारे में कुछ भी नहीं कहा गया है. इसके बजाय, बोस इंस्टीट्यूट सहित पश्चिम बंगाल के शोधकर्ताओं के एक अध्ययन में इन दवाओं के ‘स्पंदन और बिजली के समान गुणों’ के बारे में बात की गई है.

दिप्रिंट ने इस बारे में टिप्पणी के लिए एम्स और भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद के प्रमुखों से भी संपर्क किया लेकिन उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया.

अभ्यंकर ने कहा, ‘होम्योपैथी सिर्फ़ रोगों के लक्षणों का इलाज करती है जबकि आधुनिक चिकित्सा इसके मूल कारणों का इलाज करती है. आधुनिक चिकित्सा किसी भी बीमारी की भविष्यवाणी और रोकथाम भी कर सकती है, लेकिन होम्योपैथी लक्षणों के प्रकट होने के बाद ही उनका इलाज कर सकती है.’

एडजार्ड अर्न्स्ट, एक जर्मन अकादमिक चिकित्सक जो पूरक और वैकल्पिक चिकित्सा के विशेषज्ञ माने जाते हैं ने बताया है कि आम लोगों को होम्योपैथिक उपचार एक हानिरहित प्लेसिबो की तरह लग सकता है, लेकिन कई बार वे अप्रत्यक्ष नुकसान का कारण भी बनते हैं,

अर्न्स्ट के अनुसार, ‘अगर एक गंभीर रूप से बीमार व्यक्ति का होम्योपैथी के द्वारा अप्रभावी इलाज किया जाता है और एक प्रकार से उसे प्रभावी उपचार से वंचित कर दिया जाता है, तो उसकी बीमारी का पर्याप्त उपचार नहीं हो पाता जो उसके लिए अनावश्यक पीड़ा का कारण बनता है. इसी तरह अगर एक होमियोपैथ मरीज को टीकाकरण के खिलाफ सलाह देता है – जैसा कि कई होमियोपैथ अक्सर करते हैं – तो वह सार्वजनिक स्वास्थ्य को खतरे में डालता है. यदि कोई होम्योपैथ बेअसर उपचार के लिए शुल्क लेता है, तो वह अपने रोगी को वित्तीय नुकसान पहुंचाता है.’

हालांकि, वर्तमान में होम्योपैथ भारत के स्वास्थ्य सेवा के पिरामिडनुमा ढांचे में अनौपचारिक सामुदायिक देखभाल (इनफॉर्मल कम्यूनिटी केयर) की एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं.

अभ्यंकर ने कहा, ‘हमारे पास आधुनिक चिकित्सा के तहत नर्स, सुपर स्पेशियलिटी नर्स, वार्ड ऑफिसर, डॉक्टर तो हैं, लेकिन बहुत कम फिजियोथेरेपिस्ट या प्रशिक्षित काउंसलर हैं. क्योंकि वे (होमियोपैथ) डॉक्टर माने जाते हैं, इसलिए अक्सर इस जरूरत को पूरा करते हैं.’

आयुष मंत्रालय के तहत, होम्योपैथी आयुर्वेद के बाद चिकित्सा की दूसरी सबसे अधिक वित्त पोषित प्रणाली है, लेकिन अर्न्स्ट का कहना है कि इस पर इतना ध्यान देने की आवश्यकता नहीं है.

वे कहते हैं, ‘होम्योपैथी न तो जैविक रूप से प्रभावी है और न हीं अब तक उपलब्ध सबसे बेहतर साक्ष्य के अनुसार चिकित्सकीय रूप से कारगर. इसलिए, सरकारी अनुदान की बात तो दूर है, होम्योपैथी में अनुसंधान के लिए धन देना प्रतिष्ठित संगठनों के एजेंडे में भी नहीं होना चाहिए.

उनका यह भी कहना है, ‘अनुसंधान के लिए फंडिंग की वैसे ही काफ़ी कमी है. इसलिए, सरकारों और अन्य फंडिंग निकायों का एक नैतिक और कानूनी कर्तव्य है कि वे उत्पादक परिणाम देने की ज़्यादा पूर्व संभावना वाली परियोजनाओं पर पैसे खर्च करें.’

शेख कहती हैं, ‘वैकल्पिक चिकित्सा संवीक्षा, जांच और सहकर्मियों द्वारा समीक्षा के लिए पूरी तरह खुली होनी चाहिए और इसे अनुसंधान के उन सभी सिद्धांतों का पालन करना चाहिए जैसे कि साक्ष्य आधारित चिकित्सा में होता है. अपने आप को मुख्यधारा से विलग करके और कठिन चुनौतियों को स्वीकार करने में असमर्थता दिखा कर वैकल्पिक चिकित्सा उस हाल मे स्वयं पहुंची है जहां वह अभी है. उस यंत्रणा और जैव रासायनिक मार्ग को पता करना काफ़ी महत्वपूर्ण हो सकता है जिसके तहत जड़ी-बूटियों को सूजन रोधी बनाया जाता है.

लेकिन अनुसंधान अक्सर शोध के पूरी तरह से संपन्न होने से पहले ही त्वरित परिणामों और विपणन पर केंद्रित हो जाता है, क्योंकि विश्वास प्रमाणों से ऊपर स्थान बना लेता है.

हिमानी चांदना से मिले इनपुट्स के साथ

सुनंदा रंजन द्वारा संपादित

*प्लेसबो एक तरह का निष्क्रिय पदार्थ या उपचार है जिसका कोई चिकित्सीय महत्व नहीं होता है.

(इस ख़बर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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16 टिप्पणी

  1. Mai jab se paida hua hun tab se homeopathy hi khaya hai. To aisa nahi ki mai bimar nahi pada but wo sab homeopathy se cure hua. Practical is always better than theory.

  2. हमारे डॉक्टर एक दूसरे को नीचा दिखाने के चक्कर में रहते हैं छोटा डॉक्टर कुछ कह दे तो उसकी डिग्री रद्द कराने के पीछे पड़ जाते हैं तक तक चैन नहीं लेते जब तक डिग्री कोर्ट से रद्द ना करा दे आयुर्वेद होम्योपैथी एलोपैथी में कॉर्पोरेशन की जरूरत है मगर लगता है यह कोई राजनीतिक पार्टियां है वायरस की डायरेक्ट कोई दवा नहीं मात्र स्ट्रांग इम्यूनिटी !कुछ दवाइयां इस इम्यूनिटी को उत्पन्न कर सकती हैं कुछ दवाइयां ऐसी भी है जो डब्ल्यूबीसी से वायरस के खिलाफ मिलती-जुलती या सटीक एंटीबॉडी उत्पन्न करा सकती हैं मुझे मालूम है कि हाइड्रोक्सी क्लोरोक्वाइन क्रोना में क्यों काम कर रही है पर क्या मेरे ऐसा छोटा चिकित्सक कुछ बोलने की हिम्मत कर सकता है महमूद आलम आयुर्वेद रत्न झोलाछाप BEMS

  3. होम्योपैथी के जन्म डॉक्टर सैमुअल है ना मैंने अपने होम्योपैथिक नौकरी में कहा है कि हो पैथिक चिकित्सा पद्धति साइंस और आर्ट दोनों है और इस पद्धति की दवाएं डायनामिक प्लेन में काम करती हैं जो फिसकली बहुत ही सूक्ष्म मात्रा होती है जिसको आज हमारे वैज्ञानिक पैरामीटर ट्रेस नहीं कर पा रहे हैं आज हमारे आज हमारे पास करो ना वायरस के इलाज के लिए कोई दवा नहीं है तो क्या यह माना जाए कि एलोपैथिक कोई वैज्ञानिक चिकित्सा पद्धति नहीं है ऐसा नहीं है यह एक वैज्ञानिक चिकित्सा पद्धति है लेकिन आज हमारे पास इसके इलाज के लिए दवाएं नहीं है भविष्य में जरूर होगी इसी प्रकार हमारा विज्ञान भी यहां तक नहीं पहुंच पाया है कि वहां पर दवाओं के प्रभाव को विश्लेषण करके इसकी प्रभावशीलता को बता पाए लेकिन भविष्य में हमारा विज्ञान इसकी प्रभावशीलता को पता लगा लेगा

  4. The print ne beedaaaa uthayaaaa hai desh ko path brhasthhh karne ke liye

    Himaniiii Chandana Kaun hai inkaaa background bataaaye

    Tumharaaaa kaam sirf desh mein disputes khadaaa karnaaa hi hai

    Modi ji ne kuch bolaaa aur tumhaaraaaa vaaaampanthiiii reporting chaluuuu

  5. संध्या रमेश जी आपने हरसंभव होमियोपैथिक पद्धति पर कटाक्ष किया । परंतु आपकी सारी बातें पढ्ने के बाद बस ऐसा लग रहा है मानो कोई जोक पढ रहा था । आपको होमियोपैथिक की ‘ह’ अक्षर का भी ज्ञान नहीं है! लगता है आप वामपंथी विचारधारा के बुद्धिजीवि वर्ग से तालुकात रखते है । आपने चिकित्सा को भी राजनीति से काफी बेतुके ढंग से अपनी बातों के जरिये जोड़ने का भरपुर लेकिन निरर्थक प्रयास किया । आपके अन्दर की भावना को कोई समझदार व्यक्ति तुरंत भाप लेगा। अपने ज्ञान रुपी सागर को सही दिशा में लगावे। आप अपनी संतुष्टि के लिये कभी कोई जानकार होमियोपैथिक चिकित्सक से परामर्श अवश्य लें । अभी आपको इससे अधिक शोध की आवश्यकता है होमियोपैथिक पद्धति को जानने या समझने हेतू ।

  6. प्रणव कुमार जी अपने बिल्कुल सही कहा है एलोपैथी केवल त्वरित विज्ञान है जबकि होमेओपेथी एक धीमा ,परन्तु सटीक जड़ से खत्म करने वाला विज्ञान है अगर अलोपथी में सर्जरी न हो तो,वह भी अन्य विज्ञान की तरह है अब एलोपैथी सर्जरी द्वारा पैसा कमाने का विज्ञान बन चुका है जहाँ मरीज की सेवा करना अब एक सपना मात्र है होमिओपेथी एक सस्ता उपचार विज्ञान है जो मात्र जनता की सेवा उपचार हेतु है जहाँ कोई भी अपना इलाज करवा सकता है बिना कोई ज्यादा खर्चा के

  7. kya jante ho aap homeopathy ke baare me. Sre jo ilaj mera 2 saal me alopathy nhi kar payi wo sirf 2 mahine me homeopathy ne thik kar diya or dubara kabhi wo samsya hui nhi mujhe.
    Aap apna gyaan apne pass rakho . Alopthy sabse ghatiya h ok koi dam nhi h isme. Sabse best hai homeopathy.

  8. kya jante ho aap homeopathy ke baare me. Sre jo ilaj mera 2 saal me alopathy nhi kar payi wo sirf 2 mahine me homeopathy ne thik kar diya or dubara kabhi wo samsya hui nhi mujhe.
    Aap apna gyaan apne pass rakho . Alopthy sabse ghatiya h ok koi dam nhi h isme. Sabse best hai homeopathy.

  9. होमियोपैथी कि आलोचना वही लोग करते हैं जिन्होने कभी भी इस पैथी से अपना ईलाज नही करवाया। इस पैथी से रोग निर्मूल हो जाता है।

    मै पूछता हूँ कि एलोपैथी से कौन सा जटिल रोग ठीक होता है? क्या बीपी, शुगर एवं थायराईड का ईलाज़ है एलोपैथी में? नही न?

    हर जटिल रोग में आजीवन दवा खाने कि सलाह देनेवाले एलोपैथ इसका जवाब देंगे जरा?

  10. Sandhya Ramesh kya maloom yeh Naam bhi farzi honga.
    Please bataye kitne amount mila aapko is article ko likhane ke badle mein?

  11. Mai homeopathy k student hu mje study kr ke to aisa nhi lgta k yr kam nhi krta h r km krta h bt sbr k sth sb thik h apni jagah agr aisa hota to government DR degree kyu dti socho jara itna to dimag hoga 5YRS KOI KYU wst krta.

  12. आप जैसे भ्रमित लोग ही समाज के दीमक हैं| होम्योपैथी वह चिकित्सा पद्धति है कि आपकी इस मानसिकता को भी बदला जा सकता है| किसी चीज के इस्तेमाल किये बिना उसे समझ कैसे लोगे? आपको खुद पर भी शक होता होगा| अपने वजूद पर भी शक होता होगा| दूसरो में खामिया ढूंढना आपकी प्रवृत्ति होगी| यह एक बीमारी है| आप अपना तमाम स्वभाव बता अच्छे होम्योपैथी डाक्टर से इलाज कराएं| आपके प्रति मेरी सहानुभूती है|

  13. China ko support karte rahne wale who ki kya reliability hai jo har tarah se China ko nirdosh sabit karne me juta hai who head chahe to mujhse dawa le le asar sabit kar doonga.
    My dear WHO CHIEF
    HANNIMANN HAD MORE TRUST IN HOMEOPATHY HE WAS A ALLOPATHY PHYSICIAN

  14. मैडम संध्या रमेश आपका उपरोक्त लेख पढ़ने के बाद यह प्रतीत हुआ कि आप भी देश एवं विदेश के अनेक एलोपैथिक डॉक्टर्स की भांति होम्योपैथी के प्रति दुर्भावना एवं पूर्वाग्रह से ग्रसित हैं। भारत एवं अन्य देशों के एलोपैथिक डॉक्टर्स की जमात होम्योपैथी के प्रति अपनी इस पूर्वाग्रह से युक्त सोच के लिए जानी जाती है कि होम्योपैथी कोई विज्ञान नहीं है तथा यह मात्र रोगी को मानसिक रूप से प्रभावित करने का एक भ्रमपूर्ण तरीका है तथा होम्योपैथी के द्वारा किसी भी प्रकार के शारीरिक रोग को सही नहीं किया जा सकता है। अपने इस पूर्वाग्रह के समर्थन में वह अनेक अधकचरे व झूठे तथ्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास समय-समय पर करते रहते हैं। जबकि वास्तविक सच्चाई यह है कि भारत ही नहीं बल्कि विश्व के अनेक एलोपैथिक डॉक्टर्स ने एलोपैथी को छोड़ कर के होम्योपैथी को अपनाया तथा उसके प्रयोग से अनेक गंभीर रोगियों को रोगमुक्त किया। वास्तविकता तो यह है कि होम्योपैथी इतना जटिल और गूढ़ विषय है कि इसे समझने के लिए अत्यधिक उच्च स्तर के ज्ञान की आवश्यकता होती है। एक सामान्य एलोपैथिक डॉक्टर भले ही वह एमबीबीएस, एमडी या अन्य उच्च स्तर की एलोपैथिक डिग्री होल्डर क्यों ना हो, के लिए होम्योपैथी के सिद्धांत और उसकी गहराई को समझना अत्यधिक कठिन कार्य है क्योंकि इसके लिए बहुत सूक्ष्म समझ और धैर्य की आवश्यकता है जो एलोपैथी में कहीं नहीं है। मैं स्वयं अपने जीवन में होम्योपैथी के कई ऐसे प्रयोगों के बारे में यहां बताना चाहता हूं जिन्होंने मरीज को एक नया जीवन उस स्थिति में दिया जिसमें एलोपैथिक डॉक्टर्स पूरी तरह से असफल हो चुके थे और उन्होंने मरीज को लाइलाज घोषित कर दिया था।
    केस नं० 1- लगभग 20 वर्ष पहले मेरे पास एक 10 माह के शिशु का केस आया जोकि मरणासन्न अवस्था में था। वह पिछले कई दिनों से गंभीर डायरिया, उल्टी और तेज बुखार से पीड़ित था। शहर के उच्च स्तर के एलोपैथिक डॉक्टर्स ने उसका इलाज किया था परंतु वह उसको ठीक करने में सफल नहीं हो सके और उन्होंने उस बच्चे के माता पिता को उसे शहर से बाहर एक अन्य बड़े अस्पताल ले जाने का सुझाव दिया। अत्यधिक निराशा एवं आशंका के बीच वह शिशु मेरे पास लाया गया। उसकी शारीरिक स्थिति का परीक्षण करने के बाद मैंने उसको होम्योपैथिक दवा की मात्र दो खुराक दीं और उसे सुबह दिखाने के लिए कहा। जब सुबह उसे देखा गया तब वह पूर्ण रूप से ठीक हो चुका था।
    केस नं० 2- मेरे एक मित्र जो कि एक दूसरे शहर में रहते हैं, की माताजी को कई वर्ष पहले हाई ब्लड प्रेशर तथा हाई ब्लड शुगर की वजह से अत्यधिक गंभीर अवस्था में एलोपैथिक हॉस्पिटल में भर्ती कराया गया था। हाई ब्लड शुगर ने उनके दोनों पैरों को पूर्ण रूप से बेकार कर दिया था। एलोपैथिक डॉक्टर्स ने बहुत कोशिश की परंतु वह उनके पैरों में दोबारा से जीवन वापस नहीं ला सके। मित्र ने अपनी माता जी को भारत के कई प्रसिद्ध अस्पतालों जैसे कि एम्स में भी दिखाया। एलोपैथी के सभी काबिल डॉक्टर्स का मेरे मित्र को जवाब यह था कि हाई ब्लड शुगर ने उनकी माता जी की स्नपाइनल कॉर्ड की नर्व्स को क्षतिग्रस्त कर दिया है जिसकी वजह से यह अब कभी अपने पैरों पर खड़ी नहीं हो सकेंगी। उसके बाद वह हमेशा के लिए अपने घर में बिस्तर पर लग गईं। कई महीनों के बाद मेरे मित्र ने मुझे उन्हें देखने के लिए अपने घर बुलाया। जब मैं वहां पहुंचा तो वह बिस्तर पर लेटी हुई थीं और कोशिश करने के बाद भी वह अपने पैरों को हिलाने में पूर्ण रूप से असफल थीं। उनकी स्थिति और लक्षणों का विश्लेषण करने के बाद मैंने अपने मित्र को उनके लिए होम्योपैथी की एक दवा दिन में तीन बार नियमित रूप से देने के लिए लिखी। उसके लगभग 1 वर्ष के बाद मेरे पास मित्र का फोन आया और उसने मुझे बताया की उसकी माताजी पैरों पर खड़ी हो जाती हैं। उनकी लगभग 2 वर्ष तक वह दवा चलती रही और आज उनके पैर पूर्ण रूप से ठीक हो चुके हैं।
    इसके अतिरिक्त भी मेरे पास स्वयं के अनुभव के कई ऐसे केस हैं जिसमें एलोपैथी पूर्ण रूप से फेल हुई है और होम्योपैथी ने उन्हें पूरी तरह से ठीक कर दिया है।
    इसलिए बिना किसी ठोस प्रमाण के और होम्योपैथी को ठीक से समझे बिना इस तरह के आरोप लगा देना उचित नहीं है। यह सरासर एक पक्षपात पूर्ण व्यवहार है जो पूर्ण रूप से न केवल अनुचित है बल्कि अब अमानवीय भी है।

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