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Monday, 9 December, 2024
होमदेशकहीं कमरे नहीं तो कहीं दरी पर बैठने को मजबूर छात्र, बिहार में शिक्षक बनने को लेकर इतना संघर्ष क्यों

कहीं कमरे नहीं तो कहीं दरी पर बैठने को मजबूर छात्र, बिहार में शिक्षक बनने को लेकर इतना संघर्ष क्यों

2012 में राज्य शिक्षक पात्रता परीक्षा को पास करने की वजह से ही सुनील कुमार की शादी हुई थी लेकिन आज वो एक बड़े सीमेंट दुकान पर काम करने को मजबूर हैं.

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पटना: बिहार के सुपौल जिला के करिहो पंचायत के रहने वाले सुनील कुमार लगभग 9 साल पहले राज्य शिक्षक पात्रता परीक्षा पास कर चुके हैं. 2012 में इसी परीक्षा को पास करने की वजह से उनकी शादी भी हुई थी लेकिन आज वो एक बड़े सीमेंट दुकान पर काम करने को मजबूर हैं.

सुनील बताते हैं, ‘पूरे गांव समाज में मजाक बनकर रह गया हूं. सरकार चाहती ही नहीं है कि हमारी नियुक्ति हो.’

बिहार के लगभग गांवों में एक न एक सुनील मिल ही जाएगा.

2019-20 की एक सरकारी रिपोर्ट के अनुसार बिहार में छात्र-शिक्षक अनुपात देश में सबसे खराब है. प्राथमिक और उच्च माध्यमिक विद्यालयों में छात्र-शिक्षक अनुपात 50 और 60 से ज्यादा है. संसद में हुई एक बहस के दौरान भी बताया गया था कि ‘समग्र शिक्षा अभियान’ के तहत बिहार में 5.92 लाख प्राथमिक शिक्षकों के पद की स्वीकृति दी गई, जिसमें 2.23 लाख रिक्त हैं.

पटना के पुणइ चक इलाके में तैयारी कर रहे समस्तीपुर के 27 वर्षीय निशांत बताते हैं कि बिहार में शिक्षक नियुक्ति होने के बाद भी अपने अधिकारों के संघर्ष के लिए लड़ते रहते हैं. 90 के दशक वाले शिक्षक को जो सुविधा उपलब्ध कराया जाता था वह आज के शिक्षकों को नहीं मिलता. बिहार सरकार के भाषा में इन शिक्षकों को नियोजित शिक्षक कहते हैं.

वहीं सुपौल जिला के बीना बभनगामा गांव के मिथिलेश झा भी उन्हीं लोगों में से हैं जिन्हें नियुक्ति का इंतजार है.

उन्होंने दिप्रिंट को बताया, ‘भोपाल जाकर लगभग दो लाख रुपए खर्च करके बीएड किया हूं. इसके बाद क्षेत्र के आसपास लगभग सभी ब्लॉक में आवेदन करने में भी करीब हजारों खर्च हो गए. लगभग डेढ़ साल हो गए हैं, पता नहीं कब नियुक्ति मिलेगी.’


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आखिर मामला है क्या?

शिक्षा के अधिकार, 2009 के मुताबिक शिक्षक बनने के लिए समुचित शैक्षणिक योग्यता के साथ राज्यों और केंद्र द्वारा शिक्षकों के लिए पात्रता परीक्षा का प्रावधान है. जबकि बिहार में परीक्षा के बाद बहाली मेरिट लिस्ट और ज़रूरत के आधार पर होती है.

वर्तमान में पटना के गर्दनीबाग में शिक्षकों का जो धरना चल रहा है, वो सातवें चरण के शिक्षक नियोजन की मांग को लेकर है. शिक्षा विभाग की ओर से लगातार टीईटी पास अभ्यर्थियों को नियोजन की तिथि घोषित करने का आश्वासन दिया जा रहा था. इसके बावजूद अभी तक नियोजन शुरू नहीं हुआ है.

बिहार में पहले चरण की शिक्षक भर्ती साल 2006 में हुई थी और आखिरी यानी छठे चरण की भर्ती साल 2019 में हुई थी. जिसके लिए 94 हजार पदों के लिये शिक्षक भर्ती निकाली गई थी. फरवरी 2022 में सिर्फ 42 हजार पदों पर भर्ती की प्रक्रिया पूरी की गई है. ऐसे में छात्र सातवें चरण की बहाली के इंतजार में हैं.


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तिरंगा लिए शिक्षक अभ्यार्थियों को मिली लाठियां

22 अगस्त 2022 में सातवें चरण की नियुक्ति की मांग को लेकर पटना के डाक बंगला चौराहे पर अभ्यार्थियों ने हंगामा किया था. विरोध प्रदर्शन करने वालों में सीटीईटी, बीटीईटी पास अभ्यार्थी शामिल थे. पुलिस ने हंगामा कर रहे प्रदर्शनकारियों के ऊपर जमकर लाठियां बरसायीं.

अनिसूर रहमान भी उस भीड़ में शामिल थे. जो हाथ में तिरंगा लेकर प्रदर्शन कर रहे थे. जिन्हें अमानवीय तरीके से मारा गया था. जिसका वीडियो भी सोशल मीडिया पर खूब वायरल हुआ था.

शिक्षक आंदोलन में शामिल छात्र संघ के नेता अमित चौधरी ने बताया, ‘अनिसूर रहमान आज भी दर्द से कराह रहा है. एडीएम पटना के लाठी से वो घायल हुआ था. कार्रवाई के नाम पर एडीएम का सिर्फ तबादला किया गया. कुछ मिला तो सिर्फ बेइंतहा दर्द. बिहार सरकार ने नौकरी और कार्रवाई दोनों का भरोसा दिया था. कैसे कोई युवा भरोसा करेगा इस नई सरकार पर.’

‘जब भी शिक्षक अभ्यर्थी अपने अधिकार के लिए सड़क पर निकलते हैं, उन्हें सरकार की तरफ से न्याय की जगह लाठी डंडा मिलता है. सरकार चाहे कोई भी हो, बेरोजगार युवाओं के प्रति संवेदना किसी में भी नहीं दिखती. आप ही बताइए खुद को ‘मरा हुआ लाश’ बता रहे इस नौजवान के साथ अपराधियों जैसा व्यवहार क्यों हुआ?’


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बेरोजगारी के खिलाफ हल्ला बोल यात्रा

बिहार में 29 दिनों से बेरोजगारी के खिलाफ हल्ला बोल यात्रा चल रही है. यह यात्रा महात्मा गांधी की कर्मभूमि चंपारण से 16 अगस्त को शुरू हुई थी. यह यात्रा बिहार के सभी जिलों से होते हुए 25 सितंबर को युवा सम्मेलन के रूप में पटना में समापन होगा.

‘युवा हल्ला बोल’ के संस्थापक अनुपम सुपौल में हल्ला बोल यात्रा के दौरान बताते हैं, ‘बिहार की सियासत लचीली है. चुनाव कोई जीतता है, सरकार कोई बनाता है. ये आम है. लेकिन एक चीज स्थिर है. शिक्षक अभ्यर्थियों की हालत.’

‘जिस राज्य में शिक्षकों के सबसे ज्यादा पद रिक्त हैं, वहां बहाली का हर कदम बिना धरना प्रदर्शन आंदोलन के आगे क्यों नहीं बढ़ता? आखिर सरकार हम चुनते किस काम के लिए हैं. जब भी शिक्षक अभ्यर्थी अपने अधिकार के लिए सड़क पर निकलते हैं, उन्हें सरकार की तरफ से न्याय की जगह लाठी डंडा मिलता है.’

बिहार के सुपौल जिला में हल्ला बोल यात्रा के दौरान अनुपम | फोटो: विशेष प्रबंध

पिछले साल यानी 2021 में यूनेस्को द्वारा जारी स्टेट ऑफ एजुकेशन रिपोर्ट के मुताबिक भारत के कई राज्यों में 10 से 15 प्रतिशत स्कूल एक शिक्षक के बलबूते काम कर रहे हैं.

टीईटी प्रारंभिक शिक्षक संघ बिहार के प्रदेश संयोजक राजू सिंह ने बताया कि रेलवे बैंक और अन्य सेक्टर में नौकरियां कम होने की वजह से युवाओं का एक बड़ा हुजूम बीएड की तरफ रुख कर रहा है.

उन्होंने कहा, ‘साथ ही बिहार जैसे राज्य में प्राइवेट सेक्टर का नामोनिशान नहीं है. इस सबके अलावा नीतीश सरकार भी शिक्षा पर उतना ध्यान नहीं दे रही है. इसलिए बिहार में शिक्षक बनने को लेकर इतना संघर्ष है.’


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बच्चों का भविष्य और जीवनशाला से उम्मीद

कोसी तटबंध के भीतर बसे गांव, कोसी नदी के साथ सरकारी योजनाओं का भी दंश झेल रहे हैं.

सुपौल जिले के पिपड़ा खुर्द, गोनवा, गोपालपुर और सीमरहा गांव और मधुबनी जिला का सोनबरसा और मैरचा गांव कोसी तटबंध के भीतर स्थित हैं. 13 सितंबर यानी मंगलवार के दिन पूरे छह गांवों में सिर्फ चार सरकारी स्कूल खुले हुए थे. कोई कोसी नदी में आए पानी की वजह से बंद था. तो कोई स्कूल सिर्फ कागजों पर जिंदा था. तीन स्कूल कोसी में कट चुका था. जहां के शिक्षक स्कूल के लिए नई जगह की तलाश कर रहे हैं.

सुपौल जिला के सीमरहा गांव में आंगनबाड़ी केंद्र में चल रहे सरकारी स्कूल में लगभग 14-15 छात्र और एक शिक्षिका थी. स्कूल में पढ़ा रहीं शिक्षिका आशा देवी बताती हैं, ‘इस इलाके का स्कूल कब बाढ़ में डूब जाए पता नहीं. इसलिए इस क्षेत्र के अधिकतर स्कूल टीना, बांस या टाट के बने होते हैं. मैं सुपौल मुख्य शहर में रहती हूं. मुझे यहां आने में लगभग एक घंटा लगता है. यूं समझिए मजबूरी ही है कि यहां आकर नौकरी करनी पड़ती है.’

उन्होंने बताया, ‘स्कूल में 100 से ज्यादा बच्चों का नाम है. कोसी में पानी ज्यादा होने की वजह से माध्यमिक भोजन नहीं आ रहा है. भोजन आने लगेगा तो विद्यार्थियों की संख्या बढ़ जाएगी लेकिन खाना खाने के बाद सारे के सारे घर चले जाते हैं.’

सुपौल-मधुबनी सीमा पर स्थित मधुबनी जिला के सोनबरसा गांव स्थित एक स्कूल | फोटो: विशेष प्रबंध

सुपौल-मधुबनी सीमा पर स्थित मधुबनी जिला के सोनबरसा गांव के एक स्कूल में जब दिप्रिंट पहुंचा तो वहां लगभग 70-80 छात्र पढ़ाई कर रहे थे और शिक्षकों की संख्या सिर्फ दो थी.

सोनबरसा मध्य विद्यालय के शिक्षक शीतल मंडल ने बताया, ‘दो-तीन शिक्षक और होते तो पढ़ाई और बढ़िया से होती. स्कूल तक पहुंचने वाली सड़क की भी सुधार की जरूरत है. कुछ साल पहले जो बाढ़ में खराब हो गई थी. बरसात में बहुत दिक्कत होती है.’

कोसी तटबंध के इस इलाके में जहां सरकार की तमाम योजनाएं छात्रों को नहीं पढ़ा पा रही हैं. वहां कोसी नवनिर्माण मंच के द्वारा इस इलाके में आठ ट्रेनिंग सेंटर चलाए जा रहे हैं. जिसे ‘जीवनशाला’ कहा जाता है. जीवनशाला में पढ़ाई के साथ-साथ लोगों को उनके अधिकारों को लेकर जागरूक बनाने की कोशिश भी होती है.

कोसी नवनिर्माण मंच के द्वारा चलाया जा रहा ट्रेनिंग सेंटर

कोसी नवनिर्माण मंच के अध्यक्ष महेंद्र यादव बताते हैं, ‘कोसी तटबंध के बीच सरकारी सुविधाएं उपलब्ध नहीं है. सबसे ज्यादा समस्या शिक्षा और स्वास्थ्य की है. इसको देखते हुए तटबंध के भीतर बसें लोगों की मदद से ही जीवनशालाओं को संचालित कर रहे हैं. शिक्षक भी आस पड़ोस या फिर गांव के ही होते हैं.’

(राहुल कुमार गौरव स्वतंत्र पत्रकार हैं)

(कृष्ण मुरारी द्वारा संपादित)


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