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Friday, 22 November, 2024
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‘घटिया उपकरण की कोई मरम्मत नहीं’- मोदी सरकार के ‘भारतीय खरीदें’ सिद्धांत ने वैज्ञानिकों को किया परेशान

वैज्ञानिक उपकरणों के सटीक और गुणवत्ता के लिहाज से हाई क्वालिटी के होने की जरूरत पर बल देते हुए भारतीय वैज्ञानिक और शोधकर्ता इनकी खरीद प्रक्रिया को आसान बनाने के लिए कह रहे हैं.

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नई दिल्ली: ‘भारतीय बनो, भारतीय खरीदो’ का सिद्धांत पहली बार 2017 में उस समय सामने आया, जब भाजपा के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार ने तीन साल पूरे किए थे. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने स्थानीय उत्पादों की जोरदार तरीके से वकालत की और 2020 में कोविड प्रतिबंधों के चलते काफी जोश के साथ इस पहल का स्वागत किया गया.

लेकिन इन पांच सालों में भारत में बने समान को खरीदने या इन्हें विदेश से हासिल करने में होने वाली कागजी कार्रवाई के बाद भारतीय वैज्ञानिक काफी परेशान नजर आ रहे हैं.

उनका दावा है कि सरकारी ई-मार्केटप्लेस (जीईएम) में गुणवत्ता नियंत्रण की कमी है. और वहीं दूसरी तरफ वैज्ञानिक उपकरणों के लिए सटीकता की जरूरत होती है. इसके अलावा प्रोपराइटर आइटम खरीदने के लिए भी कागजी कार्रवाई में काफी समय लग जाता है. इन सभी कारणों के चलते खरीद मानदंडों को आसान बनाए जाने की जरूरत है.

2017 में पहली बार जारी एक आदेश के मुताबिक, सभी सार्वजनिक रूप से फंडिड अनुसंधान और पेशंट केयर संस्थानों को उपकरण या जरूरत का सामान खरीदते समय ‘मेड-इन-इंडिया’ उत्पादों को वरीयता देनी होगी. इसलिए शोधकर्ताओं को सबसे पहले जीईएम पर उन वस्तुओं की उपलब्धता की जांच करनी होती है.

अगर ये उत्पाद उपलब्ध हैं, तो इन्हें भारतीय निर्माता से ही खरीदना होगा. अगर उत्पाद वहां उपलब्ध नहीं हैं तो ‘ग्लोबल टेंडर इंक्वायरी (जीटीई)’ नामक एक प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है. इसकी शुरुआत शोधकर्ता को अपने स्तर पर कागजी कार्रवाई और प्रपत्रों से करनी होती है. उसके बाद इसे अनुसंधान संस्थान द्वारा लाइन मंत्रालय को भेजा जाता है, जिसमें उस मंत्रालय के सचिव को सहमति देने का अधिकार है.

मौजूदा व्यवस्था में कैबिनेट सचिव के स्तर पर विदेशी खरीद की मंजूरी की प्रारंभिक प्रक्रिया में ढील दी गई है, लेकिन शोधकर्ताओं का कहना है कि देरी अब भी जारी है.

इस साल की शुरुआत में स्वास्थ्य मंत्रालय ने उन वस्तुओं की एक सूची जारी की जिन्हें जीटीई से छूट मिली हुई है. लेकिन वैज्ञानिकों का कहना है कि लिस्ट में अधिकांश नाम डायग्नोस्टिक उपकरणों के हैं. शोधकर्ताओं को नौकरशाही लालफीताशाही की दया पर छोड़ दिया गया है.


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सूची में शामिल 128 आइटम रोबोटिक सर्जरी सिस्टम से लेकर ट्रांसक्रेनियल डॉपलर तक हैं. पिछले साल, मौजूदा उपकरणों के कुछ हिस्सों के लिए एक अपवाद दिया गया था, जिनकी मरम्मत की जरूरत है. मगर प्रमुख शोध संस्थानों फैकल्टी का मानना है कि खरीद को आसान बनाने के लिए अभी भी बहुत कुछ किया जाना बाकी है.

अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) के एक शोधकर्ता ने नाम न छापने की शर्त पर दिप्रिंट को बताया कि ‘भारत उच्च-स्तरीय शोध उपकरण नहीं बनाता है’

शोधकर्ता ने कहा, ‘इनके लिए छूट लेना बेकार की कवायद है. इस लिहाज से ये IISc और IIT द्वारा केवल पूर्व छात्रों के अनुदान से स्वास्थ्य अनुसंधान संस्थान स्थापित करने का प्रयास है.‘

शोधकर्ता ने बताया, ‘एम्स में हम डेल या एचपी के डेस्कटॉप भी नहीं खरीद सकते… अज्ञात (भारतीय) कंपनियां उभर कर आई हैं जो घटिया डेस्कटॉप, माइक्रोस्कोप बनाती हैं और उन्हें सरकार को औने-पौने दामों पर बेचती हैं… इनमें से आधे तो इंस्टाल करते समय भी काम नहीं करते हैं. इन सभी को घटिया सामान के साथ बदला जा रहा है. इससे काम प्रभावित होता है, अनुसंधान प्रभावित होता है और पेशेंट केयर पर भी खासा असर पड़ता है.’

शोधकर्ता बताते हैं, ‘यहां तक कि अनुसंधान अनुदान के जरिए खरीद करने के लिए भी जीईएम के रास्ते जाना पड़ता है जिसमें ‘मेड-इन-इंडिया’ और ‘सबसे कम बोली लगाने वाले’ क्लॉज होते हैं.’

‘फ्लो-साइटोमीटर, सेल सॉर्टर आदि जैसे गुणवत्ता अनुसंधान उपकरण तक नहीं खरीद सकते हैं. मैं उपकरण खरीदने के लिए काफी समय से लगा हुआ हूं. मैं थक चुका हूं और हार मान चुका हूं. इस सबसे काफी निराश हूं.’

दिप्रिंट ने टिप्पणी के लिए ईमेल के जरिए जीईएम से बात करने की कोशिश की, लेकिन इस रिपोर्ट के प्रकाशित होने तक कोई प्रतिक्रिया नहीं मिली. वित्त मंत्रालय के व्यय विभाग को एक ई-मेल, जो GeM के तहत लेनदेन की निगरानी करता है, ने अभी तक कोई टिप्पणी नहीं की है.

प्रतिक्रिया मिलने पर इस लेख को अपडेट किया जाएगा.

‘गुणवत्ता की कमी’

दिप्रिंट ने जिन कई शोधकर्ताओं से बात की, उन्होंने ‘मेक-इन-इंडिया (MII)’ उत्पादों में गुणवत्ता और ड्यूरेबिलिटी की कमी का आरोप लगाया.

आईआईटी के एक वरिष्ठ वैज्ञानिक ने माइक्रोटोम खरीदने के अपने अनुभव को हमारे साथ साझा किया. माइक्रोटोम एक मशीन है जिसका इस्तेमाल ऊतकों के पतले हिस्से को माइक्रोस्कोप से जांचने के लिए किया जाता है. उन्होंने बताया कि वह और उनके सहयोगी जीईएम खरीद के क्लॉज से किस तरह से हताश हुए.

वैज्ञानिक ने कहा, ‘कुछ साल पहले मुझे 18 लाख रुपये की कीमत वाले विदेश में बने माइक्रोटोम्स मिले. यह ‘मेक-इन-इंडिया’ खरीद प्रतिबंध लागू होने से पहले की बात थी. मैंने GeM पर जो खरीदा वह आधी कीमत पर मिला लेकिन उनकी सर्विस काफी खराब है. मैं इन्हें ठीक करने के लिए कई बार लिख चुका हूं, लेकिन कोई जवाब नहीं मिलता.’

वह सवाल करते हैं, ‘मेरे लिए अब बस एकमात्र सहारा अदालत जाना है. सवाल यह है कि क्या मुझे ऐसा करना चाहिए या फिर मुझे अपने शोध पर ध्यान देना चाहिए.’

GeM पर उपलब्ध कई उत्पादों को ‘जुगाड़’ आइटम बताते हुए वैज्ञानिक ने कहा कि इन उपकरणों के टुकड़ों को सरलता के साथ एक साथ रखा गया है, लेकिन इनकी परफॉर्मेंस कैसी रहेगी इसके बारे में कोई आश्वासन नहीं है. उन्होंने कहा ‘वे बेहतर परफॉर्मेंस का दावा करते हैं, जिसे पूरा करने में विफल रहते हैं, लेकिन इसकी कौन जांच कर रहा है?’

उन्होंने बताया, ‘जीटीई रिक्वेस्ट साल में चार बार शिक्षा मंत्रालय को भेजी जाती है. अगर आप किसी कारण से एक को भी भेजना भूल गए, तो आप फिर से तीन महीने के लिए फंस जाते हैं.’

ट्विटर पर GeM_Support हैंडल को टैग करते हुए डीबीटी-वेलकम फेलो और यूरोपियन मॉलिक्यूलर बायोलॉजी ऑर्गनाइजेशन ग्लोबल इन्वेस्टिगेटर, इंस्टीट्यूट ऑफ लाइफ साइंसेज, भुवनेश्वर में वैज्ञानिक डॉ संतोष चौहान ने ‘सटीक और गुणवत्ता के लिहाज से हाई क्वालिटी के उपकरण के महत्व की ओर इशारा किया है.

उन्होंने लिखा, ’0.1 प्रतिशत की त्रुटि भी कभी-कभी वैज्ञानिक डेटा के लिए एक खतरा बन जाती है. इस तरह के उपकरण दुनिया की कुछ जानी-मानी कंपनियों ने कई सालों के शोध के बाद बनाए हैं. एमआईआई क्लॉज के कारण ये कंपनियां बिड में प्रतिस्पर्धा नहीं कर सकती हैं (भले ही वे बोली लगाएं, वे हार जाएंगी).’

उन्होंने कहा, ‘कुछ स्थानीय कंपनियां हैं जिन्होंने कुछ बहुत ही कम गुणवत्ता वाले सस्ते उत्पादों के साथ ऐसे उपकरणों को असेंबल किया और उन पर मेड इन इंडिया (वे 50 प्रतिशत एमआईआई योग्य हैं) का ठप्पा लगा दिया. और वह बोली लगा रहे हैं.’

एम्स के शोधकर्ता की तरह चौहान भी इस तरह के उपकरणों की निम्न गुणवत्ता का जिक्र करते हैं और बताते हैं कि कैसे सस्ते उत्पादों की खरीद पर उनके मेहनत से इकट्ठा किए गए फंड का नुकसान हो रहा है.

उन्होंने लिखा, ‘हमें इन निम्न-गुणवत्ता वाले उपकरणों को किसी ऐसे व्यक्ति से खरीदना होता है, जो उदाहरण के लिए मुझसे 2,000 किमी दूर राजस्थान में बैठा है. लगभग ऐसे सभी मामलों में खराबी को ठीक करने के लिए कोई नहीं आता है. वे यह भी जानते हैं कि कुछ ईमेल लिखने के अलावा हम ज्यादा कुछ नहीं कर पाएंगे.’

‘अभी भी मंजूरी का इंतजार’

चंडीगढ़ के एक संस्थान के एक शोधकर्ता ने कहा कि उनकी प्रयोगशाला ने इस साल अप्रैल में एक विदेशी कंपनी से प्रोप्राइटरी रीजेंट खरीदने के लिए कागजी कार्रवाई शुरू कर दी थी. करंट रेट कॉन्ट्रैक्ट जून 2022 में खत्म होने वाला था. शोधकर्ता ने कहा, ‘हम अभी भी मंजूरी मिलने का इंतजार कर रहे हैं.’

वह बताते हैं, ‘यह सिर्फ एक रसायन के लिए है. ऐसे कई उदाहरण हैं, जब लोग किसी विशेष उपकरण को खरीदने के लिए दो साल से इंतजार कर रहे हैं. GeM के साथ मुख्य समस्या यह है कि वहां कोई गुणवत्ता नियंत्रण नहीं है.’

उन्होंने पूछा, ‘उदाहरण के लिए बायोसेफ्टी कैबिनेटस् को ही ले लें. इनका हम काम करने के लिए इस्तेमाल करते हैं ताकि कण बाहर न निकलें. GeM पर ऐसे कुछ सौ कैबिनेट्स उपलब्ध हैं लेकिन उनमें से कोई भी NSF-प्रमाणित नहीं है. NSF प्रमाणन का एक वैश्विक मानक है लेकिन हमें केवल वही खरीदना है जो GeM पर उपलब्ध है. अगर कोई दुर्घटना होती है तो जिम्मेदारी कौन लेगा?’

(इस ख़बर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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