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Sunday, 12 May, 2024
होमदेशस्कूल और नेट के अभाव में 1,000 साल पुरानी बांग्ला कला को फिर से गढ़ने में लगा है ये 12 साल का बच्चा

स्कूल और नेट के अभाव में 1,000 साल पुरानी बांग्ला कला को फिर से गढ़ने में लगा है ये 12 साल का बच्चा

बांकुरा गांव के एक टेराकोटा कारीगर का बेटा नील कुंभकर रंगों और तपाई हुई मिट्टी को मिलाकर मूर्तियां बनाना चाहता है लेकिन उसके बाबा कहते हैं कि ये उनकी पारंपरिक शैली से अलग है.

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पंचमुरा (बांकुरा): टेराकोटा मिट्टी के एक ब्लॉक के साथ अपने काम में रमे बांकुरा के 12 वर्षीय नील कुंभकर का ध्यान बिल्कुल अडिग है और उसकी उंगलियां काफी निपुणता के साथ चलती है. जैसे-जैसे वह मिट्टी को ढालना जारी रखता है, कला का एक नया प्रारूप आकार ले लेता है. यह एक घोड़ा है, जिसकी बड़ी-सी लंबी गर्दन स्थानीय रूप से उत्पादित टेराकोटा मॉडल की एक खास विशिष्टता होती है.

पंचमुरा गांव में रहने वाले एक टेराकोटा कारीगर के बेटे, नील ने भी इसी शिल्प कला के इर्द-गिर्द अपने लिए भी रास्ता खोज लिया है. वह किसी दिन इस जिले की इस अनूठी पारंपरिक कला को आधुनिक रूप- इसे और भी रंगीन बनाकर- देने का सपना भी देखता है लेकिन यह योजना किसी और दिन/समय के लिए है.

फिलहाल तो इस शिल्प कला में अपनी गहरी रुचि होने के बावजूद वह अपने दिन का अधिकांश समय काफी परिश्रम की मांग करने वाले इस पेचीदा मॉडल को तैयार करते हुए बिताने के लिए मजबूर है.

वह कक्षा 8 का छात्र है और देश भर में अपने अन्य सहपाठियों की तरह, उसे भी ऑनलाइन कक्षाओं में भाग लेना चाहिए था, असाइनमेंट पर काम करना चाहिए था और अपने होमवर्क पर ध्यान लगाना चाहिए था.

परंतु, बंगाल के अंदरूनी इलाके में स्थित पंचमुरा में इंटरनेट की हालत काफी खस्ता है और स्थानीय सरकारी स्कूलों के पास कक्षाएं न लगने के कारण कोई संसाधन नहीं हैं जो वो छात्रों को दे पाएं.

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नील ने दिप्रिंट को बताया कि इसी कारण महामारी शुरू होने के बाद से 15 महीनों में उसने केवल एक बार अपनी कक्षा में भाग लिया है.

उसके माता-पिता उसके लिए एक स्थानीय कोचिंग क्लास में पढाई की व्यवस्था करने में कामयाब रहे हैं और नील महीने में एक या दो बार हीं अपने दोस्तों से मिल पाता है. उसका ज्यादातर समय उसके घर में पड़ी हुई ढेर सारी मिट्टी को नए- नए आकार देने में बीतता है.


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एक पारंपरिक कला  

नील, जो बांकुरा के ओबीसी-दलित समुदाय की कुंभकर (कुम्हार) जाति से ताल्लुक रखते हैं, उस छोटे से समुदाय की आकांक्षाओं के साथ-साथ उसकी कुंठा का भी प्रतिनिधित्व करते हैं, जो कोविड महामारी और उसके बाद लगे लॉकडाउन के द्वारा उत्पन्न कठिनाइयों के बीच अपने आप को बचाये रखने के साथ-साथ अपने 1,000 साल से भी पुराने विशिष्ट कला प्रारूप को संरक्षित करने के लिए भी संघर्ष कर रहा है.

टेराकोटा एक राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रशंसित मृदुकला का प्रारूप है, जहां कच्ची मिट्टियों को आकार देने के लिए अस्थायी भट्टियों में रखा जाता है. मनचाहे रंग की तीव्रता के आधार पर उन्हें एक निश्चित तापमान पर और एक निश्चित अवधि के लिए रखा जाना होता है. अंतिम रूप से प्राप्त उत्पाद एक अनूठे लाल-भूरे रंग का होता है. बांकुरा के लंबी गर्दन वाले टेराकोटा घोड़ों की पहुंच विदेशों तक भी है.

इसके मॉडलों की मूल्य सीमा काफी विस्तृत होती है. जहां एक छोटा टेराकोटा घोड़ा आपको 150-200 रुपये में भी मिल जायेगा, वहीं बड़े वाले की घोड़े की कीमत 3,000-5,000 रुपये तक भी हो सकती है.

बांकुरा में एक औसत टेराकोटा कारीगर अनुमानतः 8,000-10,000 रुपये प्रति माह कमा लेता है.


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‘मैं वैसे काम नहीं करना चाहता जैसे मेरे पिता करते हैं’

नील द्वारा गढ़ी गई टेराकोटा की आकृतियां एक अलहदा संसार से ली गई दिखती हैं और अक्सर इनमें उसकी जीवंत कल्पना का स्पर्श देखने को मिलता है.

यहां मां दुर्गा और भगवान शिव की मूर्तियों के साथ घोड़ों और लंबे शरीर वाली बिल्लियों की मूर्तियां भी हैं. इसमें एक मंदिर है और साथ-साथ भारत की चांद पर भेजे गए खोजी यान- चंद्रयान की एक आकृति भी है.

Neel crafts a long-neck terracotta horse | Manisha Mondal | ThePrint
लंबे गर्दन वाले टेराकोटा घोड़ों को बनाता नील | मनीषा मोंडल/दिप्रिंट

नील ने पहले-पहल अपनी कला को मूर्त रूप देने का काम कोई चार साल पहले किया था और वह काफी अपरंपरागत सा था. उसने मां दुर्गा और भगवान शिव और उनके चार बच्चों की आकृतियां बनाईं और मूर्तियों को पानी के रंगों (वाटर कलर) से रंग दिया.

नील को लगा कि मां दुर्गा द्वारा मारे गए पौराणिक राक्षस महिषासुर की इस फ्रेम में कोई जरूरत नहीं थी, क्योंकि वह ‘अच्छाई को नहीं दिखाता’ है. उसके बाद के वर्षों में उसने विश्वकर्मा और काली सहित विभिन्न देवताओं की भी नए रूप में कल्पना की है.

उन्होंने दिप्रिंट को बताया, ‘मुझे ऐसे मॉडल बनाना बहुत पसंद है. पिता जी और दादा जी चीजों को एक जैसा बनाते हैं, जो नीरस सा लगता है.’ भविष्य की योजनाओं के बारे में पूछे जाने पर उसने कहा, ‘मैं इसे एकदम अलग तरीके से करना चाहता हूं.’

उसने कहा कि वह पहले से लोकप्रिय लंबी गर्दन वाले टेराकोटा घोड़ों से परे जाना चाहता है और बांकुरा के एक छोटे से शहर बिष्णुपुर के विरासत स्थलों के मॉडल बनाना चाहता है. इस दिशा में पहले कदम के रूप में, उसने एक सदियों पुरानी तोप का एक मॉडल भी बनाया है जिसे ‘दलमादल कमान ‘ (कैनन) के नाम से जाना जाता है.

नील ने कहा, ‘मैं यह करना तो चाहता हूं लेकिन मेरे पिता (बाबा) की तरह नहीं. मैं उन्हें रंग देना चाहता हूं. मेरे पिता मुझे भठ्ठी का उपयोग करने और मिट्टी को तपाने की अनुमति नहीं देते हैं. लेकिन वह मेरे लिए ऐसा करते हैं. फिर भी मैं रंगों और तपाई हुई मिट्टी को मिलाकर मॉडल बनाना चाहता हूं. यह काफी अच्छा लगेगा. लेकिन बाबा (पिता) कहते हैं कि यह हमारी पारंपरिक शैली नहीं है.’

एक तरफ जहां उसके माता-पिता चाहते हैं कि वह गांव में रह कर टेराकोटा मॉडल बनाने का पारिवारिक व्यवसाय जारी रखे, वहीं नील आगे की पढ़ाई करना चाहता है. दिप्रिंट से बात करते हुए उसने कहा कि वह इस कला को और आगे बढ़ाना चाहता है और ‘कोलकाता कॉलेज’ में पढ़ना चाहता है.

उच्च शिक्षा हासिल करने के सपने संजोये नील जैसे छात्रों को लॉकडाउन के कारण लगे झटके की भरपाई करने में काफी समय लगेगा.

जब दिप्रिंट ने स्थानीय विधायक अरूप चक्रवर्ती से दूरदराज के गांवों में छात्रों की पढ़ाई में आ रही रुकावट के बारे में पूछा तो उन्होंने कहा कि वह इस बारे में पता लगाएंगे.

(इस खबर को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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