रायपुर: राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग द्वारा छ्त्तीसगढ़ सरकार को 13 मानवाधिकार कार्यकर्ताओं, कानूनविद और शिक्षाविदों को एक एक लाख रुपए का मुआवजा दिए जाने के आदेश के एक महीने की देरी के बाद मिल गया है. मुआवजा मिलने पर लाभार्थियों ने आश्चर्य व्यक्त किया है. आयोग के आदेश के बाद इन कार्यकर्ताओं ने राज्य सरकार से बस्तर के पूर्व आईजी एसआरपी कल्लूरी के खिलाफ कार्यवाई की मांग की है.
चार साल पहले अक्टूबर 2016 में 6 मानवाधिकार कार्यकर्ता जिसमें दिल्ली विश्वद्यालय की प्रोफेसर नंदिनी सुंदर शामिल थीं और तेलंगाना के 7 कानूनविदों के एक फैक्ट फाइंडिंग दल के खिलाफ आर्म्स एक्ट, आईपीसी की विभिन्न धाराओं और यूएपीए के तहत बस्तर के सुकमा में छत्तीसगढ़ पुलिस द्वारा एफआईआर दर्ज किया था. मामले में सुप्रीम कोर्ट ने बाद में 15 नवंबर को उनकी गिरफ्तारी पर रोक लगाते हुए तत्कालीन भाजपा सरकार को आदेश दिया कि इसकी जांच एसआईटी बनाकर की जाए, लेकिन 2018 में नई सरकार बनने तक मामले की कोई जांच नही हुई.
इसी बीच मामला दिल्ली के पटपड़गंज में रहनेवाले डॉक्टर वी सुरेश की शिकायत पर राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग पहुंच गया. आयोग ने 2 फरवरी 2020 को लिए गए अपने निर्णय के फलस्वरूप छत्तीसगढ़ सरकार को ‘मानसिक प्रताड़ना और मानवाधिकारों के उल्लंघन के लिए’ पीड़ितों को एक-एक लाख रूपये का मुआवजा देने का आदेश दिया.
आयोग द्वारा यह आदेश 1 जुलाई 2020 को जारी किया गया लेकिन पीड़ितों का कहना है उनको यह आदेश 5 अगस्त को मिला.
दिप्रिंट से बात करते हुए इन मानवाधिकार कार्यकर्ताओं ने बताया कि उन्हें एक दिन पहले तक इसकी कोई जानकारी नही थी. ना तो आयोग से कोई विधिवत जानकारी मिली और न ही राज्य सरकार द्वारा ही कोई सूचना दी गई. मानवाधिकार कार्यकर्ता नंदिनी सुंदर ने दिप्रिंट से कहा, ‘मुझे यह जानकारी पीपल्स यूनियन फ़ॉर सिविल लिबर्टीज (पीयूसीएल) द्वारा 5 अगस्त को दी गयी है. आयोग के निर्णय का हम स्वागत करते हैं, लेकिन राज्य सरकार से अभी कोई जानकारी नही मिली है.’
नंदिनी सुंदर ने आगे कहा, ‘खुशी इस बात की है आयोग ने तत्कालीन बस्तर के आईजी एसआरपी कल्लूरी और स्थानीय पुलिस के द्वारा आदिवासियों की मदद करने वाले कार्यकर्ताओं को प्रताड़ित करने का संज्ञान लिया. अब हमारी मांग है कि राज्य सरकार कल्लूरी के खिलाफ कार्यवाई करे.’
सुंदर कहती हैं उनके और उनके साथियों के खिलाफ भाजपा सरकार द्वारा चलाए गए नक्सल विरोधी अभियान सलवा जुडूम के दौरान करीब 500 आदिवासियों के घर जलाए जाने और महिलाओं का साथ हुए बलात्कार के मामलों में मदद करने के कारण झूठा केस दर्ज किया गया था. सुंदर ने कहा, ‘पुलिस ने उनके खिलाफ केस दर्ज करने के साथ उनको पत्थर मारकर भागने की धमकी और उनका पुतला भी दहन किया था जिसका संज्ञान आयोग ने लिया है.’ उन्होंने दिप्रिंट से बातचीत में यह भी कहा कि मुआवज़े की मिली राशि का इस्तेमाल वो आदिवासियों की मदद के लिए करेंगी.
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क्या कहना है आयोग का
आयोग ने अपने निर्णय में कहा है, ‘हमारा मानना है कि पुलिस द्वारा इन लोगों के खिलाफ ‘झूठी एफआईआर’ दर्ज किए जाने के कारण वे निश्चित ही ‘मानसिक रूप से परेशान और प्रताड़ित’ हुए हैं, और उनके मानवाधिकारों का उल्लंघन हुआ है.’
आयोग ने यह भी कहा, ‘छत्तीसगढ़ सरकार को इसका मुआवजा देना चाहिए. अतः मुख्य सचिव के जरिये छत्तीसगढ़ सरकार से हम सिफारिश करते हैं और निर्देश देते हैं कि प्रोफेसर नंदिनी सुंदर, अर्चना प्रसाद, विनीत तिवारी, संजय पराते, मंजू और मंगला राम कर्मा, जिनके मानवाधिकारों का छत्तीसगढ़ पुलिस ने उल्लंघन किया है, उनको एक-एक लाख रूपये का मुआवजा दिया जाए.’
आयोग ने उसी आदेश में तेलंगाना के अधिवक्ताओं की एक फैक्ट फाइंडिंग टीम के 7 सदस्यों के लिए भी मुआवजा देने का निर्देश दिया है. बस्तर में अदिवासियों की मदद के लिए अधिवक्ताओं के इस दल के खिलाफ भी पुलिस ने एफ आईआर दर्ज कर गिरफ्तार का लिया था. सात माह सुकमा जेल में बिताने के बाद सभी को आरोपों से बरी कर दिया गया था.
आदेश में आयोग ने कहा, ‘कमीशन की राय में इन सातों सदस्यों के खिलाफ झूठी एफआईआर दर्ज की गई थी. छत्तीसगढ़ सरकार राज्य के मुख्य सचिव के द्वारा तेलंगाना के फैक्ट फाइंडिंग टीम के प्रत्येक सदस्य, सीएच प्रभाकर, बी दुर्गा प्रसाद, बी रबिन्द्रनाथ, डी प्रभाकर, आर लक्षमैया, मोहम्मद नज़र, और के राजेन्द्र प्रसाद को भी एक-एक लाख का मुआवजा दे.’
बता दें कि सरकार को आदेश मिलने के छह हफ्ते के भीतर ही इसपर अमल करना है लेकिन एक महीना बीत चुका है.
क्या था पूरा मामला
सुंदर के साथी और एक अन्य पीड़ित संजय पराते ने दिप्रिंट को बताया, ‘5 नवम्बर 2016 को छत्तीसगढ़ पुलिस ने हम लोगों के खिलाफ सुकमा जिले के नामा गांव के शामनाथ बघेल नामक व्यक्ति की हत्या के आरोप में एफआईआर दर्ज किया था. मामला शामनाथ की विधवा विमला बघेल की शिकायत पर दर्ज किया गया था लेकिन उसने हम में से किसी का भी नाम नहीं लिया था.
बाद में 15 नवम्बर को सुप्रीम कोर्ट ने गिरफ़्तारी पर रोक लगा दी थी. चूंकि छत्तीसगढ़ सरकार ने मामले की जांच करने या इसके खात्मे के लिए कोई कदम नहीं उठाया, हमने 2018 में सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की थी. सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर छत्तीसगढ़ सरकार ने इस मामले की जांच की और हत्या के मामले में हमारा कोई हाथ न पाए जाने पर फरवरी 2019 में अपना आरोप वापस लेते हुए एफआईआर से हमारा नाम हटा लिया था.’
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पीड़ितों का आरोप
अब पीड़ित मानवाधिकार कार्यकर्ताओं का कहना है कि उनके खिलाफ झूठे मुकदमे दर्ज करने के जिम्मेदार पुलिस अधिकारियों के खिलाफ कानूनी कार्यवाई हो. पराते कहते हैं, ‘हम यह भी आशा करते हैं कि झूठे आरोप पत्र दाखिल करने वाले जिम्मेदार पुलिस अधिकारियों, ख़ास तौर से तत्कालीन बस्तर आईजी कल्लूरी के खिलाफ जांच की जायेगी और उन पर मुकदमा चलाया जाएगा.’
सुंदर कहतीं हैं, ‘कल्लूरी के नेतृत्व में चलाये गए सलवा जुडूम अभियान और उनके मातहत काम कर रहे एसपीओ (विशेष पुलिस अधिकारियों) को वर्ष 2011 में ताड़मेटला, तिमापुरम और मोरपल्ली गांवों में आगजनी करने और स्वामी अग्निवेश पर जानलेवा हमले का सीबीआई द्वारा दोषी पाए जाने के तुरंत बाद ही हम लोगों के खिलाफ ये झूठे आरोप मढ़े गए थे. लेकिन 2018 में न्ययालय द्वारा हमे आरोपों से बरी कर दिए जाने के बाद भी दोषी पुलिस अधिकारियों के खिलाफ कोई कार्यवाई नह हुई.’