नई दिल्ली: अफगानिस्तान में तालिबान के सत्ता पर काबिज होने के बाद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की विचारधारा से जुड़ी कई पत्र—पत्रिकाओं ने तथाकथित प्रगतिशील बुद्धिजीवियों को उनकी चुप्पी व भारत में तालिबान का समर्थन करने वालों पर तीखे तेवरों के साथ निशाना साधा है. उन्होंने इस्लामी कट्टरवाद से उभर रही चुनौतियों पर फिर एक बार बल दिया है और ऐसा लगता है कि आने वाले दिनों मे इस मुद्दे पर भारत में एक नई बहस फिर खड़ी हो सकती है.
दिल्ली से निकलने वाले साप्ताहिक पांचजन्य के ताजा अंक में संपादक हितेश शंकर ने ‘इस्लामी उन्माद की पदचाप’ शीर्षक से अपने लंबे संपादकीय में लिखा है, ‘भारत मे शांति, स्थिरता, विकास के पक्षधर होने का दम भरने वाली प्रगतिशील ब्रिगेड के मुंह पर भी इस्लामी तमाचा पड़ा है. वे प्रगतिशीलता और मानवाधिकारों की बात भूल गए. वे शिक्षा की बात, स्त्री अधिकारों की बात भूल गए. वे हजारों-लाखों लोगों के पलायन के प्रति आंखें मूंदे बैठे हैं.
वह इस बात से चिंतित नहीं है कि ताजे घटनाक्रम से अफगानिस्तान के समाज जीवन को क्या धक्का पहुंचेगा या अफगानियों के मानवाधिकारों का क्या होगा. वे अपनी चोट छिपाते, गाल सहलाते हर तालिबानियों द्वारा की गई प्रेस कांफ्रेंस पर ताली बजा रहे हैं. जाहिर है उन्माद के इस भारी तूफान में भारत के प्रगतिशील बराबर के भागीदार हैं. भारत में सोशल मीडिया पर भी बहुत सारे ऐसे समूह उजागर हुए हैं जहां मुस्लिम हुजूम उमड़ रहा है. इन समूहों पर यह बात खुलकर रखी जा रही है कि तालिबान अपनी स्वतंत्रता के लिए किए जाने वाली कोशिशों और जद्दोजहद की मिसाल हैं. आश्चर्य की बात है कि इस तरह की चर्चाओं में बहुत सारे मुस्लिम और कथित प्रगतिशील पत्रकार, बुद्धिजीवी भी दिख रहे हैं.’
कन्नड़ में प्रकाशित समाचार—पत्र होसा दिगन्त ने अपने संपादकीय में लिखा है, ‘धर्मनिरपेक्ष दल और माओवादी तालिबान की इस्लामी क्रूरता पर सवाल नहीं उठाते हैं. तालिबान के पास अफगानिस्तान की राजनीतिक सत्ता होने के कारण आतंकवादियों का महिमामंडन करने का भी प्रयास किया जा रहा है. कुछ अखबारों ने तालिबान के उग्रवादियों को तालिबान के ‘योद्धाओं’ के रूप में चित्रित किया है… हैरानी की बात यह है कि किसी ने भी इस्लामिक आतंकवादियों द्वारा की गई बर्बरता और अत्याचारों के बारे में बात करने की जहमत नहीं उठाई.
‘यह एक आतंकी संगठन को वैध बनाने की साजिश का हिस्सा है. दूर-दराज के इजराइल के बारे में बात करने वाले भारतीय बुद्धिजीवी अफगानिस्तान में नजदीकी तालिबान के बारे में न तो निंदा करते हैं और न ही बात करते हैं. तालिबान को छोड़कर हर चीज की बात करने वालों की चुप्पी हैरान करने वाली है. हमें इस चुप्पी के बारे में जानने की जरूरत है.’
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मलयायलम में प्रकाशित समाचार—पत्र जन्मभूमि ने अपने संपादकीय में चीन और पाकिस्तान को निशाने पर लेते हुए लिखा है, ‘तालिबान के नए उभार के पीछे पाकिस्तान और चीन की ताकतें हैं. चीन और पाकिस्तान दोनों सोच रहे होंगे कि वे इस आतंकी संगठन का इस्तेमाल भारत को निशाना बनाने के लिए कर सकते हैं. भारतीय नेतृत्व पूरी तरह से घटनाक्रम से अवगत है, और यह सुनिश्चित है कि वे इस घटनाक्रम में मूकदर्शक नहीं बने रहेंगे.’
हिंदी दैनिक स्वदेश ने ‘तालिबान का काला सच’ शीर्षक के साथ अपने संपदकीय में लिखा है, ‘अफगानों पर तालिबानी कहर के बावजूद चीन और पाकिस्तान उसके इस कदम को सराह रहे हैं और इसे गुलामी से बाहर निकलना कह रहे हैं. वहीं भारत में भी कुछ लोग हैं जो तालिबान के कहर को सही ठहरा रहे हैं. भारत में तालिबान और अफगानिस्तान को लेकर एक बहस छिड़ी हुई है. अपने आप को प्रगतिशील बुद्धिजीवी कहने वाले इस मसले पर बहुत कुछ बोलने की स्थिति में नहीं है क्योंकि वे तालिबान के पक्ष में बोलते हैं तो आतंकवाद को बढ़ावा देना होगा क्योंकि अफगानिस्तान पर तालिबानी कब्जा होते ही खूंखार आतंकवादियों को रिहा कर दिया गया है और जो अब न सिर्फ अफगानिस्तान बल्कि समूची दुनिया के देशों में आतंकवाद को बढ़ावा देंगे. यही कारण है कि तालिबान के पक्ष में बोलने वाले फिलहाल कम ही लोग हैं.’
स्वदेश के समूह संपादक अतुल तारे ने अपने संपादकीय में यह भी लिखा है, ‘अफगानिस्तान पर कब्जा करने के बाद तालिबान ने भले ही कई वादे किए थे जिसमें महिलाओं पर अत्याचार ना करने और अफगानियों को माफी देने की बात कही गई थी. किंतु कब्जे के कुछ ही दिनों बाद जो तस्वीरें वायरल हो रही हैं उसमें तालिबान का काला चेहरा स्पष्ट दिखाई दे रहा है. हैवानियत भरी इन तस्वीरों में सरेआम तालिबान के गुंडे महिलाओं पर अत्याचार कर रहे हैं. घरों में घुसकर लोगों के साथ मारपीट की जा रही है, उन्हें रस्सी से बांधकर दौड़ाया जा रहा है. तालिबान के इस काले सच से पूरी दुनिया दहली हुई है.’
(लेखक दिल्ली स्थित थिंक टैंक विचार विनिमय केंद्र में शोध निदेशक हैं. उन्होंने आरएसएस पर दो पुस्तकें लिखी हैं.)