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Saturday, 21 December, 2024
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नई किताब का दावा- ‘SC की नियुक्तियों में धार्मिक आधार पर तो संतुलन है पर लैंगिक और जातिगत आधार पर हीं’

'कोर्ट ऑन ट्रायल' के लेखकों द्वारा किए गए अध्ययन में 1950 में इसके निर्माण के बाद से 2018 तक सुप्रीम कोर्ट में नियुक्त प्रत्येक न्यायाधीश के बारे में कॉलेजियम प्रणाली से पहले और बाद में अदालत में प्रतिनिधित्व पर विचार किया.

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नई दिल्ली: एक नए अध्ययन के अनुसार, सुप्रीम कोर्ट में नियुक्तियों ने भारत की धार्मिक विविधता का प्रतिनिधित्व किया है, लेकिन शीर्ष अदालत में जातिगत और लैंगिक विविधता बहुत कम है, जिसके निष्कर्ष कोर्ट ऑन ट्रायल नामक पुस्तक में प्रस्तुत किए गए हैं.

यह पुस्तक भारत के सर्वोच्च न्यायालय का डेटा-ड्रिवेन विवरण प्रस्तुत करती है, और सुधार के लिए एक व्यावहारिक एजेंडा प्रस्तावित करती है. इसे बेंगलुरु में नेशनल लॉ स्कूल ऑफ इंडिया यूनिवर्सिटी में कानून की एसोसिएट प्रोफेसर अपर्णा चंद्रा, सिएटल यूनिवर्सिटी स्कूल ऑफ लॉ में कानून की प्रोफेसर और एसोसिएट डीन सीतल कलंट्री और यूनिवर्सिटी ऑफ शिकागो लॉ स्कूल में कानून के प्रोफेसर विलियम एच.जे. हबर्ड ने लिखा है.

अपने अध्ययन के लिए, लेखकों ने 1950 में इसके निर्माण के बाद से मार्च 2018 तक सुप्रीम कोर्ट में नियुक्त प्रत्येक जस्टिस की जीवनी संबंधी विशेषताओं को इकट्ठा किया. उन्होंने नियुक्ति के समय उम्र, बार के सदस्य के रूप में वर्षों की संख्या, लिंग, जाति और नियुक्ति से पहले की गई नौकरी जैसी विशेषताओं की जांच की.

पुस्तक 1993 में न्यायपालिका द्वारा न्यायाधीशों की नियुक्ति की कॉलेजियम प्रणाली लागू होने से पहले और बाद में सर्वोच्च न्यायालय के भीतर प्रतिनिधित्व को देखने के लिए अपने निष्कर्षों को विभाजित करती है.

कॉलेजियम प्रणाली से पहले, भारत में अदालतों के लिए कार्यकारी के नेतृत्व वाली नियुक्ति प्रणाली थी, जिसमें न्यायाधीशों को चुनने में सरकार की प्रधानता थी, और न्यायपालिका की इस प्रक्रिया में केवल परामर्शदात्री भूमिका थी.

पुस्तक में कहा गया है कि कार्यकारी नेतृत्व वाली प्रणाली और कॉलेजियम प्रणाली दोनों के तहत शीर्ष अदालत में “बहुत कम जातिगत विविधता” रही है.

इसमें कहा गया है कि 2018 तक, कार्यपालिका द्वारा नियुक्त केवल तीन न्यायाधीश और कॉलेजियम द्वारा नियुक्त केवल एक न्यायाधीश भारत की अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति से थे.

यह स्वीकार करता है कि कॉलेजियम ने 2019 (जस्टिस भूषण आर. गवई) और 2021 (जस्टिस सी.टी. रविकुमार) में अनुसूचित जाति से दो सदस्यों को एससी में नियुक्त किया.

पुस्तक में यह भी कहा गया है कि कॉलेजियम द्वारा महिला न्यायाधीशों की नियुक्ति “समान रूप से समस्याग्रस्त” थी.

इसमें कहा गया है, “मई 2019 तक कॉलेजियम द्वारा अदालत में नियुक्त किए गए 116 न्यायाधीशों में से केवल सात महिलाएं थीं, और 2019 के बाद से केवल तीन नई महिला न्यायाधीशों (जस्टिस हेमा कोहली, बी.वी. नागरत्ना और बेला त्रिवेदी) की नियुक्ति की गई है. आज तक, सुप्रीम कोर्ट में सेवा देने वाले (या वर्तमान में सेवारत) 266 न्यायाधीशों में से केवल 11 महिलाएं हैं. अदालत में बैठे सभी न्यायाधीशों में से केवल 4 प्रतिशत महिलाएं हैं,”


 

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‘धार्मिक विविधता का प्रतिनिधित्व करता है’

पुस्तक के लेखकों के अनुसार, कार्यकारी नेतृत्व वाली प्रणाली और कॉलेजियम द्वारा नियुक्त न्यायाधीशों की कुल संख्या “बड़े पैमाने पर भारत की धार्मिक विविधता के अनुपात में” है.

इसमें कहा गया, “धार्मिक विविधता के संदर्भ में, कार्यपालिका द्वारा नियुक्त न्यायाधीशों में से 79 प्रतिशत हिंदू थे और कॉलेजियम द्वारा नियुक्त न्यायाधीशों में से 84 प्रतिशत हिंदू थे. पिछली जनगणना के अनुसार, लगभग 80 प्रतिशत भारतीय हिंदू हैं. इस प्रकार, सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश अपनी स्थापना के बाद से भारत की धार्मिक विविधता के निष्पक्ष और आनुपातिक प्रतिनिधि रहे हैं,”

लैंगिक और जातिगत विविधता की कमी पर प्रकाश डालते हुए, यह कहा गया है: “ऐसा प्रतीत होता है कि कॉलेजियम की विविधता की धारणा है जो केवल क्षेत्रीय और धार्मिक विविधता पर केंद्रित है. हालांकि, कॉलेजियम ने राजनीतिक शाखाओं, अर्थात् लैंगिक और जातिगत विविधता द्वारा समर्थित विविधता की नई धारणाओं के साथ तालमेल नहीं रखा है.

यह पिछले शोध पर आधारित है कि उच्च न्यायालय भी भारत की जातिगत और लैंगिक विविधता को प्रतिबिंबित नहीं करते हैं.

इसमें कहा गया है कि कॉलेजियम उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीशों के समूह से सुप्रीम कोर्ट के लिए न्यायाधीशों का चयन करता है. इसके बाद यह दावा किया गया है कि यदि कॉलेजियम मुख्य रूप से उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीशों के पूल से जजों की नियुक्ति होने का इरादा रखता है, तो उसे शीर्ष अदालत में लैंगिक विविधता की कमी को दूर करने के लिए उच्च दर पर महिलाओं को उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीशों के पद पर नियुक्त करना चाहिए.

पुस्तक में आगे सुझाव दिया गया है कि जब तक कॉलेजियम प्रणाली लागू है, तब तक कॉलेजियम को शीर्ष अदालत को “विविधता की व्यापक धारणा को प्रतिबिंबित करने” के लिए नियुक्तियों की प्रक्रिया में बदलाव पर विचार करना चाहिए.

इसमें कहा गया है, “कॉलेजियम के सदस्य अधिक महिलाओं और जातिगत अल्पसंख्यकों को उच्च न्यायालयों में नियुक्त कर सकते हैं ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि वे अंततः उच्च न्यायालयों के मुख्य न्यायाधीश बनने के लिए पर्याप्त वरिष्ठ होंगे और इसलिए, सुप्रीम कोर्ट में नियुक्ति के लिए मजबूत उम्मीदवार होंगे.”

(संपादनः शिव पाण्डेय)
(इस खबर को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


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