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Sunday, 22 December, 2024
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नेहरू का हिंदू कोड बिल vs मोदी का UCC- वही स्क्रिप्ट, वही ड्रामा, खाली चेहरे अलग है

नेहरू एक महान राष्ट्र बनाने की कोशिश कर रहे थे, जिसमें सभी नागरिकों को समान अधिकार हों, लेकिन संसद उन्हें रोक रही थी.

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जवाहरलाल नेहरू लगातार अलग-थलग महसूस कर रहे थे. फरवरी 1950 के एक पत्र में उन्होंने सरदार पटेल को बताया कि उनके साथी सांसद “दिल-ओ-दिमाग” से उनसे “और भी दूर” होते जा रहे हैं.

उस समय, नेहरू का दिमाग और दिल सामाजिक सुधार पर केंद्रित था – जैसा कि हिंदू कोड बिल द्वारा दिखाया गया था, जिसने स्वतंत्र भारत में हिंदुओं के लिए आधुनिक, ‘धर्मनिरपेक्ष’ व्यक्तिगत कानून स्थापित करने की मांग की थी.

वह एक महान राष्ट्र बनाने की कोशिश कर रहे थे, जिसमें नागरिकों को समान अधिकार हों, लेकिन संसद उन्हें रोक रही थी.

विधेयक और इसके प्रस्तावित सुधारों का विरोध करने वालों में राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद और पटेल जैसे कांग्रेस के दिग्गजों से लेकर पार्टी के भीतर और बाहर हिंदू कट्टरपंथी, एमए अय्यंगर से लेकर श्यामा प्रसाद मुखर्जी तक शामिल थे.

यहां तक कि महिला सांसदों को भी इस पर आपत्ति थी. सुचेता कृपलानी के मुताबिक, यह एक “रोकने वाला और आधा-अधूरा उपाय” था जो महिलाओं के अधिकारों की रक्षा के लिए पर्याप्त नहीं था. सरोजिनी नायडू ने बिल वापस न लेने पर भूख हड़ताल पर जाने की धमकी दी.

तलाक के अधिकार से लेकर संपत्ति के अधिकार तक, हिंदू कोड बिल सब कुछ बदलने पर विचार कर रहा था. यह समाज को अंदर से बदल के रख देने वाला था और एक असुविधाजनक सवाल कि – भारत किस प्रकार का आधुनिक राष्ट्र बनना चाहता है – पर विचार करने वाला था.

बहस नारीवाद बनाम पितृसत्ता, या परंपरा बनाम आधुनिकता के बारे में नहीं थी. इसके बजाय, लड़ाई महिलाओं के अधिकारों बनाम संस्कृति की एक संकीर्ण बहस में फंस गई थी.

कई कट्टर हिंदू कट्टरपंथियों ने कहा कि यह विधेयक हिंदू समाज के ताने-बाने को नष्ट कर देगा. उन्होंने अपने प्रतिरोध को एक धर्मयुद्ध के रूप में प्रस्तुत किया जो धर्मवीरों द्वारा लड़ा जा रहा था.

इसके अलावा, कई लोगों ने इस बात पर नाराजगी जताई कि यह सुधार भारत के मुस्लिम समुदाय को दरकिनार कर देगा, जिससे उनके निजी कानून अछूते रह जाएंगे.

संसदीय बहस के दौरान हिंदू महासभा नेता एनसी चटर्जी से पूछा,“यदि आपके पास ऐसा करने का साहस और ज्ञान है, तो एक समान नागरिक संहिता क्यों नहीं बनाई जाए? फिर आप सांप्रदायिक कानून के साथ आगे क्यों बढ़ रहे हैं?”

अम्बेडकर भी तनाव में आ गये. उन्होंने कहा कि कोई भी भारतीय सरकार “पागल” ही होगी जो समान नागरिक संहिता लागू करके “मुसलमानों को भड़काने” का जोखिम उठाएगी.

सात दशक से अधिक समय के बाद, राष्ट्र एक बार फिर खुद को परंपरा और महिलाओं के अधिकारों के उसी चिरपरिचित चौराहे पर खड़ा पाता है, क्योंकि नरेंद्र मोदी सरकार समान नागरिक संहिता (यूसीसी) पर जोर दे रही है.

हालांकि, इस बार, रूढ़िवादी मुस्लिम नेता और आदिवासी समुदाय खुद को संस्कृति के संरक्षक के रूप में पेश कर रहे हैं.

यूसीसी के इर्द-गिर्द आज की बातचीत हिंदू कोड बिल के इर्द-गिर्द होने वाली बहस के समान लग सकती है. स्क्रिप्ट वही है, ऐक्टिंग वही है, ड्रामा वही है. लेकिन दोनों चर्चाएं अलग-अलग भारत की हैं.

शिकागो विश्वविद्यालय में प्रोफेसर और इतिहासकार रोचोना मजूमदार कहते हैं, ”शुरुआत से ही, हिंदू कोड बिल गहरे तौर पर राजनीतिक था. हर एक कानून में एक झगड़ा शामिल होता था: कल्पना कीजिए, एक नए-नए बने गणतंत्र में, जहां अभी संविधान बनाया ही गया है, राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री एक मुद्दे को लेकर आमने-सामने हैं.”

नेहरू बनाम अम्बेडकर

हिंदू कोड बिल की कहानी आधुनिक और प्रगतिशील भारत की वकालत करने वाले दो सबसे बड़े नेताओं नेहरू और अंबेडकर द्वारा आधुनिक, प्रगतिशील भारत के साझा दृष्टिकोण से शुरू होती है. लेकिन कुछ साल बाद, कानून मंत्री के रूप में अंबेडकर के इस्तीफे के साथ ही यह संबंध टूट गया. और नेहरू ने इसे चुपचाप स्वीकार कर लिया.

यह उस प्रधानमंत्री से बहुत दूर की बात थी, जिसने अंबेडकर को विधेयक का मसौदा तैयार करने की जिम्मेदारी सौंपी थी और पटेल को लिखे अपने पत्र में इसके विरोध पर दुख जताया था.

इसके मूल में, हिंदू कोड बिल में धार्मिक कानूनों को एक धर्मनिरपेक्ष नागरिक संहिता के साथ बदलने की मांग की गई थी. इसमें बहुविवाह को गैरकानूनी घोषित करने का प्रस्ताव दिया गया, महिलाओं को संपत्ति और तलाक का अधिकार दिया गया, विरासत कानूनों में संशोधन किया गया और अंतर्जातीय विवाह पर प्रावधान पेश किए गए.

इसे प्रगति, सुधार और समानता के वादे के साथ पेश किया गया था – लेकिन इसका तीव्र विरोध हुआ.

इतिहासकार रेबा सोम, दिप्रिंट से बात करते हुए कहती हैं, हालांकि कोड को आसानी से पारित करने के लिए अंततः चार अलग-अलग हिस्सों में तोड़ दिया गया, लेकिन पहले तो “यह भी असंभव साबित हुआ”.

इस विधेयक पर नेहरू और अम्बेडकर का दृष्टिकोण अलग-अलग था. अम्बेडकर का मानना था कि यह नेहरू और संसद का कर्तव्य है कि विधेयक को उसके पूर्ण, निर्विवाद रूप में पारित किया जाए. लेकिन नेहरू को लगा कि उनके हाथ उनके साथी सांसदों ने बांध दिए हैं.

पटेल को लिखे उनके पत्र के महीनों बाद दिसंबर 1950 में नेहरू ने अंबेडकर को पत्र लिखकर कहा था, “आप जानते हैं कि मैं संसद के माध्यम से हिंदू कोड बिल लाने के लिए कितना उत्सुक हूं और मुझे इसे लाने के लिए जो भी मेरी ताकत है वह सब कुछ करना चाहिए.”

उनके बीच तीखी निजी नोकझोंक हुई, अम्बेडकर ने नेहरू से बार-बार विधेयक पारित करने के लिए संसदीय सत्र बुलाने के लिए कहा और नेहरू ने बार-बार इस बात को स्पष्ट किया कि क्यों उनके लिए ऐसा करना संभव नहीं होगा.

समय के साथ-साथ धीरे-धीरे नेहरू का भी आत्मविश्वास जाता रहा – दिसंबर 1949 में, उन्होंने संसद को बताया कि यह विधेयक अत्यंत राष्ट्रीय महत्व का है. लेकिन 1951 तक, उनके पास इसे आगे बढ़ाने के लिए पर्याप्त समर्थन नहीं था.

सामाजिक सुधार उनके राष्ट्र-निर्माण प्रोजेक्ट के केंद्र में था, लेकिन इससे भारत की आजादी के बाद पहले दशक में अन्य प्राथमिकताओं के लिए आवश्यक नाजुक राजनीतिक सहमति के खत्म होने का भी खतरा था.

फरवरी 1951 तक, अम्बेडकर निष्क्रियता से नाराज थे. उन्होंने नेहरू को एक तीखा पत्र लिखा और विधेयक के विरोध पर प्रभावी ढंग से अंकुश नहीं लगाने के लिए उनकी आलोचना की.

उन्होंने लिखा कि अगर नेहरू के आश्वासन के बावजूद विधेयक पारित नहीं हुआ तो यह सरकार के लिए “हास्यास्पद, कायरतापूर्ण और अपमानजनक” होगा. उसी पत्र में, अम्बेडकर ने चर्चा के लिए रखे गए कुछ संशोधनों को “मूर्खतापूर्ण” बताया.

महीनों बाद उनकी हताशा चरम पर पहुंच गई. सितंबर 1951 में, बिल में देरी के कारण, अम्बेडकर ने कानून मंत्री के पद से इस्तीफा दे दिया. उन्होंने विधेयक पर अपने काम को संविधान पर अपने काम से ज्यादा नहीं तो महत्वपूर्ण माना था.

अंबेडकर ने अपने त्याग पत्र में कटुतापूर्वक लिखा, “चार खंड या क्लॉज़ पारित होने के बाद इसे मार कर दफना दिया गया, न इस पर कोई रोया और न ही इसके बारे में अब कोई चर्चा होती है. मुझे यह ऐसा लगता है कि प्रधानमंत्री, हालांकि समझदार हैं, लेकिन उनमें हिंदू कोड बिल को पारित कराने के लिए आवश्यक गंभीरता और दृढ़ संकल्प नहीं हैं.”

सोम कहते हैं, ”नेहरू ने पूरे भारत के लिए समान नागरिक संहिता को जरूरी माना था. इसे संविधान के निदेशक सिद्धांतों में अलग रख दिया गया था क्योंकि उस समय यह अवास्तविक था. सरकार अब इसे लागू करने के लिए उत्सुक है.”

लेकिन सोम बताते हैं कि अब भी, सरकार को इस बात पर विचार करना होगा कि क्या देश के विविध समुदाय इस तरह के बदलाव के लिए तैयार हैं: “नेहरू ने मुख्यमंत्रियों को लिखे जाने वाले अपने नियमित पत्रों में से एक में कहा था कि एकरूपता की कमी को प्राथमिकता दी जानी चाहिए, अगर दुर्भावना के कारण पारित किए गए किसी कानून को लागू कर पाना मुश्किल हो तो.”

Graphics by Prajna Ghosh | ThePrint
ग्राफिक्सः प्रज्ञा घोष । दिप्रिंट

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‘नेहरू ने कभी हार नहीं मानी’

सोम कहती हैं, इस्तीफा देने तक अंबेडकर उम्मीद खो चुके थे और उन्होंने नेहरू को दोषी ठहराया.

वह कहती हैं, ”वह टूट चुके थे और उन्होंने नेहरू पर संसद में कार्रवाई को बाधित किए जाने की अनुमति देने में कमज़ोर होने का आरोप लगाया, जिससे अनावश्यक रूप से समय बर्बाद हुआ.”

लेकिन सोम कहती हैं कि यह विश्लेषण करना महत्वपूर्ण है कि अंबेडकर द्वारा नेहरू पर लगाया गया आरोप वास्तव में कितना वैध था.

वह कहती हैं, ”यह सच है कि नेहरू दबाव के सामने झुक गए. हालांकि, नेहरू को इस बात का श्रेय दिया जाना चाहिए कि उन्होंने कभी हार नहीं मानी. उन्होंने समय का इंतजार किया और अंततः, कई खामियों के बावजूद, 1955 और 1961 के बीच विवाह, उत्तराधिकार, गोद लेने व देखभाल करने और दहेज प्रथा पर निषेध पर चार अधिनियम पारित किए गए.

अंबेडकरवादी विद्वान अशोक गोपाल ने चेतावनी दी है कि अंबेडकर की हताशा को इस रूप में नहीं देखा जाना चाहिए कि उन्होंने न्यायिक मजबूती का समर्थन किया है.

गोपाल कहते हैं कि जबकि अंबेडकर ने सैद्धांतिक रूप से स्वीकार किया कि संसद न्यायिक समीक्षा जैसी संवैधानिक जांच के अधीन, धर्म और रीति-रिवाज के मामलों पर कानून बना सकती है, उनका यह भी मानना था कि “सार्वजनिक भावनाओं पर विचार किए बिना सार्वजनिक नीति और कानून नहीं बनाए जा सकते”

गोपाल कहते हैं, “उनके अनुसार, कानून और जनता की राय हमेशा एक साथ काम नहीं करती – और जनता की राय को कानून के मजबूत हाथ से दबाया नहीं जा सकता. यदि जनता की राय प्रस्तावित उपाय के प्रति अनुकूल नहीं थी, तो बुद्ध द्वारा बताई गई विधि का उपयोग करते हुए उनके साथ संवाद करना चाहिए और उन्हें मनाने की कोशिश करनी चाहिए. अम्बेडकर ने शायद आज यूसीसी के बारे में भी यही बात कही होती.”

हिंदू ‘योद्धाओं’, RSS से एक लड़ाई

नेहरू और अम्बेडकर द्वारा संसद में हिंदू कोड बिल पारित करने की कोशिश करने से पहले ही, हिंदू समूहों के नेतृत्व में एक प्रतिरोध ‘आंदोलन’ पहले से ही शुरू हो चुका था.

मार्च 1949 में, जब संविधान सभा – जिसे संविधान का मसौदा तैयार करने के लिए स्थापित किया गया था – विधेयक पर विचार-विमर्श कर रही थी, प्रस्तावित कानून को चुनौती देने के लिए अखिल भारतीय हिंदू कोड विधेयक विरोधी समिति नामक एक समूह का गठन किया गया था.

अपनी पुस्तक इंडिया आफ्टर गांधी में, इतिहासकार रामचंद्र गुहा लिखते हैं कि कैसे धार्मिक हस्तियों और “रूढ़िवादी वकीलों” ने देश भर में सैकड़ों बैठकें बुलाईं और खुद को “धर्मयुद्ध करने वाले धर्मवीर” के रूप में प्रस्तुत किया.

उन्होंने तर्क दिया कि सरकार को हिंदू कानूनों में हस्तक्षेप करने का कोई अधिकार नहीं है, जो “धर्म शास्त्रों” पर आधारित थे.

गुहा कहते हैं, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) ने “आंदोलन के पीछे अपना पूरा जोर लगाया”. 11 दिसंबर 1949 को, “इसने दिल्ली के राम लीला मैदान में एक सार्वजनिक बैठक आयोजित की, जहां एक के बाद एक वक्ताओं ने इस विधेयक की निंदा की. एक ने इसे ‘हिंदू समाज पर परमाणु बम’ कहा.

दिप्रिंट से बात करते हुए, राजनीतिक इस्लाम के विद्वान हिलाल अहमद ने रेखांकित किया कि आरएसएस उस समय “अप्रासंगिक” था और “बड़े पैमाने पर गांधी के हत्यारों के रूप में देखा जाता था”.

लेकिन वे हंगामा खड़ा करने में कामयाब रहे.

12 दिसंबर 1949 को, जब विधेयक पर विचार-विमर्श फिर से शुरू हुआ, तो लगभग 500 लोगों ने संसद भवन के बाहर विरोध प्रदर्शन किया. उन्होंने गांधी टोपी और पुतले जलाए और “हिंदू कोड बिल मुर्दाबाद” और “नेहरू सरकार मुर्दाबाद” जैसे नारे लगाए.

गुहा लिखते हैं कि हिंदू कोड बिल की तुलना रोलेट एक्ट से की गई, जो असहमति को दबाने के लिए लाया गया एक क्रूर औपनिवेशिक कानून था. आरएसएस के सदस्यों का मानना था कि जिस तरह रोलेट एक्ट के खिलाफ विरोध प्रदर्शन के कारण अंग्रेजों का पतन हुआ, उसी तरह हिंदू कोड बिल विरोधी लड़ाई भी नेहरू सरकार के पतन का कारण बनेगी.

व्यापक रूप से इस्तेमाल किया जाने वाला एक नारा था: “अगर हिंदू कोड बिल कानून बन गया तो भाई-बहन एक-दूसरे से शादी कर सकेंगे!”

यूसीसी के खिलाफ ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड (एआईएमपीएलबी) की मौजूदा दलीलों और 1948-49 में हिंदू कोड बिल पर संघ परिवार के विरोध के बीच बहुत कम अंतर है.

“भीतर से सुधार”, “धार्मिक, आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप” – आज की बहस 70 साल से भी पहले के तर्कों जैसी ही नज़र आती है. केवल नाटक के किरदार बदल गए हैं.

उदाहरण के लिए, हिंदू महासभा ने तर्क दिया, “चूंकि हिंदू महासभा धार्मिक मामलों में विधायी हस्तक्षेप के खिलाफ है, इसलिए हिंदू कोड बिल जैसे उपायों का विरोध किया जाएगा.”

1951 में, भाजपा के पूर्ववर्ती, नवोदित जनसंघ ने कहा कि सामाजिक सुधार “ऊपर से थोपे गए” के रूप में नहीं आना चाहिए.

इस बीच, राम राज्य परिषद ने तर्क दिया कि सरकार “हिंदू कोड बिल को अपनाकर हिंदुओं के धार्मिक मामलों में सीधा हस्तक्षेप” कर रही है.

इसी तरह, बंगाल प्रांतीय हिंदू महासभा ने विधेयक को “हिंदू धर्म के सिद्धांतों के विपरीत” बताया.

यूसीसी के बारे में बयानबाजी

जैसे ही हिंदू पर्सनल लॉ रिफॉर्म के प्रति संघ परिवार का प्रतिरोध अंतिम छोर पर पहुंच गया, उन्होंने रणनीतिक रूप से अपना ध्यान दूसरी ओर केंद्रित कर दिया. उन्होंने समान नागरिक संहिता की वकालत करना शुरू कर दिया, खासकर मुस्लिम पर्सनल लॉ में सुधार के उद्देश्य से.

वे जानते थे कि यह कुछ ऐसा है जिसे करने से नेहरू को नफरत थी क्योंकि वह विभाजन के तुरंत बाद स्थित को खराब नहीं करना चाहते थे.

अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में इतिहास के प्रोफेसर मोहम्मद सज्जाद कहते हैं, “उन्होंने सबसे पहले हिंदू पर्सनल लॉ में सुधार को रोकने की कोशिश की. जब उन्हें यह मुश्किल लगा, तो उन्होंने मुस्लिम पर्सनल लॉ में सुधार का सुझाव दिया,”

वह बताते हैं कि कांग्रेस के भीतर और बाहर हिंदू कोड बिल के “हिंदू दक्षिणपंथी” विरोधियों को पता था कि नेहरू सरकार मुस्लिम पर्सनल लॉ में सुधारों पर जोर देने को तैयार नहीं होगी.

वे कहते हैं, ”वे समान नागरिक संहिता को आगे बढ़ाने के प्रति ईमानदार नहीं थे, उन्होंने इसे केवल हिंदू पर्सनल लॉ सुधार में बाधा के रूप में देखा.”

प्रसिद्ध न्यायविद् और भारत के पूर्व विधि आयोग के सदस्य ताहिर महमूद कहते हैं, ”पुरानी आदतें मुश्किल से जाती हैं,” इस तथ्य की ओर इशारा करते हुए कहते हैं कि 1940 और 50 के दशक में बहुसंख्यक समुदाय द्वारा हिंदू कोड बिल का विरोध उतना ही जोरदार था जितना कि अल्पसंख्यकों द्वारा आज यूसीसी का.


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भीतर से प्रतिरोध

सिर्फ सीमांत समूह ही नहीं थे जो हिंदू कोड बिल के खिलाफ हथियार उठा रहे थे – संविधान सभा के अंदर, असहाय नेहरू और अंबेडकर ने वर्ग और जाति के आधार पर दरार के साथ-साथ हिंदुओं की मूलभूत चिंताओं को भी सुना.

राजेंद्र प्रसाद ने इसे एक वर्ग से भी जुड़ा मामला बताया. उन्होंने तर्क दिया कि उनकी पत्नी कभी भी तलाक के प्रावधान का समर्थन नहीं करेंगी और यह केवल “अति-शिक्षित” महिलाएं हैं जो विधेयक का समर्थन कर रही हैं.

उस समय भी यह तर्क दिया गया था कि हिंदू ख़तरे में हैं. उदाहरण के लिए, बाबू रामनारायण सिंह ने कहा कि यह विधेयक “एक साजिश है… जो हिंदू समाज को विकृत करने के लिए रची जा रही है”. उन्होंने इसे “हिंदू समाज पर आक्रमण की तैयारी” भी बताया.

कुछ सदस्य ऐसे मामलों में कानून बनाने की संविधान सभा की क्षमता के बारे में सवाल उठाते हुए, चुनाव के बाद तक के लिए विधेयक को स्थगित करना चाहते थे.

महिलाओं के लिए संपत्ति के अधिकार के विचार पर विशेष प्रतिक्रिया हुई, बाबू राम रामनारायण सिंह ने दावा किया कि महिलाओं के बेहतरी के लिए लॉ (कानून) के बजाय लव (प्यार) की ज़रूरत है.

उन्होंने कहा, ”कानून उनकी मदद नहीं कर सकता. एक चीज़ जो हर किसी की और महिलाओं की भी मदद कर सकती है वह है प्यार और प्यार के अलावा और कुछ नहीं.”

उन्होंने अनुमान लगाया कि अगर बेटियों को उनके पिता की संपत्ति में हिस्सा दिया गया, तो “बहुत सारी जटिलताएं और मुकदमे हो सकते हैं और हमारे समाज में शुद्ध प्रेम का सिद्धांत खत्म हो जाएगा”.

“प्रेम” के एक अन्य प्रस्तावक एचवी कामथ थे, जिन्होंने नए कोड में बहुविवाह और बहुपतित्व दोनों के पक्ष में तर्क दिया, बशर्ते कि पति-पत्नी की सहमति हो.

उन्होंने कहा कि ऐसा ”प्यार और इंसानियत के नजरिये से” किया जाना चाहिए. जवाब में, तजामुल हुसैन ने बहुपतित्व का समर्थन करते हुए कहा कि “केवल एक अविवाहित व्यक्ति ही ऐसा कह सकता है”.

विधेयक का विरोध करते हुए, पंडित लक्ष्मी कांत मैत्रा ने दावा किया कि केवल “कुछ अति-आधुनिक व्यक्ति, जो मुखर हैं, लेकिन देश में उनका कोई वास्तविक समर्थन नहीं है” इसमें रुचि रखते थे.

उन्होंने सरकार की मंशा पर सवाल उठाते हुए यूसीसी का मुद्दा भी उठाया: “हिंदुओं, ईसाइयों, पारसियों, सिखों, जैनियों, बौद्धों, मुसलमानों पर लागू एक सार्वभौमिक नागरिक संहिता लाओ. आप मुसलमानों को छूने की हिम्मत नहीं करते, लेकिन आप जानते हैं कि हिंदू समाज आज इतनी बुरी स्थिति में है कि आप उसके साथ कुछ भी करने का साहस कर सकते हैं.

इस बीच, ग्वालियर के राम सहाय को लगता था कि यह विधेयक पुरुषों के अधिकारों के लिए बुरी खबर है. उनके विचार में, “महिलाओं को पुरुषों की तुलना अधिक अधिकार दिए गए हैं.”…[वे], इस प्रकार, उसी अन्याय का शिकार हो रहे हैं जो अब तक महिलाओं के साथ होता आया है.”

असम की रोहिणी कुमार चौधरी भी अपनी बहन-बेटियों को खुली छूट मिलने से चिंतित थीं.

उन्होंने विधानसभा में कहा, “मैं जानता हूं कि हमारे देश की कुछ महिलाएं अपने भाइयों से विरासत का एक हिस्सा छीनने के लिए बहुत उत्सुक हैं… लेकिन आप यह किसके लिए कर रहे हैं और इससे किसको फायदा होने वाला है? क्या हमारे गांवों में गरीब हिंदू तलाक के लिए चिल्ला रहे हैं? क्या वे अपने माता-पिता से संपत्ति प्राप्त करने के लिए संघर्ष कर रहे हैं? बिल्कुल नहीं.”

एक अकेली महिला आवाज़, सुचेता कृपलानी ने विधेयक के समर्थन में संविधान सभा के सामने विस्तार से बात की, और अपने सभी “भाई सदस्यों” से इसका समर्थन करने का आह्वान किया.

‘यह काफी नहीं है’

सिन्हा की डिबेटिंग पैट्रियार्की के अनुसार, हिंदू कोड बिल पर महिलाओं की प्रतिक्रियाओं को तीन व्यापक समूहों में वर्गीकृत किया जा सकता है.

पहले समूह में कुलीन वर्ग की महिलाएं शामिल थीं. अधिकांश ने विधेयक का समर्थन नहीं किया क्योंकि वे आम तौर पर उन स्थितियों में “आराम” से थीं.

दूसरी श्रेणी में वे महिलाएं शामिल थीं जो आम तौर पर “जीवन के धार्मिक तरीकों के प्रति प्रतिबद्ध” थीं और अक्सर बड़े हिंदू संगठनों से जुड़ी होती थीं.

अंत में, कुछ महिला संगठन भी थे जो मुखर रूप से विधेयक के प्रस्तावों के पक्ष में थे, हालांकि उन्हें लगा कि प्रावधान “पर्याप्त नहीं थे”.

“यह पर्याप्त नहीं है. एक बेटी जिसे उत्तराधिकारी के रूप में मान्यता दी जाती है, उसे संपत्ति विरासत में मिलती है, लेकिन उसे बेटे का आधा हिस्सा मिलता है. यह समानता के सिद्धांत का उल्लंघन करता है,” नारीवादी कार्यकर्ता और राजनयिक हंसा जीवराज मेहता ने 1947 में तर्क दिया था. उन्होंने यह भी कहा कि संहिता ने संरक्षकता के लिए मौजूदा कानून में “कोई बदलाव नहीं किया है” और गोद लेने पर पूरे चैप्टर को “समाप्त कर दिया जाना चाहिए”.

अशोक गोपाल कहते हैं कि विद्वान आज भी विधेयक में खामियां निकालते हैं.

गोपाल कहते हैं, “अम्बेडकर ने हिंदू कोड बिल को विधायिका द्वारा किया गया अब तक का सबसे बड़ा सामाजिक सुधार माना. हालांकि, उस दावे का तब से कुछ विद्वानों और निवेदिता मेनन जैसे नारीवादी लेखकों ने खंडन किया है – उनका तर्क है कि यह बिल उतना प्रगतिशील नहीं था जितना इसे बताया गया था”

उन्होंने आगे कहा, “एकरूपता के नाम पर, कानून ने कुछ समुदायों के प्रगतिशील रीति-रिवाजों को मिटा दिया. तलाक को वैध बनाने जैसे कुछ प्रावधानों ने कई सवर्णों को नाराज कर दिया, लेकिन कई सामाजिक समूहों के बीच तलाक पहले से ही एक स्वीकृत प्रथा थी. और पारिवारिक संपत्ति पर महिलाओं का अधिकार, जैसा कि विधेयक में प्रस्तावित है, केवल एक आंशिक उपाय था,”.

गौरतलब है कि मुस्लिम महिला नेताओं ने इस विधेयक की सराहना की. उन्होंने इसे एक प्रगतिशील कदम के रूप में देखा जिसने शास्त्रों की तुलना में शरीयत के साथ जुड़कर हिंदू महिलाओं की स्थिति को ऊपर उठाया.

यूपी की बेगम ऐजाज रसूल ने कहा, “मुसलमानों को इस बात पर गर्व है कि शरीयत कानून (महिलाओं को) महान अधिकार देता है. कानून का यह हिस्सा… हिंदू महिलाओं को मुस्लिम महिलाओं के बराबर खड़ा कर देगा.”

विधेयक से लेकर चार कानून तक

हिंदू कोड बिल रातोंरात तैयार नहीं किया गया था. इसमें दशकों के मसौदे, चर्चा और बहसें लगीं.

यहां तक कि 18वीं शताब्दी में हिंदू कानून को संहिताबद्ध करने के प्रयास के बाद अंग्रेजों ने भी हार मान ली और इस हाथ जलाने वाले मुद्दे को त्याग दिया.

1921 में, जब वायसराय की विधान परिषद के एक सदस्य, महामहोपाध्याय गंगानाथ झा ने हिंदू कानून के संहिताकरण की मांग रखी, तो मामला ठंडे बस्ते में डाल दिया गया – अंग्रेजों को लगा कि इसे संभालना बहुत ही मुश्किल है.

हालांकि सुधार को कुछ ज़मीनी समर्थन हासिल था, लेकिन जब यह नीतिगत स्तर पर चला गया, राजनेताओं और वकीलों के दायरे में चला गया तो इसकी गति धीमी हो गई.

उदाहरण के लिए, 1927 और 1928 में क्रमशः पुणे और दिल्ली में आयोजित अखिल भारतीय महिला सम्मेलन (एआईडब्ल्यूसी) के पहले दो सत्र महिलाओं की सहमति की उम्र बढ़ाकर 16 करने पर केंद्रित थे.

इस अवधि में, कमलादेवी चट्टोपाध्याय, इंदिरा भागवत, सुषमा सेन और रामेश्वरी नेहरू जैसी महिला नेताओं के प्रतिनिधिमंडलों ने राजनीतिक दलों से बाल विवाह को समाप्त करने वाले कानून के लिए समर्थन जुटाने के लिए याचिका दायर की.

अंततः, 1929 में शारदा अधिनियम पारित किया गया, लेकिन इतिहासकार चित्रा सिन्हा की डिबेटिंग पैट्रियार्की के अनुसार, वफादार हिंदू और मुस्लिम सांप्रदायिक समूहों के अलग-थलग होने के डर से, ब्रिटिश अधिकारी कानून को लागू करने में सख्त नहीं थे.

1930 के दशक में, जैसे ही महिलाओं को मताधिकार दिया गया, AIWC ने नए मोर्चे खोले.

उन्होंने तलाक जैसे महिलाओं की ‘कानूनी रूप से विकलांगता वाले’ के मुद्दों को देखने के लिए अपना दायरा बढ़ाया. उन्होंने 24 नवंबर, 1934 को महिला कानूनी अक्षमता दिवस के रूप में भी घोषित किया.

संपत्ति का अधिकार एक और मुद्दा था जिस पर महिला समूह दशकों से चर्चा कर रहे थे. जबकि 1937 में, हिंदू महिला संपत्ति का अधिकार अधिनियम, जिसे देशमुख अधिनियम भी कहा जाता है, पारित किया गया था, लेकिन इसमें कई खामियां थीं. उदाहरण के लिए, यदि एक हिंदू विधवा को “अपवित्र” पाया गया तो उसे संपत्ति के अधिकार से अयोग्य घोषित कर दिया जाएगा.

फिर हिंदू कोड बिल का अगला रूप आया.

1938 में, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने भारत की स्वतंत्रता के बाद के विकास की रूपरेखा तैयार करने के लिए एक योजना समिति का गठन किया.

इनमें से एक उपसमिति, जिसमें सरोजिनी नायडू और विजया लक्ष्मी पंडित जैसे नेता शामिल थे, ने महिलाओं की सामाजिक और कानूनी स्थिति की समीक्षा पर ध्यान केंद्रित किया.

इतिहासकार सिन्हा के अनुसार, योजनाबद्ध अर्थव्यवस्था में महिलाओं की भूमिका शीर्षक वाली उनकी रिपोर्ट में व्यक्तिगत कानूनों, विशेष रूप से हिंदू कानून में महिलाओं के अधिकारों पर जोर दिया गया और 1941 में न्यायविद बीएन राव के तहत हिंदू कानून समिति की नियुक्ति के लिए औपनिवेशिक सरकार को प्रेरित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई.

रूढ़िवादी और उदार विचारों के बीच चयन करने की दुविधा में फंसी इस समिति ने, जिसमें एक भी महिला सदस्य नहीं थी, लोगों की राय जानने के लिए देश भर में एक विस्तृत प्रश्नावली वितरित की और अंततः 19 जून, 1941 को अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की.

कुछ और वर्षों तक समिति राज कायम रहा.

राव समिति की रिपोर्ट और उसके द्वारा तैयार किए गए मसौदा विधेयकों के अध्ययन के बाद, सरकार ने 1944 में राव की अध्यक्षता में एक और हिंदू कोड समिति की स्थापना की. इस समिति ने 1945 में देश का दौरा किया और मसौदा विधेयक का एक संशोधित संस्करण तैयार किया – जो अब आधिकारिक तौर पर हिंदू कोड बिल है.

विशेष रूप से, 1947 की हिंदू कोड कमेटी की रिपोर्ट से पता चलता है कि 1945 में जनता की राय ने बिल के प्रति महत्वपूर्ण विरोध दिखाया था, जिसमें लगभग 66.6 प्रतिशत आबादी ने अपनी अस्वीकृति व्यक्त की थी.

1948 में, हिंदू कोड बिल को संविधान सभा की एक चयन समिति को भेजा गया था.

1950 में संसद ने कार्यभार संभाला, कई महीनों तक चले गतिरोध के कारण 1951 में अम्बेडकर को इस्तीफा देना पड़ा था.

अंततः, चार अधिनियम पारित किए गए: पहला 1955 में हिंदू विवाह अधिनियम, और फिर हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, हिंदू अल्पसंख्यक और संरक्षकता अधिनियम, और 1956 में हिंदू अडॉप्शन एंड मेंटेनेंस ऐक्ट.


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मुस्लिम को न छेड़ने का सवाल

जैसा कि ऊपर दिखाया गया है, हिंदू कोड बिल के इर्द-गिर्द चर्चा तेजी से एक सर्व-परिचित हिंदू बनाम मुस्लिम बहस में बदल गई.

लेकिन मुस्लिम पर्सनल लॉ में बदलाव की वकालत करने वाले भी जानते थे कि ऐसा निकट भविष्य में होने वाला नहीं है.

नेहरू उन मुसलमानों की चिंताओं को दूर करना चाहते थे जिन्होंने पाकिस्तान जाने के बजाय भारत में रहना पसंद किया. उनका यह भी मानना था कि धर्मनिरपेक्ष राज्य में सामाजिक सुधार का भार हिंदू बहुसंख्यकों को उठाना चाहिए.

इस्लाम के विद्वान नजमुल होदा का तर्क है कि हिंदुओं के लिए व्यक्तिगत कानून सुधारों पर बहस के दौरान मुसलमानों को एक अलग श्रेणी के रूप में कांग्रेस के व्यवहार ने अनजाने में “मुस्लिम सांप्रदायिकता” को बढ़ावा दिया और समुदाय की प्रगति में बाधा उत्पन्न की.

उनके अनुसार, शरीयत अधिनियम 1937 और मुस्लिम विवाह विघटन अधिनियम 1939, जो समुदाय के व्यक्तिगत कानूनों को नियंत्रित करते हैं, ने इस स्थिति को और खराब कर दिया है.

वह कहते हैं, “भीतर से किसी भी सुधार की बात करना एक झूठ था, एक बहाना था. मुस्लिम समुदाय मूलतः धर्म की बातों को ही लागू करने वाला है, सुधारवादी नहीं. सुधार न कभी आना था, न आएगा (सुधार का इंतज़ार मत करो, यह नहीं आएगा).”

होदा कहते हैं, वर्तमान समय में, मुस्लिम पर्सनल लॉ समुदाय की पहचान की राजनीति का एक उपकरण बन गया है.

हालांकि, कुछ इतिहासकारों का तर्क है कि मुसलमानों को कुछ सुधारों से बाहर रखने का निर्णय नए स्वतंत्र भारत में सांप्रदायिक और राजनीतिक स्थिरता को बनाए रखने के लिए महत्वपूर्ण था, विशेष रूप से विभाजन द्वारा छोड़े गए कड़वे स्वाद को देखते हुए.

इंडिया टुडे हिंदी पत्रिका के पूर्व मैनेजिंग एडिटर दिलीप मंडल कहते हैं,“संविधान का निर्माण केवल कानून बनाने के बारे में नहीं था. यह एक राष्ट्र के निर्माण के बारे में था – मुसलमानों को नागरिक कानूनों में अधिकार देना स्थिरता अनुबंध को बनाए रखने के बारे में था.”

वह यह भी बताते हैं कि जहां मुसलमानों के पास संदर्भित करने के लिए शरीयत अधिनियम 1937 था, वहीं हिंदू समाज के धार्मिक रुख “अराजक” थे.

लेकिन मुस्लिम पर्सनल लॉ में सुधार का सवाल संसद में अनसुना रह गया है, जिसने आज एक विवाद पैदा कर दिया है.

इस बीच, पर्सनल लॉ से संबंधित प्रश्नों को संबोधित करने का बोझ अदालतों पर स्थानांतरित हो गया है.

उदाहरण के लिए, 1995 में गैर-मुसलमानों द्वारा इस्लाम स्वीकार कर लेने पर दो शादियों पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले को लें. इस मामले में अदालत ने कहा कि हालांकि समान नागरिक संहिता की वांछनीयता पर संदेह नहीं किया जा सकता है, लेकिन “यह तभी मूर्त रूप ले सकता है जब समाज के अभिजात वर्ग द्वारा सामाजिक माहौल का सही ढंग से निर्माण किया जाए और राजनेता व्यक्तिगत लाभ हासिल करने के बजाय ऊपर उठें और जागरूक हों. जनता को परिवर्तन स्वीकार करना होगा.”

लेकिन क्या भारत में वर्तमान में सभी पर लागू हो सकने वाले “सेक्युलर” पर्सनल लॉ हैं?

महमूद इस बात पर जोर देते हैं कि आधुनिक हिंदू कानून अभी भी “धर्म-आधारित भेदभाव और लैंगिक असमानताओं से भरा हुआ है”.

उदाहरण के लिए, हिंदू उत्तराधिकार कानून अभी भी एक महिला की खुद की कमाई गई संपत्ति पर उसके न रहने पर किसी वसीयत के अभाव में उसके माता-पिता और भाई-बहनों के बजाय उसके पति और उसके परिवार को प्राथमिकता देता है. महमूद का दावा है कि “यूसीसी के लिए संवैधानिक प्रावधान का मतलब अन्य सभी को हटाकर इस तरह के कानून को सारे देश पर लागू करना नहीं है”.

उनके विचार में, आज अल्पसंख्यक समुदाय को प्रस्तावित यूसीसी के “सौ प्रतिशत धर्मनिरपेक्ष मसौदे” की मांग करनी चाहिए और “देखें कि दिक्कत कहां आती है”.

महमूद का मानना है कि यूसीसी लाने का तरीका सभी प्रचलित कानूनों में से सामाजिक रूप से लाभकारी प्रावधानों को चुनना है.

उनकी सलाह है कि “नए कानून को पारिवारिक कानून की बुनियादी बातों तक ही सीमित रखा जाए, और जिन रीति-रिवाजों से कोई नुकसान नहीं है उसे छोड़ दिया जाए”.

‘राजनीति काम करेगी, भले ही मसौदा न करे’

शायद आमूल-चूल सुधार अधिक स्वीकार्य थे और नए-नए स्वतंत्र भारत में लोग बदलाव के लिए अधिक उत्तरदायी थे.

शायद इसीलिए हिंदू कोड बिल पर बहस और यूसीसी पर मौजूदा बहस के स्वर और भाव इतने भिन्न हैं.

अहमद कहते हैं, “हिंदू कोड बिल के साथ, नेहरू और अंबेडकर भारतीय समाज को सुधारात्मक कानूनों को स्वीकार करने के लिए तैयार करना चाहते थे. सामाजिक स्वीकार्यता बाद में हासिल की जा सकती है. लेकिन आज, यूसीसी राष्ट्र-निर्माण के बारे में नहीं है. यह सांप्रदायिक प्रतिबिंब के बारे में है.

और ऐसा हुआ – 1950 का दशक एक परिवर्तनकारी युग था.

नेहरू सरकार ने योजना आयोग की स्थापना और पंचवर्षीय योजनाएं शुरू करके नई शक्ति प्राप्त की. हिंदू कोड बिल राष्ट्र-निर्माण, आर्थिक प्रगति और व्यक्तिगत अधिकारों का मामला बन गया.

यहां तक कि हिंदी फिल्म उद्योग ने भी नेहरू सरकार की लोकप्रियता को बढ़ाने में भूमिका निभाई. मिस्टर एंड मिसेज ’55, आवारा, नया दौर और जागते रहो जैसी हिट फिल्मों ने सुधारों को फैशनेबल बना दिया और समाजवादी एजेंडे के पक्ष में सार्वजनिक चर्चा को प्रभावित किया.

हालांकि, वर्तमान प्रस्तावित सुधारों में विशिष्टता और स्पष्टता का अभाव है.

मजूमदार कहते हैं, “वर्तमान क्षण दिलचस्प है क्योंकि, अतीत के विपरीत, यह ऐसा क्षण नहीं है जहां हमने प्रस्तावित सुधारों का कोई खाका देखा हो. यही वह जगह है जहां भारतीय राष्ट्र राज्य की स्थापना के क्षण और अब के बीच एक बड़ा अंतर है. नेहरूवादी दृष्टिकोण आदर्शवादी था, जिसमें समानता को संविधान में प्रतिष्ठापित किया गया था. लेकिन आज, बिना किसी मसौदे या योजना के, मुझे यह भी पता नहीं है कि हम किस पर बहस कर रहे हैं.”

कानूनी विद्वान उपेन्द्र बक्सी का कहना है कि हिंदू कोड बिल का विचार आधुनिक मानव इतिहास में केवल एक अन्य उदाहरण – नेपोलियन के नागरिक संहिता, जो कई संशोधनों के बावजूद फ्रांस में अभी भी लागू है, के बराबर है.

उन्होंने आगे कहा, “हिंदू कोड बिल और समान नागरिक संहिता के आसपास चर्चा का महत्व एक संवाद के रूप में कानून का उपयोग है. लेकिन विरोधाभास यह है कि यूसीसी को टुकड़ों में ही हासिल किया जा सकता है,” इसके अतिरिक्त, बक्सी कहते हैं, केवल दो धर्मों – हिंदू धर्म और इस्लाम – के लिए नागरिक संहिता की मांग को सीमित करने से भारत में अन्य समुदायों से ध्यान हट जाता है.

अन्य विद्वान भी इस दृष्टिकोण से सहमत हैं.

जैसा कि हिलाल अहमद ने इस महीने दिप्रिंट में लिखा था, यूसीसी “एक अदृश्य तंत्र” के भीतर स्थित है जो इसे केवल “मुस्लिम मुद्दे” के रूप में प्रस्तुत करता है.

इस अदृश्य तंत्र के भीतर वह छिपा है जिसे मंडल भाजपा सरकार का “सबटेक्स्ट” कहते हैं.

वे कहते हैं, “टेक्स्ट और अर्थ में अंतर है. यह बिल्कुल भी कानूनों के बारे में नहीं है – नाई की दुकान, नुक्कड़ और चौराहों की जमीनी हकीकत यह है कि यह (यूसीसी) मुसलमानों को निशाना बनाने के लिए और इस बात को लेकर ईर्ष्या का भाव है कि मुस्लिम बहुविवाह जैसे विशेषाधिकारों का आनंद क्यों लें. विरासत, संपत्ति के अधिकार, तलाक, मृत्यु कोई चिंता का विषय नहीं हैं,”

मंडल का दावा है कि यह बताता है कि किसी कानून के लिए अभी तक कोई मसौदा क्यों नहीं बनाया गया है. “राजनीति काम करेगी, भले ही मसौदा काम न करे.”

(संपादनः शिव पाण्डेय)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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