नयी दिल्ली, 22 मई (भाषा) उच्चतम न्यायालय ने स्नातकोत्तर मेडिकल प्रवेश में बड़े पैमाने पर सीट रोकने (ब्लॉक करने) के चलन पर चिंता व्यक्त करते हुए सभी निजी और मानद (डीम्ड) विश्वविद्यालयों को राष्ट्रीय पात्रता-सह-प्रवेश परीक्षा – स्नातकोत्तर (नीट-पीजी) के लिए काउंसलिंग से पूर्व शुल्क का खुलासा अनिवार्य कर दिया है।
न्यायमूर्ति जे बी पारदीवाला और न्यायमूर्ति आर महादेवन की पीठ ने कहा कि सीट रोकने की कुप्रथा सीट की वास्तविक उपलब्धता को विकृत कर देती है, अभ्यर्थियों के बीच असमानता को बढ़ावा देती है और अक्सर प्रक्रिया को योग्यता के बजाय संयोग-आधारित बना देती है।
पीठ ने 29 अप्रैल के अपने आदेश में कहा, ‘‘सीट को रोकना सिर्फ गलत काम भर नहीं है, बल्कि यह पारदर्शिता की कमी और कमजोर नीति प्रवर्तन के साथ ही प्रणालीगत खामियों को भी दर्शाता है। हालांकि नियामक निकायों ने इसे निरुत्साहित किया है और तकनीकी नियंत्रण भी लागू किए हैं, लेकिन समन्वय, सही स्थिति और एकरूपता बनाए रखने जैसी मुख्य चुनौतियों का समाधान नहीं हो पाया है।’’
फैसले में कहा गया, ‘‘वास्तव में निष्पक्ष और कुशल प्रणाली प्राप्त करने के लिए नीतिगत बदलावों से कहीं अधिक की आवश्यकता होगी। इसके लिए संरचनात्मक समन्वय, तकनीकी आधुनिकीकरण और राज्य तथा केंद्र दोनों स्तरों पर मजबूत नियामक जवाबदेही की आवश्यकता होगी।’’
इसमें कहा गया, ‘‘सभी निजी/मानद विश्वविद्यालयों द्वारा काउंसलिंग-पूर्व शुल्क का खुलासा करना अनिवार्य किया जाए, जिसमें ट्यूशन, छात्रावास, कॉशन डिपॉजिट और विविध शुल्क का विवरण शामिल हो। राष्ट्रीय आयुर्विज्ञान आयोग के तहत एक केंद्रीकृत शुल्क विनियमन ढांचा स्थापित किया जाए।’’
पीठ ने अधिकारियों को सीट रोकने पर सख्त दंड देने का आदेश दिया, जिसमें सुरक्षा जमा राशि (सिक्योरिटी डिपॉजिट) जब्त करना, भविष्य की नीट-पीजी परीक्षाओं से अयोग्य घोषित करना और दोषी कॉलेज को काली सूची में डालना शामिल है।
शीर्ष अदालत का फैसला उत्तर प्रदेश सरकार और चिकित्सा शिक्षा एवं प्रशिक्षण महानिदेशक, लखनऊ द्वारा दायर याचिका पर आया, जिसमें इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा 2018 में पारित एक आदेश को चुनौती दी गई थी।
भाषा शोभना सुरेश
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