नई दिल्ली: क्या सांसद और विधायक, संसद या राज्य विधानसभा में भाषण या वोट के बदले रिश्वत लेने के संबंध आपराधिक अभियोजन से छूट का दावा कर सकते हैं? सुप्रीम कोर्ट अब इस पर विचार करने जा रहा है या यों कहें कि पुनर्विचार कर रहा है.
1998 में सुप्रीम कोर्ट की पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने फैसला सुनाते हुए कहा था कि संविधान के अनुच्छेद 105 के तहत सांसदों को इस तरह की छूट दी गई है.
फैसला 1993 के ‘झामुमो रिश्वत घोटाले’ से जुड़ा था. एक ऐसा मामला जिसमें झारखंड मुक्ति मोर्चा (झामुमो) के कई सांसदों और जनता दल के अजीत सिंह के गुट पर आरोप लगे थे कि उन्हें लोक सभा में तत्कालीन नरसिम्हा राव सरकार को संकट से उबारने में मदद करने के लिए रिश्वत दी गई थी.
3:2 के फैसले में संविधान पीठ ने कहा था कि अनुच्छेद 105 ‘संसद के एक सदस्य को अदालत में कार्यवाही से बचाता है, जो संसद में उसके द्वारा कही गई किसी भी बात या दिए गए वोट या संबंधों या सांठगांठ से संबंधित है.’
इस फैसले के पच्चीस साल बाद, पांच जजों की पीठ जस्टिस एस अब्दुल नज़ीर, बी.आर. गवई, ए.एस. बोपन्ना, वी. रामसुब्रमण्यम और बी.वी. नागरत्न इस सवाल पर विचार कर रहे हैं कि क्या इस फैसले पर एक बड़ी पीठ द्वारा पुनर्विचार की आवश्यकता है.
जानें कि 1998 के फैसले में क्या कहा गया था और अदालत फिर से अब इस पर क्यों विचार करना चाह रही है
1993 में क्या हुआ और कोर्ट ने क्या कहा?
1991 के आम चुनाव ने त्रिशंकु संसद को जन्म दिया, जिसमें कांग्रेस (आई) सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरकर सामने आई थी. कई क्षेत्रीय दलों के समर्थन से कांग्रेस ने पीवी नरसिम्हा राव के नेतृत्व में सरकार बनाई.
जुलाई 1993 में, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) के नेता अजय मुखोपाध्याय संसद के मानसून सत्र में सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लेकर आए. लेकिन यह अविश्वास प्रस्ताव आखिर में 14 मतों के अंतर से गिर गया.
फिर 1996 में, केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) को एक शिकायत मिली. इस शिकायत में आरोप लगाया गया था कि झामुमो के कुछ सांसदों और जनता दल के अजीत सिंह के गुट को राव की सरकार को वोट देने के लिए रिश्वत दी गई थी.
तब कथित रूप से मामले में शामिल सांसदों ने आपराधिक अभियोजन से छूट की मांग की क्योंकि यह मतदान संसद के अंदर हुआ था.
संविधान का अनुच्छेद 105 संसद के सदनों, उनके सदस्यों और समितियों की शक्तियों और विशेषाधिकारों के बारे में प्रावधान करता है. अन्य बातों के अलावा प्रावधान में कहा गया है, ‘संसद का कोई भी सदस्य संसद या उसकी किसी समिति में उसके द्वारा कही गई किसी भी बात या दिए गए किसी भी वोट के संबंध में किसी भी अदालत में किसी भी कार्यवाही के लिए उत्तरदायी नहीं होगा’
अनुच्छेद 194 विधायकों को भी इसी तरह की छूट प्रदान करता है.
1998 में सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों की बेंच ने सांसदों के पक्ष में फैसला सुनाया था. अपने 3:2 के फैसले में अदालत ने अपने फैसले में कहा कि जिन सांसदों ने रिश्वत स्वीकार की और अविश्वास प्रस्ताव पर मतदान किया, वे आपराधिक अभियोजन से मुक्त होंगे क्योंकि कथित रिश्वत ‘संसदीय वोट के संबंध में’ थी.
अदालत ने फैसला सुनाया कि अजीत सिंह, जो कथित तौर पर साजिश में शामिल थे, लेकिन उन्होंने वोट नहीं डाला है, इसलिए वह समान सुरक्षा के हकदार नहीं हैं.
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सुप्रीम कोर्ट के सामने फिर क्यों आया ये मामला
2012 में झामुमो की एक नेता सीता सोरेन पर राज्यसभा चुनाव में एक निर्दलीय उम्मीदवार, उद्योगपति आरके अग्रवाल को वोट देने के लिए रिश्वत लेने का आरोप लगाया गया था.
सोरेन पार्टी प्रमुख और झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री शिबू सोरेन की पुत्रवधू हैं, जो 1993 के वोट के बदले पैसे लेने के मामले में आरोपियों में से एक थे.
हालांकि सीता सोरेन ने अग्रवाल को वोट नहीं दिया था, फिर भी सीबीआई ने उनके खिलाफ आपराधिक मुकदमा चलाया और अदालत ने भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम और भारतीय दंड संहिता की धारा 120 बी (आपराधिक साजिश) के प्रावधानों के तहत अपराध का संज्ञान लिया था.
फरवरी 2014 में झारखंड उच्च न्यायालय ने फैसला सुनाया कि जिस सिद्धांत के तहत अजीत सिंह को संसदीय छूट से वंचित किया गया था, वह सोरेन पर भी लागू होगी.
अदालत ने फैसला सुनाया कि अनुच्छेद 194 के तहत विधायकों को दी गई छूट उन विधायकों पर लागू नहीं होगी जो एक निश्चित व्यक्ति को वोट देने के लिए रिश्वत लेते हैं लेकिन फिर ऐसा नहीं करते हैं.
अदालत ने अपने फैसले में कहा, ‘ इसलिए मेरा विचार है कि याचिकाकर्ता द्वारा साजिश के तहत पैसा लेने और आर.के.अग्रवाल के साथ समझौते का इस तथ्य के कारण वोट के साथ कोई संबंध नहीं होगा कि उसने उक्त आर.के.अग्रवाल के पक्ष में वोट नहीं डाला था. इस प्रकार, उन्हें भारत के संविधान के अनुच्छेद 194 के उप-खंड (2) के तहत गारंटी के अनुसार कोई छूट नहीं होगी’
इस फैसले को मार्च 2014 में सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई थी और इसे तीन जजों की बेंच के सामने रखा गया था.
7 मार्च 2019 को बेंच ने ‘व्यापक प्रभाव और सार्वजनिक महत्व’ वाले इस सवाल को एक बड़ी बेंच के पास भेज दिया.
अब तक क्या हुआ है
मामला मंगलवार को पांच जजों की बेंच के सामने सुनवाई के लिए आया जब केंद्र सरकार के साथ- साथ सीता सोरेन ने अदालत के सामने कहा कि 1998 का निर्णय सांसदों और विधायकों के संबंध में कानून की सही स्थिति थी.
केंद्र सरकार के लिए तर्क देते हुए सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने 1998 के फैसले को ‘संवैधानिक रूप से सही’ सिद्धांत कहा और अदालत से सीता की अपील पर सुनवाई के लिए मामले को दो या तीन-न्यायाधीशों की पीठ को वापस भेजने का आग्रह किया.
सोरेन की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता राजू रामचंद्रन ने तर्क दिया कि झारखंड उच्च न्यायालय ने 1998 के फैसले को गलत तरीके से लागू किया था.
चूंकि केंद्र सरकार और सोरेन दोनों ने 1998 के फैसले का समर्थन किया था, इसलिए पीठ ने वरिष्ठ अधिवक्ता पीएस पटवालिया और वकील गौरव अग्रवाल को इनकी सहायता के लिए नियुक्त कर दिया.
6 दिसंबर को सुनवाई के लिए मामले को आगे बढ़ाते हुए अदालत ने कहा, ‘अगर हम पी.वी. नरसिम्हा राव मामले में अदालत के बहुमत के फैसले को स्वीकार करते हैं, तो मामला यहीं खत्म हो जाता है. लेकिन अगर नहीं, तो उसे बड़ी बेंच के पास जाना होगा.’
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(संपादनः शिव पाण्डेय)
(अनुवादः संघप्रिया)
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