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Thursday, 12 December, 2024
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मोदी की सुरक्षा में चूक कोई षडयंत्र नहीं, सरासर सिक्योरिटी की नाकामयाबी है

अब तक जो कुछ हमने देखा वह प्रधानमंत्री की सुरक्षा को लेकर राज्य पुलिस और एसपीजी दोनों की अविश्वसनीय विफलता बताती है लेकिन किसी प्रधानमंत्री की सुरक्षा को राजनीतिक ध्रुवीकरण का मुद्दा नहीं बनाया जाना चाहिए

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पंजाब के बठिंडा और फिरोजपुर के बीच हाइवे पर प्रधानमंत्री के काफिले के साथ असल में क्या हुआ, इसके बारे में आपकी समझ इस बात पर निर्भर है कि आप किस राजनीतिक खेमे के साथ हैं. इस मामले से संबंधित तथ्य हैं, तस्वीरें हैं, कच्चे वीडियो हैं; और हत्या की योजना से लेकर रैली में कम भीड़ के कारण बहानेबाजी के आरोप-प्रत्यारोप हैं. और इन सबके अलावा साजिश के स्वाभाविक दावे भी हैं.

आइए उन तथ्यों पर नज़र डालें, जिन्हें हम जानते हैं, या हमें लगता है कि हम जानते हैं. सबसे पहली बात यह है कि यह सुरक्षा में भारी, अक्षम्य विफलता है. बात केवल इतनी नहीं है कि सुरक्षा का जो प्रोटोकॉल दशकों में अब तक पत्थर की लकीर बन चुका है उसे तोड़ा गया है, बल्कि पुल पर प्रधानमंत्री की गाड़ी जब फंस गई उसके बाद जो कुछ हुआ उस पर भी ध्यान देने की जरूरत है.

गाड़ी पुल के एक किनारे कई मिनट तक खड़ी रही यानी एक तरफ से वह बिलकुल असुरक्षित थी. उस तरफ पुल के नीचे जमीन पर या किसी पेड़ पर कोई आदमी होता तो वह कुछ भी कर सकता था. सामान्य तौर पर उनकी गाड़ी को सड़क के बीच में होना चाहिए था, जिसे चारों तरफ से एसपीजी की गाडियां घेरे रहतीं. इसके लिए प्रधानमंत्री के नाम कोई चालान नहीं कटता. इसके अलावा, हम देखते हैं कि एसपीजी के लोग हमेशा की तरह अगल-बगल खड़े थे, सामने से पर्याप्त रूप से कवर नहीं किया गया था.

प्रोटोकॉल में पहली चूक तो यह की गई कि हाइवे को ‘सैनिटाइज़’ नहीं किया गया था, जबकि यह कवायद दशकों से की जाती रही है. यह राज्य की पुलिस का काम था. क्या पंजाब पुलिस को नहीं मालूम था कि प्रधानमंत्री उस रास्ते से जाने वाले थे? अगर उसे मालूम था और फिर भी उसने सड़क के दोनों तरफ थोड़ी-थोड़ी दूर पर पुलिसवालों को तैनात करके सड़क को ‘सैनिटाइज़’ करने की कवायद नहीं की, तो सबसे पहले तो इसे उसकी अक्षमता माना जाएगा. अगर उसे यह पता ही नहीं था कि प्रधानमंत्री हवाई मार्ग से नहीं बल्कि सड़क से हुसैनीवाला जा रहे थे, तो यह उसकी अक्षमता ही नहीं बल्कि नौकरी के वक्त सोते रहने जैसा मामला है.


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उस क्षेत्र में, जिस पुलिस को ‘जांबाज पंजाब प्लीस’ (बहादुर पंजाब पुलिस) कहा जाता है, उसके बारे में अब हम जान गए हैं कि उसे दोपहर में झपकी लेना कितना पसंद है. लेकिन यह मामला तो दोपहर से काफी पहले का है, और प्रधानमंत्री की ‘मूवमेंट’ हो रही थी यानी उनका काफिला गुजर रहा था. मान लीजिए कि उसे इसके बारे में जानकारी थी लेकिन अचानक आंदोलनकारी जमा हो गए थे, जैसा कि उनके बचाव में कहा जा रहा है, तो यह जानना जरूरी है कि क्या इसकी खबर एसपीजी को तुरंत दी गई?

इस सवाल के जवाब से यह पता चलेगा कि साजिश का कौन-सा दावा ज्यादा सही हो सकता है. पहला दावा तो भाजपा का है कि राज्य की कांग्रेस सरकार ने प्रधानमंत्री को जानबूझकर खतरे में डाला. दूसरा दावा कांग्रेस का है कि चंद मिनट पहले प्रधानमंत्री को बताया गया कि वे जिस रैली को संबोधित करने जा रहे हैं उसमें भीड़ कम जुटी है (यह सही है) इसलिए उन्हें वहां जाने में शर्मिंदगी महसूस होने लगी, और फिर यह नौटंकी रची गई.

क्या हम ज्यादा अटकलबाजी कर रहे हैं? केंद्र सरकार के एक बाकायदा कैबिनेट मंत्री गिरिराज सिंह ने कहा है कि नरेंद्र मोदी को किसी अत्याधुनिक राइफल या ड्रोन से मार डालने साजिश रची गई थी. प्रधानमंत्री राष्ट्रपति को इस पूरे मामले की जानकारी देने के लिए राष्ट्रपति भवन गए. राष्ट्रपति ने ट्वीट करके अपनी चिंता जाहिर की. दूसरी ओर, पंजाब के मुख्यमंत्री चन्नी और पंजाब कांग्रेस अध्यक्ष नवजोत सिंह सिद्धू, दोनों ने रैली में कम भीड़ के कारण की गई नौटंकी कहा है.
तथ्यों के आधार पर हम भी इसे एक राष्ट्रीय शर्म कह सकते हैं. कोई भी आधुनिक देश अपने ‘चीफ एक्सक्यूटिव’ को इस तरह खतरे में नहीं डालता, भारत तो ऐसा और भी नहीं कर सकता क्योंकि यहां राजनीतिक हत्याओं का लंबा इतिहास रहा है. लेकिन यह भी कहा जा सकता है कि हत्या की कोई साजिश नहीं थी. अपने हिसाब से कोई बहुत भाग्यशाली हत्यारा ही ठीक उस समय ठीक उस स्थान पर मौजूद रह सकता था.

इससे हम यह अनुमान लगा सकते हैं कि जो कुछ हमने देखा वह सुरक्षा के मामले में राज्य की पुलिस और एसपीजी, दोनों की अविश्वसनीय विफलता थी. यह इस बात को रेखांकित करती है कि कुछ समय बीतने पर सुरक्षा के सभी प्रोटोकॉल यांत्रिक हो जाते हैं और लोग उन पर रोबोट की तरह अमल करते हैं. निरंतर परिवर्तन और सुधार जरूरी है. हमने ऐसे भी कच्चे वीडियो देखे हैं जिसमें एसपीजी के लोग प्रधानमंत्री के कार के दरवाजे एक से ज्यादा बार खोलते हैं, किसी प्रशंसक को प्रधानमंत्री को सजीली टोपी पहनाने की छूट दी जाती है. किसी वीवीआइपी की सुरक्षा की ‘ब्लू बुक’ में यह सब नहीं लिखा है. निष्कर्ष वही पुराना है कि जिसे पूरी तरह अक्षमता बताया जा सकता है उस मामले में साजिश ढूंढने में समय मत बर्बाद कीजिए. इस मामले में अक्षमता राज्य पुलिस और एसपीजी, दोनों की है.


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राजनीतिक नेता, खासकर सत्ताधारी नेता सबसे संकटग्रस्त लोग माने जाते हैं. यह बात विशेष तौर पर भारत जैसे देश पर ज्यादा लागू है, जहां राजनीतिक हत्याओं का लंबा इतिहास रहा है. नाथूराम गोडसे ने महात्मा गांधी की हत्या करके हमारे गणतंत्र को शुरू में ही झटका दे दिया था. 1965 के शुरू में, पंजाब के शक्तिशाली मुख्यमंत्री प्रताप सिंह कैरों को उनके इस्तीफे के कुछ महीने बाद ही ग्रैंड ट्रंक रोड पर सोनीपत (अब हरियाणा में) के पास मार डाला गया. दरअसल, पंजाब में दो मुख्यमंत्रियों की हत्या की गई. दूसरे थे बेअंत सिंह, जिनकी हत्या 1995 में की गई, जब वे सत्ता में ही थे.

बिहार में 1975 में केंद्रीय रेल मंत्री ललित नारायण मिश्र की हत्या समस्तीपुर में एक बमकांड में की गई. 1980 का दशक सार्वजनिक हस्तियों के लिए सबसे संकटपूर्ण रहा, जब उनमें से कई की बलि आतंकवाद ने ली. उनमें इंदिरा गांधी की हत्या 1984 में, और राजीव गांधी की हत्या नये दशक के शुरू में 1991 में की गई. राजीव गांधी जब प्रधानमंत्री थे तब उनकी हत्या की तीन कोशिशें की गईं—14 मई 1985 को वाशिंगटन में, जून 1986 में लीसेस्टर में, और उसी साल गांधी जयंती (2 अक्तूबर) पर दिल्ली के राजघाट में गांधी समाधि पर प्रार्थना के बाद कुछ हास्यास्पद किस्म की कोशिश. तीन बार गोली चलने की आवाज़ आई, पुलिस ने एक पेड़ पर चढ़े करमजीत सिंह नाम के एक शख्स को गिरफ्तार किया, देसी कट्टे के साथ जिससे किसी निशाने पर शायद ही गोली दागी जा सकती थी.

लेकिन उन पर अगला हमला जो हुआ उसे कतई हास्यास्पद नहीं कहा जा सकता. श्रीलंका के तत्कालीन राष्ट्रपति जे.आर. जयवर्द्धने और तमिल ईलम के वेल्लुपिल्लै को ‘राजी’ करने के बाद राजीव गांधी कोलंबो में 30 जुलाई 1987 को जब ‘गार्ड ऑफ ऑनर’ दिया जा रहा था तभी परेड में शामिल एक नौसैनिक विजेमुणी विजिता रोहना डि सिल्वा ने अपनी राइफल उनकी तरफ तान दी, जिसने 1981 में मिस्र के राष्ट्रपति अनवर सादात पर हुए हमले की याद दिला दी थी.

इंदिरा गांधी की हत्या के बाद स्पेशल प्रोटेक्शन ग्रुप (एसपीजी) का गठन किया गया, जिसे अमेरिकी सीक्रेट सर्विस जैसे संगठन के जैसा माना जाता है. उसे सबसे पहले राजीव गांधी की सुरक्षा की ज़िम्मेदारी मिली. उन पर हुए हर एक हमले के साथ सुरक्षा प्रोटोकॉल में सुधार किया जाता रहा. इस तरह वीवीआइपी सुरक्षा का विश्व स्तरीय, बेहद ताकतवर संगठन तैयार हुआ. गांधी परिवार का मानना है कि वी.पी. सिंह और चंद्रशेखर की सरकारों ने उन्हें एसपीजी सुरक्षा न जारी रखकर गलती की.

लेकिन यह मान लेना कितना सही है कि राजीव गांधी को अगर एसपीजी सुरक्षा मिलती रहती तो वे अपनी कमर में बम बांधे, चेहरे पर मुस्कराहट बिखेरे उस महिला से बचकर निकल जाते? श्रीपेरुंबूदूर में हुए उस हत्याकांड से एक दिन पहले ‘इंडिया टुडे’ के संपादक अरुण पुरी और मैंने (तब मैं वहां काम कर रहा था) वाराणसी में चुनाव प्रचार कर रहे राजीव गांधी से मुलाक़ात की थी. उन्हें बेरोकटोक भीड़ में घुसते देखकर हम परेशान थे. देर रात हो रही एक सभा में जब वे मंच पर आए थे तब कई लोग उन पर मालाएं और फूल फेंक रहे थे. वे उनसे बचने की जगह हंसते हुए उन फूल-मालाओं को पकड़ रहे थे और वापस लोगों की तरफ उसे उछाल रहे थे.

हमने उन्हें बनारस और बिहार के बक्सर के बीच सड़क किनारे के एक ढाबे पर पकड़ा था. उस समय मैं इतना जूनियर था कि उनसे परिचित नहीं हो सकता था. लेकिन अरुण अपने स्कूल के दिनों से ही उनसे परिचित थे. उन्होंने उनसे सुरक्षा को लेकर इतने लापरवाह होने पर सवाल किए. राजीव गांधी ने कहा था कि उन्हें कहा गया है कि वे जनता से काफी कट गए हैं. इसलिए, चेतावनियों के बावजूद वे लोगों से जुड़ना चाहते हैं.

इसका जाहिर निष्कर्ष यह है कि सार्वजनिक हस्तियां खासकर चुनाव अभियान के दौरान बहुत शिद्दत से यह दिखाना चाहती हैं कि लोगों के काफी करीब हैं. क्या एसपीजी का दल उन्हें श्रीपेरुंबूदूर में खुद को असुरक्षित समर्थकों के बीच जाने से रोक सकता था? यह तभी मुमकिन हो सकता है जब सुरक्षा का प्रभारी अफसर इतना प्रभावशाली हो कि वह जिसकी सुरक्षा के लिए तैनात है उस पर हावी हो सके. यह बॉस को अपनी बात मनवाने के लिए मजबूर करने का मामला है.

दूसरी ओर, हत्या की कोशिश के नाम पर राजनीतिक हंगामा या नौटंकी तो बेशक की ही जाती है. हमारे इतिहास में ऐसी सबसे मशहूर या बदनाम घटना को भुला दिया गया है. एक चुनाव में, जिसमें कांग्रेस को पहली बार हारने की नौबत लग रही थी, मतदान के एक दिन पहले, 15 मार्च 1977 को एक खबर आई कि अमेठी के पास किसी ने संजय गांधी की कार पर तीन बार गोली चलाई है. इस वारदात के लिए कभी किसी को गिरफ्तार नहीं किया गया, न ही इसकी कोई गंभीर कोशिश की गई, इसे लगभग हंसी में उड़ा दिया गया. यह एक सस्ती किस्म की चाल थी जो विफल रही. यानी, ऐसा भी होता है.

अब फिर से बात करें हाइवे पर फंसे अपने प्रधानमंत्री की. मानना पड़ेगा कि इस मामले में सुरक्षा तंत्र विफल रहा, इसलिए सुधार के कदम उठाए जाएं. किसी प्रधानमंत्री की सुरक्षा को राजनीतिक ध्रुवीकरण का मुद्दा नहीं बनाया जाना चाहिए. फिलहाल उपलब्ध जानकारियों के आधार पर मैं बहस को यह कहकर समाप्त करूंगा कि इस मामले में वायुसेना ने सच्चे पेशेवर रुख का परिचय देते हुए बॉस को साफ कह दिया कि वह उस मौसम में उड़ान नहीं भरेगी. किसी प्रधानमंत्री को मना करने के लिए किस पेशेवर रुख और नैतिक साहस की जरूरत है वह इस उदाहरण से साफ है. ऐसे फैसले ही उसे सुरक्षित रख सकते हैं.

(इस खबर को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


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