कोलकाता: गोरखा जनमुक्ति मोर्चा के संस्थापक-अध्यक्ष बिमल गुरुंग ने मोदी सरकार पर आरोप लगाया है कि वो स्थानीय सहोगियों को ‘इस्तेमाल करके छोड़ देती है’ और कहा है कि गोरखालैण्ड मसले के स्थाई राजनीतिक समाधान के लिए अब वो पश्चिम बंगाल सरकार के साथ बातचीत कर रहे हैं.
स्थायी समाधान के तहत गुरुंग और उनकी पार्टी, गोरखालैण्ड क्षेत्रीय प्रशासन के लिए ज़्यादा अधिकार चाहती हैं, जो एक स्वायत्त जिला परिषद है जिसका दार्जीलिंग और कालिम्पोंग इलाक़ों में आंशिक रूप से शासन है.
गुरुंग ने कहा, ‘पिछले सात सालों में मैंने कश्मीर में धारा 370 को रद्द होते देखा है, तीन-तलाक़, एनआरसी और सीएए देखा है, लेकिन गोरखालैण्ड के लिए कुछ नहीं देखा. उन्होंने (मोदी सरकार) पिछले 12 साल में इसी तरह सबसे अहम और अंतरराष्ट्रीय रणनीतिक स्तर की लोकसभा सीट पर गोरखाओं का इस्तेमाल किया है.
‘नेपाल और चीन से निकटता की वजह से, वो दार्जीलिंग को खोना सहन नहीं कर सकते. इसलिए गोरखालैण्ड के हमारे भावनात्मक मुद्दे का इस्तेमाल किया, और बदले में हमें कुछ नहीं दिया.’
गुरुंग 2008 से गोरखालैण्ड आंदोलन का चेहरा रहे हैं, जब उन्होंने दार्जीलिंग पहाड़ियों से गोरखा नेशनल लिबरेशन फ्रंट (जीएनएलएफ) प्रमुख सुभाष घीसिंग को बाहर कर दिया था. 2009 से वो बीजेपी नेतृत्व वाले राष्ट्रीय जनतान्त्रिक गठबन्धन (एनडीए) का हिस्सा थे, जिसके बाद अक्तूबर 2020 में वो अलग हो गए. 2021 के पश्चिम बंगाल विधान सभा चुनावों से पहले, उन्होंने तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) से हाथ मिला लिया.
इस इंटरव्यू में, गुरुंग ने ममता सरकार से अपनी अपेक्षाओं, अपने चुनावी नुक़सान, जीजेएम गुटों, और विरोधियों द्वारा उन्हें एक चुकी हुई ताक़त बताने पर बात की.
‘स्थायी हल के लिए देख रहे दीदी की ओर’
गुरुंग ने दिप्रिंट से कहा कि पार्टी महासचिव रेशन गिरी की अगुवाई में एक प्रतिनिधिमंडल, गोरखालैण्ड मुद्दे पर बातचीत के लिए पिछले हफ्ते कोलकाता गया था.
उनके अनुसार टीम ने वरिष्ठ मंत्रियों और तृणमूल महासचिव अभिषेक बनर्जी से मुलाक़ात की, जो सीएम के भतीजे हैं, और वादा किए गए स्थायी राजनीतिक समाधान (पीपीएस) पर बातचीत की, एक ऐसी परिभाषा जिसे बीजेपी ने गढ़ा था.
2019 लोकसभा चुनावों और 2021 विधान सभा चुनावों के लिए अपने चुनावी घोषणा पत्रों में, बीजेपी ने गोरखाओं के लिए स्थायी राजनीतिक समाधान का वादा किया था.
गुरुंग ने कहा, ‘2021 चुनावों से पहले ममता बनर्जी ने भी हमसे पीपीएस का वादा किया था. अब हमें उस प्रक्रिया को तेज़ करने की ज़रूरत है. इसीलिए मैंने एक टीम को कोलकाता भेजा था. इस मसले पर चर्चा के लिए मैं जल्द ही दीदी से मिलूंगा’.
जहां गुरुंग अधिक स्वायत्तता की मांग कर रहे हैं, वहीं बीजेपी या तृणमूल किसे ने कभी ख़ुलासा नहीं किया, कि स्थायी समाधान से उनका क्या आशय है.
गुरुंग ने कहा, ‘ममता बनर्जी ने चुनावों से पहले एक राजनीतिक समाधान का वादा किया था, और हम गोरखा क्षेत्रों के लिए अधिक स्वायत्तता चाहते हैं. हम इलाक़े के लिए डेटा जुटा रहे हैं, पहाड़ी क्षेत्रों, तराई, और दूआर क्षेत्रों में रह रहे लोगों से जुड़े आंकड़े एकत्र कर रहे हैं’.
‘हम इन सब आंकड़ों को लिखित में दर्ज कर रहे हैं. हम एक मसौदा तैयार करेंगे और उसे जल्द ही सरकार के सामने रखेंगे. मैं तीन साल बाद ख़ाली बैठने, और आराम करने के लिए वापस नहीं आया हूं. मैं फिर से गोरखाओं के अधिकारों के लिए लड़ूंगा, लेकिन अब मैं इसे शांतिपूर्वक करूंगा.
उन्होंने आगे कहा, ‘नासमझ हिंसा से गोरखाओं को कुछ हासिल नहीं हुआ. मैं अब राज्य के साथ और झमेला नहीं चाहता. मैं ममता बनर्जी के साथ काम करूंगा और कोई समाधान निकालूंगा’.
तृणमूल कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व ने दिप्रिंट को बताया, कि राजनीतिक समाधान के मामले में सिर्फ ममता ही कोई फैसला ले सकती है, चूंकि ये ‘संवेदनशील है और परिभाषित नहीं है’.
ममता के सबसे वरिष्ठ कैबिनेट सहयोगी, और राज्य के पंचायत एवं ग्रामीण मामलों के मंत्री सुब्रत मुखर्जी ने कहा, ‘रोशन गिरी की अगुवाई में गुरुंग की टीम मुझसे मिली थी. वो जीटीए एरिया में चुनाव और उससे सटे क्षेत्रों में पंचायतें चाहते थे. मैंने उनसे कहा है कि विस्तार के साथ एक मसौदा तैयार करके जमा कर दें. मैं उसे मुख्यमंत्री के समक्ष पेश करूंगा. वो पहाड़ों और गृह मामलों की प्रभारी हैं. वही फैसला करेंगी’.
एक अन्य नेता ने, जो तृणमूल महासचिव अभिषेक बनर्जी के क़रीबी हैं, कहा कि ‘गोरखाओं के लिए पीपीएस एक संवेदनशील मुद्दा है. इसकी कोई कोई विशेष परिभाषा नहीं है. इसलिए अभिषेक ने भी उनसे कहा कि वो इसे अगले स्तर, यानी ममता बनर्जी तक ले जाएंगे. उनके अलावा कोई और इस मामले पर बात नहीं कर सकता’.
ढीली होती पकड़
अपनी तमाम पहलक़दमियों के बावजूद पिछले कुछ सालों में गुरुंग को टूटकर एक अलग हुए गुट, एक बढ़ती अवधारणा कि अब वो गोरखालैण्ड आंदोलन का चेहरा नहीं हैं, और सबसे अहम ये कि पहाड़ी क्षेत्रों में चुनावी सफाया देखना पड़ा है.
अब न तो वो गर्मा-गरम भाषण हैं, न वो भीड़ है जो वो किसी समय दार्जीलिंग के मॉल और चौरास्ता इलाक़ों में जुटा लेते थे. और न ही वो सैकड़ों गोरखा युवा हैं जिनसे वो घिरे रहते थे- गुरुंग अब बिल्कुल अकेले रहते हैं, जिनके आसपास बस कुछ ‘निजी अंग रक्षकों’ की, एक छोटी सी टीम रहती है.
2017 में हुए हिंसक आंदोलन के बाद, जिनमें एक दर्जन से अधिक गोरखा युवक मारे गए थे, वो तीन साल तक दार्जीलिंग पहाड़ियों से दूर रहे थे, चूंकि हिंसा के बाद उनपर कई मुक़दमे ठोंक दिए गए थे.
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उनके खिलाफ 156 मुक़दमे दायर किए गए थे, जिनमें हत्या और देशद्रोह के मामले भी शामिल थे. उन्होंने बताया कि राज्य सरकार ने 100 से अधिक मामले ख़त्म कर दिए हैं, और क़रीब एक दर्जन केस अभी चल रहे हैं.
गुरुंग ने बताया, ‘सीबीआई का मामला (मदन तमंग हत्या केस) अभी भी है और चलेगा. अभी मेरे खिलाफ कुछ और मामले बाक़ी हैं’. उन्होंने आगे कहा, ‘क़ानून अपना काम करेगा क्योंकि नेता लोग मुझपर केस करते रहते हैं. मेरी ज़्यादा दिलचस्पी इसमें है कि मेरे नौजवान भाईयों और बहनों के नाम राजनीतिक मामलों से निकल जाएं’.
गुरुंग 2017 की हिंसा के लिए मोदी सरकार को ज़िम्मेवार मानते हैं. उन्होंने आगे कहा, ‘केंद्र सरकार ने केंद्रीय बलों को यहां भेजा जिन्होंने हमारे लोगों पर इतने हमले किए’.
उस घटना का उन्हें राजनीतिक नुक़सान भी हुआ, चूंकि उनके सबसे भरोसेमंद साथी बिनॉय तमांग ने उनसे अलग होकर, जीजेएम का तमांग गुट बना लिया.
तमांग गुट ने 2021 के पश्चिम बंगाल विधान सभा चुनावों में, गुरुंग की जीजेएम से बेहतर प्रदर्शन किया.
असैम्बली की तीन पहाड़ी सीटों में से, बीजेपी की अगुवाई वाले गठबंधन ने दार्जीलिंग और कुर्सेऑन्ग सीटें जीतीं, जबकि कालिम्पॉन्ग सीट तमांग गुट के हिस्से में आईं.
गुरुंग की जीजेएम तीनों सीटों पर तीसरे स्थान पर रही थी, और उसका वोट शेयर 20.7 प्रतिशत रहा, जबकि बीजेपी को 39.4 प्रतिशत वोट मिले, और 32.8 प्रतिशत वोट तमांग गुट के हिस्से में आए.
‘चुकी हुई ताक़त’
गुरुंग के विरोधी चुनाव में उनकी पार्टी के प्रदर्शन पर बल देते हुए कहते हैं, कि वो अब एक ‘चुकी हुई ताक़त’ हैं.
दार्जीलिंग के बीजेपी सांसद राजू बिस्ता ने कहा, ‘बिमल गुरुंग आमजन के नेता थे, और जब तक वो लोगों की सामूहिक आकांक्षाओं के लिए लड़े, तब तक उन्हें लोगों का भारी समर्थन मिला’. उन्होंने आगे कहा, ‘लेकिन फिर उन्होंने रास्ता बदल लिया, और उसी पार्टी और व्यक्ति से हाथ मिला लिया, जिसने दार्जीलिंग पहाड़ियों, तराई और दूआर्स के लोगों के, सभी संवैधानिक अधिकारों को रद्द कर दिया था. उन्होंने (ममता) मनगढ़ंत आरोपों के आधार पर हज़ारों लोगों को गिरफ्तार कराया, और पुलिस राज के ज़रिए उनका उत्पीड़न कराया. इसलिए बहुत स्वाभाविक था कि लोगों ने उनसे समर्थन वापस ले लिया’.
उन्होंने आगे कहा, ‘मुझे विश्वास है कि मुख्यमंत्री ममता जी को अब तक समझ में आ गया होगा, कि हमारे क्षेत्र के लोगों के खिलाफ डराने- धमकाने की रणनीति काम नहीं करेगी’.
बिनॉय तमांग ने भी बिस्ता के विचारों का समर्थन किया. तमांग ने कहा, ‘बिमल गुरुंग समझौता कर चुके हैं और अब एक चुकी हुई ताक़त हैं. गोरखा लोग अब उनपर भरोसा नहीं करते’. उन्होंने आगे कहा, ‘वो हमारे जीवन में इतनी हिंसा लेकर आए, और फिर अपने निहित स्वार्थों के लिए गोरखा के हितों को बेंच दिया. वो चुनाव भी हार गए. अब उनका कोई वजूद नहीं है’.
‘चुकी हुई ताक़त’ के तंज़ का जवाब देते हुए गुरुंग ने कहा कि वो अपने संगठन को फिर से बना रहे हैं.
उन्होंने पूछा, ‘अगर बिमल गुरुंग बिना किसी संगठन के इलाक़े के लगभग 20 प्रतिशत वोट हासिल कर सकता है, तो उन्हें कुछ अंदाज़ा है कि एक संगठन के साथ वो क्या कर सकता है?’
‘2021 के चुनाव हमारे लिए एक सीख रहे हैं. मैं राज्य सरकार के साथ हूं, और मैं देखूंगा कि कौन सरकार गोरखाओं के लिए क्या करती है. उसी हिसाब से में अपनी अगली चाल चलूंगा. फिलहाल, मैं इधर-उधर घूम रहा हूं, और अपने संगठन को फिर से खड़ा कर रहा हूं’.
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