नई दिल्ली: मनरेगा यानी महात्मा गांधी राष्ट्रीय गारंटी रोजगार योजना. देश की बड़ी आबादी अभी भी गांव में रहती है. उसी के समुचित विकास को ध्यान में रखते हुए 2006 में यूपीए सरकार ने मनरेगा की शुरुआत की थी. इस योजना के तहत ग्रामीण इलाकों में साल में कम से कम 100 दिनों की रोजगार गारंटी देने का प्रावधान है. लेकिन जब बात क्रियान्वयन की आती है तब इस योजना में कई स्तर पर दिक्कतें दिखाई देती हैं. पिछले 13 सालों में सर्कुलर एवं आदेश जारी कर मनरेगा के प्रावधानों को संशोधित किया गया, लेकिन मनरेगा कर्मियों की पारिश्रमिक और अन्य मानवीय सुविधाओं संबधित दिक्कतें हल नहीं हो रही है.
ऐसे में पिछले दिनों दिल्ली के जंतर मंतर पर अखिल भारतीय कर्मचारी महासंघ द्वारा मनरेगा कर्मियों की मांगों और समस्याओं को लेकर राष्ट्रीय सम्मेलन का आयोजन किया गया.
तीन दिन चले इस प्रदर्शन में सरकार या विपक्ष से कोई नेता मंच पर इन कर्मचारियों के समर्थन में नहीं आया. कार्यक्रम को आयोजित करा रहे अखिल भारतीय मनरेगा कर्मचारी महासंघ के राष्ट्रीय महासचिव चिदानंद कश्यप कहते हैं, ‘हमने हर पार्टी को सहयोग के लिए निमंत्रण भेजा था. लेकिन हमारे साथ मंच साझा करने कोई नहीं आया. यह दिखाता है कि राजनीतिक दल मनरेगा मजदूरों के संघर्षों के लेकर कितनी चिंतित हैं.’
समस्या क्या है
मनरेगा कर्मियों की समस्या का जड़ पारिश्रमिक एवं अन्य सुविधाओं के मुद्दे पर केन्द्र सरकार और राज्य सरकारों के बीच आपस मेंं तालमेल नही होना है. केंद्र सरकार का कहना है कि मनरेगा के प्रावधानों के अनुसार सरकार को मनरेगा के लिए सिर्फ पैसे देने की जिम्मेदारी है. इसके कार्यान्वयन की जिम्मेदारी राज्यों की है. मनरेगा कर्मियों के पारिश्रमिक एवं अन्य सुविधाएं देना राज्यों का विषय है. वहीं राज्यों में जब मनरेगा कर्मियों के द्वारा अपने पारिश्रमिक एवं अन्य सुविधाओं की मांग की जाती है तो राज्य सरकारें यह कह कर अपना पल्ला झाड़ लेती हैं कि यह केंद्रीय योजना है और जब तक इसमें केंद्र कोई गाइडलाइन जारी नहीं करता है वे कुछ भी करने में असमर्थ हैं.
मनरेगा कर्मचारियों की सबसे बड़ी दिक्कत 6% कंटिजेंसी का प्रावधान है.मनरेगा के कार्यान्वयन में होने वाली प्रशासनिक खर्च के लिए 6% कंटिजेंसी का प्रावधान किया गया है, जिससे राज्यों को मनरेगा कर्मियों के मानदेय और अन्य खर्च करना है ,जिसका निर्धारण राज्यों को करना है. लेकिन यह मनरेगा कर्मियों खासकर रोजगार सेवकों के लिए रोड़ा बन गया है क्योंकि मनरेगा एक माँग आधारित योजना है लेकिन कंटिजेंसी सृजित करने के नाम पर इसको लक्ष्य निर्धारित बनाकर कार्य कराया जा रहा है. बता दें, रोजगार सेवक सरकार के गाइडलाइन को सीधे अंतिम लोगों तक कुशलता पूर्वक पहुंचाने का काम करता है.
केंद्र और देश के 15 से ज्यादा राज्यों में एनडीए की सरकार होने के बाद भी योजना के क्रियान्वयन करने में दिक्कत आ रही है. इस विषय पर चिदानंद कश्यप ने कहते हैं, यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि दोनों जगह एक ही पार्टी की सरकार होने के बावजूद इसका समाधान नही निकाल पा रहा है.
चिदानंद कश्यप आगे कहते हैं, ‘जहां मनरेगा गांव के लिए एक वरदान साबित हो रही योजना है इसके द्वारा तेजी से गांव की सूरत में बदलाव विगत वर्षों में आया है. वहीं सरकार की गलत नीतियों के कारण यह मनरेगा कर्मियों के लिए दिनों दिन अभिशाप बनती जा रही है.’
बजट से क्यों नाखुश हैं
बीते 1 फरवरी को संसद में पेश हुए अंतरिम बजट में मनरेगा कर्मचारियों को लेकर केंद्र सरकार ने 60 हज़ार करोड़ रुपये देने का फैसला किया है. पिछले बजट का मुकाबले यह राशि 9 फीसदी अधिक है. बजट पेश कर रहे कार्यवाहक वित्तमंत्री पीयूष गोयल ने कहा कि अगर जरूरत पड़ी तो इस राशि को और बढ़ाया जाएगा. बजट में बढ़ी राशि को लेकर मनरेगा कर्मचारियों में कोई उत्साह नहीं है.
रोजगार सेवक और बिहार पंचायत तकनीकी सहायक के अध्यक्ष आलोक सुमन कहते हैं, ‘जब तक न्यूनतम वेतन निर्धारित कर देने का प्रावधान नहीं किया जाएगा तब तक इस बजट से मनरेगा कर्मियों को कोई लाभ नहीं मिलने वाला है.’
वहीं यूपी के मनरेगा कर्मी संजय कहते हैं, ‘ बजट में राशि बढ़ाया जाना अच्छी बात है लेकिन जो इस योजना को धरातल पर ले जाते हैं, सरकार उनके बारे में नहीं सोचती है. विश्व में भले इस योजना की खूब चर्चा हुई हो लेकिन इसके कर्मियों के बारे में कभी नहीं सोचा गया. दैनिक निर्वाहन की जो न्यूनतम राशि है वो भी हम रोजगार सेवकों को नहीं मिलता है.’
दिक्कत कहां आती है?
आलोक सुमन कहते हैं, ‘असली दिक्कत रोजगार सेवकों के साथ है. जो कि सरकार और मनरेगा मजदूरों के बीच की कड़ी हैं.सरकार बजट तो आवंटन कर देती है. और हम रोजगार सेवक अपना पूरा जोर लगाकर मनरेगा मजदूरों तक उस राशि को पहुंचाने में मदद करते हैं. उनकी साथ आने वाली समस्याओं का समाधान करते हैं लेकिन सरकार हमारे बारे में नहीं सोचती है.’
रोजगार सेवकों की कुल कितनी संख्या होगी.
आलोक बताते हैं, ऐसे तो हर एक राज्य का आंकड़ा निकालना होगा लेकिन फिर भी रोजगार सेवकों की संख्या 5 लाख से कम नहीं होगी. और पिछले 10 सालों में लगभग 50 हज़ार से ज्यादा रोजगार सेवक अपनी नौकरी छोड़ चुके हैं.’
रोजगार सेवकों से मनरेगा के कार्यों के अतिरिक्त ब्लॉक के पदाधिकारियों और जिला प्रशासन के पदाधिकारियों द्वारा भी काम लिया जाता रहा है. जिसके लिए किसी प्रकार की कोई भत्ता भी नहीं दिया जाता है. जब कि मनरेगा के गाइड लाइन में स्पष्ट लिखा हुआ है कि मनरेगा कर्मियों को मनरेगा के अतिरिक्त किसी अन्य कार्य में नहीं लगाना चाहिए.
चिदानंद कश्यप कहते हैं, ‘रोजगार सेवकों को काम एक सरकारी कर्मचारी की तरह करना होता है लेकिन उसको मूलभूत सुविधाएं उसके जैसी नहीं मिलती.’
मांगे क्या है
ऐसे में इन समस्याओं को हल करने के लिए मनरेगा सेवकों ने अपने राष्ट्रीय सम्मेलन में कुछ मांगे सुझाई है. जैसे मनरेगा कर्मचारियों को पूरे देश में एक समान मानदेय दिया जाए जो कि अभी विभिन्न राज्यों में अलग-अलग मानदेय निर्धारित है. मनरेगा कर्मियों को स्थाई कर्मचारियों के समान स्वास्थ्य बीमा, दुर्घटना मुआवजा, ईपीएफ कटौती, अनुकंपा के आधार पर नौकरी एवं विभिन्न प्रकार के भत्ताएं जैसे महंगाई भत्ता, यात्रा भत्ता आदि की सुविधाएं दी जाए. मनरेगा कर्मियों का तत्काल प्रभाव से वेतन कंटिजेंसी आधारित मानदेय के बदले वेतन कोष गठित कर उससे नियमित भुगतान का आदेश दिया जाए.
यही नहीं मनरेगा मजदूरों की मजदूरी को महंगाई के अनुसार संशोधित कर वृद्धि की जाए. जहां बाजार में दैनिक अकुशल मजदूरी बढ़कर 400- 500 रुपए हो गई है वहीं पिछले चार वर्षों में मनरेगा मजदूरों की मजदूरी यथावत रखी गई है जिसके कारण गांव में काम करने वाले मजदूर पलायन को विवश हैं.
मोदी सरकार से क्या है उम्मीद
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 2015 में मनरेगा को कांग्रेस की विफलता का जीता-जागता स्मारक बताया था. प्रधानमंत्री ने कहा था, ‘मेरी राजनीतिक सूझबूझ कहती है कि मनरेगा कभी बंद मत करो क्योंकि मनरेगा आपकी (कांग्रेस) विफलताओं का जीता–जागता स्मारक है. और मैं गाजे- बाजे के साथ इस स्मारक का ढोल पीटता रहूंगा.’
आलोक कहते हैं, ‘देश में बीजेपी के इतने राज्यों में सत्ता में आने पर हमें लगा था सरकार हमारे मुद्दों को गंभीरता से लेगी. लेकिन इसने हमें निराश किया.’
केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्रालय के आंकड़े के मुताबिक मनरेगा के तहत पूरे 100 दिनों का रोजगार पाने वाले परिवारों की संख्या 2013-14 में 46,59,347 थी, जो साल 2016-17 में घटकर 39,91,169 हो गई. अब ऐसे में देखना होगा कि मोदी सरकार किस तरह इस ‘स्मारक’ का गाजे-बाजे के साथ ढोल पीटती है.