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Sunday, 19 May, 2024
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राजपथ का नाम ‘कर्तव्यपथ’ करना कैसे गुलामी की याद दिलाने वाले सूचकों को हटाने की मोदी की एक कोशिश है!

हालांकि मोदी सरकार 'नए भारत' की एक बार फिर से कल्पना करने की कोशिश कर रही है, लेकिन क्या किसी देश के इतिहास को 'काट कर हटाया या स्याह' किया जा सकता है? प्रधानमंत्री आज कार्तव्य पथ का उद्घाटन करने वाले हैं.

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नई दिल्ली: इस स्वतंत्रता दिवस पर भारत से उपनिवेशवाद के सभी अवशेषों को हटाने के लिए समूचे देश से आग्रह करने के एक महीने से भी कम समय के भीतर प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी गुरुवार शाम राष्ट्रीय राजधानी के बीचों-बीच स्थित ‘कर्तव्य पथ’ का उद्घाटन करने वाले हैं.

इस कार्य के समय, और इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि इसके चुने गए स्थल, के महत्व से ज्यादातर लोग बेखबर नहीं है, क्योंकि पीएम की निजी वेबसाइट के अनुसार, ‘यह कदम तत्कालीन राजपथ के सत्ता का प्रतीक होने से लेकर कर्तव्य पथ के सार्वजनिक स्वामित्व और सशक्तिकरण के प्रतीक होने के रूप में आये बदलाव का एक उदाहरण है.’

पीएम मोदी के भाषणों में ‘कर्तव्य’ शब्द का उल्लेख बार-बार आता रहा है. साल 2019 में, ‘परीक्षा पे चर्चा’ कार्यक्रम के दौरान बोलते हुए, मोदी ने पहली बार उल्लेख किया था कि कैसे मौलिक अधिकारों और कर्तव्यों को अलग-अलग करके नहीं देखा जाना चाहिए और उन्होंने इस बात के उदाहरण पेश किये थे कि कैसे अधिकार और कर्तव्य के बीच कोई पारस्परिक विरोध नहीं है.

फिर, इस साल जनवरी में, पीएम ने आज़ादी का अमृत महोत्सव कार्यक्रम के दौरान यह बताते हुए कि कैसे हमारे अपने को पूरी तरह से भूल जाने के कृत्य ने भारत को कमजोर रखने में बहुत बड़ी भूमिका निभाई है, ‘अधिकार बनाम कर्तव्य’ वाली बहस को एक बार फिर से लौ दिखाते हुए सभी से ‘कर्तव्य के पथ‘ पर चलने का आग्रह किया.

उन्होंने कहा था, ‘पिछले 75 वर्षों में, हम केवल अधिकारों के बारे में बात करते रहे, अधिकारों के लिए लड़ते रहे और अपना समय बर्बाद करते रहे. अधिकारों का मुद्दा कुछ परिस्थितियों में कुछ हद तक सही हो सकता है, लेकिन अपने कर्तव्यों की पूरी तरह से उपेक्षा किये जाने ने भारत को कमजोर बनाये रखने में बहुत बड़ी भूमिका निभाई है.’

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राजपथ, जिसे पहले किंग्सवे के नाम से जाना जाता था, मूल रूप से ब्रिटिश राज के दौरान वायसराय हाउस तक जाने वाले एक भव्य जुलूस वाले मार्ग के रूप में डिजाइन किया गया था. इस 3 किमी की लम्बाई वाले मार्ग का निर्माण साल 1920 के आसपास आर्किटेक्ट (वास्तुविद) एडविन लुटियंस और हर्बर्ट बेकर द्वारा किया गया था.

कर्तव्य पथ सेंट्रल विस्टा पुनर्विकास परियोजना के तहत नव-विकसित सेंट्रल विस्टा एवेन्यू का हिस्सा है, जिसमें नया संसद भवन, संसद सदस्यों के लिए चैंबर और अन्य सरकारी भवन शामिल हैं.

एक राजनीतिक विश्लेषक के रूप में कार्यरत प्रोफेसर चंद्रचूर सिंह इसे एक ‘नए भारत की फिर से कल्पना करने’ और ‘कमजोर अतीत’ के चिन्हों को ख़त्म करने का प्रयास बताते हैं.

वे कहते हैं, ‘भारत के बारे में पीएम मोदी की अपनी समझ, साथ ही भारत के बारे में वे जिस तरह की बातें कहते हैं, एक ऐसे नए भारत के बारे में अधिक है जो बहुत मजबूत है, जिसे बरगलाया नहीं जा सकता है. वह जो करने की कोशिश कर रहे हैं वह संभवतः अतीत और भविष्य के बीच अंतर पैदा करना है. और अतीत एवं भविष्य के बीच का अंतर केवल किसी ऐसी चीज का निर्माण करके निर्धारित किया जा सकता है जो बहुत ही नवीन हो और जो आने वाली पीढ़ियों को किसी कमजोर अतीत या ऐतिहासिक निर्माण की याद न दिलाए.’

इस बीच, संविधान विशेषज्ञ फैजान मुस्तफा का कहना है कि ‘ड्यूटी’ (कर्त्वय) पर ज्यादा फोकस करने का नैरेटिव कोई नई अवधारणा नहीं है और पीएम मोदी कुछ नया नहीं प्रस्तावित कर रहे हैं.

वे कहते हैं, ‘भारतीय संस्कृति ही कर्तव्य-केंद्रित है. यह अधिकारों के प्रति उतनी जागरूक नहीं है. न केवल पीएम मोदी, बल्कि गांधीजी और उनके अलावा अन्य कई अन्य नेताओं ने भी कर्तव्यों को निभाये जाने पर जोर दिया है. लेकिन उदारवादी संविधानों में यह अवधारणा नहीं थी. इसलिए भारतीय संविधान में भी यह अवधारणा शामिल नहीं की गई थी थी. दरअसल, मौलिक कर्तव्यों वाला अध्याय बहुत बाद में, साल 1976 में, श्रीमती इंदिरा गांधी द्वारा लाया गया था. ‘

यह इंदिरा गांधी सरकार ही थी जिसने भारतीय संविधान में अनुच्छेद 51-ए को शामिल करके 42वें संविधान संशोधन अधिनियम, 1976 के माध्यम से मौलिक कर्तव्यों की शुरुआत की थी. मूल रूप से इसमें 10 कर्तव्य शामिल थे और बाद में अटल बिहारी वाजपेयी सरकार द्वारा 86 वें संविधान संशोधन अधिनियम, 2002 के माध्यम से एक और कर्तव्य जोड़ा गया था.

तत्कालीन यूनियन ऑफ़ सोवियत सोशलिस्ट रिपब्लिक (यूएसएसआर) और यूनिवर्सल डिक्लेरेशन ऑफ़ ह्यूमन राइट्स (मानवाधिकारों की सार्वभौम घोषणा) को आम भारतीयों के लिए निर्धारित किये गए इन कर्तव्यों के पीछे की प्रेरक शक्ति कहा जाता है.


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गुलामी काल के अवशेषों के खात्मे पर है जोर

अपने सत्ता में आने के बाद से ही मोदी सरकार ब्रिटिश उपनिवेश काल के चिन्हों को हटाते जा रही है. इस साल की शुरुआत में, ‘बीटिंग द रिट्रीट समारोह’ के दौरान बजाई जाने वाली पारंपरिक ईसाई धुन ‘एबाइड बाई मी’ की जगह सदाबहार भारतीय तराने ‘ऐ मेरे वतन के लोगो’ को लाया गया था.

पिछले हफ्ते, भारतीय नौसेना के झंडे में शामिल सेंट जॉर्ज के क्रॉस को मराठा योद्धा राजा शिवाजी के मुहर वाले प्रतीक के साथ बदल दिया गया था.

जनवरी में, इंडिया गेट पर जलने वाली ‘अमर जवान ज्योति’ को राष्ट्रीय युद्ध स्मारक में जल रही लौ में मिला दिया गया था. तब सरकार की ओर से कहा गया था, ‘इंडिया गेट पर अंकित नाम केवल उन कुछ शहीदों के हैं जो प्रथम विश्व युद्ध और एंग्लो-अफगान युद्ध में अंग्रेजों के लिए लड़े थे और इस तरह से यह हमारे औपनिवेशिक अतीत के प्रतीक हैं.’

हालांकि, प्रोफेसर सिंह ने आगाह किया कि इस तरह से ‘इतिहास को काला करने’ के अपने नुकसान हैं.

वे कहते हैं, ‘इस तरह का नैरेटिव इस अर्थ में बहुत दोतरफा होता है कि किसी राष्ट्र के इतिहास को केवल काट कर हटाया या स्याह नहीं किया जा सकता है. अंततोगत्वा, भले ही यह शोषण का इतिहास था, मगर इसका भी प्रेरणादायक महत्त्व है.’

इस के सकारात्मक पक्ष के बारे में यह राजनीतिक विश्लेषक कहते हैं, ‘ये कदम यह सुझाव देने के प्रयास हैं कि देश अपने ‘अंधकार युग’ से बाहर आ गया है और शायद नया युग एक बहुत ही आधुनिक भारत का है. स्वाभाविक रूप से, यह अतीत की छाया से बाहर आने के लिए डिज़ाइन किया गया है.’

सिंह जोर देकर कहते हैं, ‘हालांकि, यह एक तरह से त्रुटिपूर्ण भी है, यह हमें एक ऐसे भारत की समझ देता है जो ‘आने वाले कल’ में होगा. लेकिन वह ‘आने वाला कल’ तब और भी ज्यादा सार्थक हो जाता है जब हम इसे ‘बीते हुए कल’ के संदर्भ में देखें.’

उन्होंने आगे कहा कि (इतिहास के) पूरी तरह से पुनर्लेखन, या अतीत को स्याह करके भविष्य के महत्त्व पर फिर से जोर देने के साथ इसकी अपनी समस्याएं जुडी हैं.

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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