नई दिल्ली: अमेरिका के धीरे-धीरे अफगानिस्तान से अपने सैनिकों को हटाने के साथ ही तालिबान देश में फिर से हिंसा के सहारे अपने पैर पसार रहा है.
इस्लामिक कट्टरपंथी समूह, जो 2001 में सत्ता से बाहर हो गया था, युद्धग्रस्त देश के कई इलाकों में तेज़ी से आगे बढ़ रहा है और अपने हिंसक तरीकों को जारी रखे हुए है. मंगलवार को कुछ फुटेज सामने आई जिसमें पिछले महीने तालिबान लड़ाकों को अफगान कमांडोज़ को फांसी चढ़ाते देखा जा सकता है.
ये तब है जब अंतर्राष्ट्रीय समुदाय खासकर अमेरिका, अफगानिस्तान में एक लोकतांत्रिक प्रक्रिया के तहत तालिबान को मुख्यधारा की राजनीति में लाने की कोशिश कर रहा है.
लेकिन 2001 में जब तालिबान अफगानिस्तान में आखिरी बार सत्ता में था, तब से इनमें बहुत बदलाव आए हैं. इनमें समझौता करने की कुशलता पैदा हो गई है और अब ये दुनिया भर की सरकारों के साथ मेलजोल रख रहे हैं, भले ही इनकी विचारधारा वही बनी हुई हो.
एक बदलाव तो ये है कि इसमें अब पुराने सदस्य बाकी नहीं रह गए हैं क्योंकि उनमें से बहुत से सदस्य अंतर्राष्ट्रीय सैनिकों के हाथों मार दिए गए हैं.
पिछले दो दशकों में तालिबान कैसे विकसित हुआ है और कैसे 31 अगस्त तक अमेरिकी सैनिक अफगानिस्तान को छोड़ देंगे और 20 साल से चल रहे ‘अजेय युद्ध’ का अंत हो जाएगा, इस पर दिप्रिंट एक नज़र डाल रहा है.
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तालिबान का पतन और पुनरुत्थान
तालिबान का मुख्य उद्देश्य हमेशा से अफगानिस्तान में एक इस्लामी अमीरात की स्थापना करना रहा है, जिसे वो अफगानी लोगों का जायज़ अधिकार मानते हैं.
तालिबान में मुख्य रूप से पश्तून जाति के सदस्य शामिल हैं और इसे दिसंबर 2001 में अमेरिका के आतंक के खिलाफ युद्ध के दौरान सत्ता से बेदखल कर दिया गया था. उस युद्ध के सीधे निशाने पर तालिबान नहीं बल्कि अल-कायदा आतंकी थे.
तालिबान पर, जिसका प्रमुख उस समय मुल्ला मोहम्मद उमर था, जो उसका एक मुख्य संस्थापक भी था, उसपर ओसामा बिन लादेन और अन्य अल-कायदा दहशतगर्दों को पनाह देने का आरोप था, जिन्हें 9/11 हमलों के लिए ज़िम्मेदार माना जा रहा था. मुल्ला उमर छिप गया और 2013 में अपनी मौत तक छिपा रहा, जिसका ऐलान 2015 में किया गया.
अमेरिकी सैनिकों के अफगानिस्तान की ज़मीन पर उतरने के साथ ही तालिबान ने पीछे हटना शुरू कर दिया. जून 2002 में अफगानिस्तान में राष्ट्रपति हामिद करज़ई के अंतर्गत एक ट्रांजिशनल सरकार सत्ता में आ गई.
तालिबान ने विद्रोह का रास्ता पकड़ लिया, खासकर हेलमंद प्रांत में और उन्हें 2007 में एक बड़ा झटका तब लगा जब दक्षिणी अफगानिस्तान में उनका एक शीर्ष ऑपरेशनल कमांडर मुल्ला दादुल्लाह लड़ाई में मारा गया.
2012 तक आते-आते ये ग्रुप एक बार फिर सामने आया और कतर के दोहा में उसने एक दफ्तर खोल लिया.
जब तालिबान ने अफगानिस्तान में एक राजनीतिक समझौते के लिए अमेरिका के साथ शांति वार्त्ता शुरू करने में दिलचस्पी दिखाई, तो सुलह की उम्मीद फिर से जाग उठी.
उसके बाद कई घटनाक्रम हुए- 2014 में तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने एक योजना की घोषणा की, जिसमें कहा गया कि युद्ध खत्म किया जाएगा और 2016 तक उनके देश के सैनिक वापस लौट आएंगे.
उसी साल अफगानिस्तान में राष्ट्रपति अशरफ ग़नी और उनके विरोधी अब्दुल्लाह अब्दुल्लाह के बीच सत्ता-बंटवारे के समझौते के तहत एक एकता सरकार सत्ता में आई. अब्दुल्लाह इस समय सरकार की ओर से शांति और सुलह के प्रमुख नेता हैं.
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2021 का तालिबान- 9/11 के दो दशक बाद
2012 के बाद से तालिबान ने तेज़ी के साथ अपनी ताकत बढ़ाई है. लेकिन 2016 में उसके शीर्ष नेतृत्व में एक बदलाव हुआ, जब अमेरिकी बलों ने उसके तत्कालीन प्रमुख मुल्ला अख़्तर मंसूर को मार गिराया.
नेतृत्व उसके डिप्टी और कट्टर धार्मिक स्कॉलर हिबतुल्लाह अख़ुंदज़ादा के हाथ में आ गया, जो आज तक संगठन की कमान संभाले हुए हैं.
मई 2021 में जब अंतर-अफगान वार्ता के तहत हो रही शांति की बातचीत पटरी से उतरनी शुरू हुई तो अख़ुंदज़ादा ने, जो कंधार के निवासी हैं, अफगानियों का आह्वान किया कि अंतर्राष्ट्रीय सैनिकों के देश छोड़ने के साथ ही अपनी जन्मभूमि के ‘पुनर्विकास’ के लिए एकजुट हो जाएं.
अफगानिस्तान से बाहर तालिबान का बाहरी चेहरा हैं मुल्ला अब्दुल ग़नी बरादर, उनके मुख्य वार्ताकार जो 2019 से दोहा में इस्लामिक अमीरात के राजनीतिक ऑफिस के प्रमुख का काम देख रहे हैं.
बरादर तालिबान के सह-संस्थापकों में से एक हैं, जिन्होंने 1994 में मुल्ला उमर के साथ ग्रुप की स्थापना की थी. ये बरादर ही थे, जिन्हें ‘ब्रदर’ भी कहा जाता है, जिन्होंने अफगानिस्तान में अमेरिका के शांति दूत ज़लमय ख़लीलज़ाद के साथ फरवरी 2020 में तथाकथित शांति समझौते पर दस्तखत किए थे.
इस साल अप्रैल में तालिबान का एक हाई-प्रोफाइल कमांडर मौलावी अहमद कंधारी, जो उनका दूसरा सबसे बड़ा चेहरा था, मार डाला गया.
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आज का तालिबान 90 के दशक के तालिबान से कितना अलग है?
विशेषज्ञों का कहना है कि 1990 के दशक के मुकाबले आज का तालिबान कहीं ज़्यादा बंटा हुआ है, हालांकि वो आज भी उतने ही कट्टर और हिंसक हैं, जितने पहले हुआ करते थे.
काबुल में भारत के पूर्व राजदूत जयंत प्रसाद ने दिप्रिंट को बताया, ‘तालिबान के बीच विभाजन कई रूपों में है, नरमपंथी तालिबान, कट्टरपंथी तालिबान, स्वतंत्र तालिबान, आश्रित तालिबान…इनका कोई और रूप नहीं है’.
प्रसाद, जो दिल्ली स्थित इंस्टीट्यूट ऑफ डिफेंस स्टडीज़ एंड एनालसिस के पूर्व महानिदेशक भी हैं- ने कहा कि ‘तालिबान, आईएसआईएस और हक़्क़ानी नेटवर्क के बीच बड़ा आसान को-हैबिटेशन’ है.
उन्होंने कहा, ‘वो सब एक ही लोकाचार का हिस्सा हैं, सब एक साथ ही रहे हैं और लड़ाई में भी एक साथ हैं’. उन्होंने आगे कहा, ‘एक बार वो अफगानिस्तान में ठीक से स्थापित हो जाएं, तो उनके और पाकिस्तान के बीच कुछ खेल शुरू हो जाएगा’.
प्रसाद ने ज़ोर देकर कहा, ‘ये याद रखना चाहिए कि अफगानिस्तान में ज़मीनी स्तर पर तालिबान जितना आगे बढ़ रहा है, आखिर में दोहा वार्ता में उन्हें अपनी मोलभाव की ताकत बढ़ाने में उतनी ही सहायता मिलेगी’.
युनाइटेड स्टेट्स इंस्टीट्यूट फॉर पीस (यूएसआपी) के एक रिसर्च पेपर के अनुसार, एक दशक पहले जब अमेरिकी सेना और उसके नेटो सहयोगी, तेज़ी के साथ फिर से खड़े हो रहे तालिबान को काबू करने में जूझ रहे थे, उसी समय अंतर्राष्ट्रीय समुदाय के भीतर एक धारणा घर कर गई थी कि तालिबान की कदाचित खंडित नेचर का फायदा उठाया जा सकता है और खाली सैन्य बल के दम पर उन्हें काबू किया सकता है.
रॉ के एक पूर्व अधिकारी ने, जो अफगानिस्तान में तैनात रहे हैं, नाम न बताने की शर्त पर दिप्रिंट से कहा, ‘तालिबान अब एक विशालकाय इकाई नहीं रह गया है. आज उनकी बहुत सी शाखाएं, समूह और संबद्ध संगठन हैं. लेकिन हां, ये सही है कि वो सब एक ही मकसद के लिए काम कर रहे हैं और वो मकसद है अफगानिस्तान में अपना प्रभुत्व जमाना’.
अधिकारी ने आगे कहा, ‘बरादर के पाकिस्तान, खासकर हक़्क़ानी नेटवर्क और एलईटी (लश्कर-ए-तैयबा) के साथ मज़बूत रिश्ते हैं. पुराने सदस्य अब कुछ हद तक हाशिए पर आ गए हैं’.
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