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Thursday, 25 December, 2025
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‘MLA सार्वजनिक सेवक नहीं’: POCSO की खामी जिसके आधार पर HC ने उन्नाव रेप के दोषी की सज़ा निलंबित की

पीड़िता का कहना है कि वह सुप्रीम कोर्ट जाएगी, यह घटना इंडिया गेट पर विरोध प्रदर्शन के दौरान पुलिस द्वारा उसे घसीटकर ले जाने के एक दिन बाद हुई.

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नई दिल्ली: 2017 के उन्नाव बलात्कार मामले में पूर्व बीजेपी विधायक कुलदीप सिंह सेंगर की सजा निलंबित करते हुए दिल्ली हाई कोर्ट ने अपने 53 पन्नों के आदेश में प्रथम दृष्टया कहा कि सेंगर को POCSO कानून के तहत “लोक सेवक” नहीं माना जा सकता. इसलिए उन पर नाबालिग के खिलाफ “लोक सेवक द्वारा गंभीर यौन उत्पीड़न” का आरोप लागू नहीं होता, जिसमें 20 साल या आजीवन कारावास की सजा का प्रावधान है.

बुधवार को पीड़िता ने कहा कि वह दिल्ली हाई कोर्ट के आदेश के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट जाएंगी. उन्होंने नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी से भी मुलाकात की. इससे एक दिन पहले उन्हें इंडिया गेट पर प्रदर्शन के दौरान पुलिस ने हटा दिया था.

जस्टिस सुब्रमण्यम प्रसाद और वैद्यनाथन शंकर की बेंच ने कहा कि ट्रायल कोर्ट ने सेंगर को POCSO की धारा 5 के तहत दोषी ठहराया था, लेकिन उस समय विधायक होने के बावजूद वह इस कानून के तहत लोक सेवक की परिभाषा में नहीं आते.

सेंगर को 2019 में POCSO की धारा 5 और 6 के तहत दोषी ठहराया गया था. धारा 5 लोक सेवक या अधिकार की स्थिति में बैठे व्यक्ति द्वारा बच्चे के साथ गंभीर यौन उत्पीड़न से जुड़ी है. इसमें पुलिस, सुरक्षा बलों के सदस्य और अस्पताल स्टाफ जैसे लोग शामिल हैं. धारा 6 के तहत सजा 20 साल से लेकर आजीवन कारावास तक हो सकती है.

हाई कोर्ट ने कहा कि जब गंभीर अपराध साबित नहीं होता, तो सेंगर पर POCSO की धारा 4 लागू होगी, जिसमें 10 साल से लेकर आजीवन कारावास तक की सजा का प्रावधान है.

अदालत ने कहा कि सेंगर का मामला 2019 से पहले के संशोधित न हुए POCSO कानून के तहत दर्ज हुआ था, जिसमें न्यूनतम सजा सात साल थी. चूंकि उन्होंने न्यूनतम सजा पूरी कर ली है, इसलिए सजा निलंबन का आधार बनता है.

अदालत ने शर्त रखी कि रिहाई के बाद सेंगर पीड़िता या उसकी मां को धमका नहीं सकते. उन्हें हर सोमवार सुबह 10 से 11 बजे के बीच थाने में हाजिरी देनी होगी. उन्हें अपील के निपटारे तक दिल्ली में रहना होगा और पीड़िता के घर से 5 किलोमीटर के दायरे में नहीं जाना होगा.

अदालत ने कहा कि भले ही सुप्रीम कोर्ट ने पीड़िता और उसकी मां की सुरक्षा हटाई हो, लेकिन CRPF सुरक्षा जारी रहनी चाहिए.

अदालत ने यह भी कहा कि केवल इस आशंका के आधार पर किसी को जेल में नहीं रखा जा सकता कि पुलिस या अर्धसैनिक बल अपना काम ठीक से नहीं करेंगे. ऐसा सोचना पुलिस बल के काम को कमजोर करता है.

लोक सेवक कौन हैं

सेंगर ने दलील दी कि वे सात साल से ज्यादा समय से जेल में हैं और अस्थायी सजा निलंबन का हकदार है. उसने 1997 के एलके आडवाणी मामले में दिल्ली हाई कोर्ट के फैसले का हवाला दिया.

कोर्ट ने यह भी कहा कि हालांकि POCSO एक्ट में “सरकारी कर्मचारी” शब्द को परिभाषित नहीं किया गया है, लेकिन इसे IPC, CrPC और जुवेनाइल जस्टिस एक्ट जैसे कई दूसरे कानूनों में परिभाषित किया गया है. इसके बाद, कोर्ट ने IPC के तहत इस शब्द की परिभाषा का विश्लेषण किया, जिसमें सरकारी अधिकारी तो शामिल हैं, लेकिन इसमें MLA या राजनेताओं का ज़िक्र नहीं है.

दो जजों की बेंच ने कहा, “IPC की धारा 21 से पता चलता है कि ‘सरकारी कर्मचारी’ की परिभाषा में विधान सभा का सदस्य शामिल नहीं है. इसी सिलसिले में, सुप्रीम कोर्ट ने एआर अंतुले मामले में साफ तौर पर कहा है कि एक MLA IPC के तहत ‘सरकारी कर्मचारी’ की परिभाषा में नहीं आता है.”

सेंगर का बचाव और अदालत का फैसला

सबसे पहले, सेंगर ने दलील दी कि अभियोजन का पूरा मामला इस बात पर टिका है कि पीड़िता नाबालिग थी. उसने कहा कि स्कूल के दाखिला रजिस्टर से यह साबित होता है कि वह नाबालिग नहीं थी. पीड़िता के स्कूल प्रिंसिपल ने भी माना कि उसके नाम के सामने की एंट्री को “रगड़कर दोबारा लिखा गया” था. सेंगर ने अस्पताल की रिपोर्ट और उस सरकारी प्राथमिक स्कूल के दस्तावेजों का हवाला दिया, जहां पीड़िता ने पढ़ाई की थी, यह बताने के लिए कि उसका जन्म 1998 में हुआ था, न कि 2002 में जैसा कि उसने दावा किया. इसके जरिए सेंगर यह साबित करना चाहता था कि घटना के समय पीड़िता की उम्र 18 साल से अधिक थी.

उसकी दूसरी दलील यह थी कि घटना के समय वह शाम 8 से 8.30 बजे के बीच उन्नाव सिटी ऑफिस में थे, जो उनके घर से करीब 14 किलोमीटर दूर है, जहां घटना हुई थी. इसके अलावा, सिटी ऑफिस से निकलने के बाद वह अपने चचेरे भाई के निजी कार्यक्रम में शामिल होने के लिए कानपुर चला गया था. इसे साबित करने के लिए उसने अपने दो मोबाइल फोन के कॉल डिटेल रिकॉर्ड पेश किए, जिनसे उसकी लोकेशन घटना स्थल से दूर दिखाई गई. इसके साथ ही उन्होंने रेप के आरोप में देरी का मुद्दा भी उठाया. उसने कहा कि पीड़िता ने मजिस्ट्रेट के सामने नहीं बल्कि मुख्यमंत्री को पत्र लिखकर आरोप लगाए, जो घटना के दो महीने से ज्यादा समय बाद भेजा गया था. उसने इसे “बाद में सोची गई बात” बताया.

पीड़िता के वकील ने दलील दी कि जांच में खामियां थीं क्योंकि सेंगर सत्ता की स्थिति में थे और उन्होंने अपने फायदे के लिए कानून को मोड़ा. पीड़िता की ओर से यह भी कहा गया कि उसकी जान को गंभीर खतरा है क्योंकि उसके पिता की पहले ही हत्या हो चुकी है और सेंगर हत्या के अपराध में दोषी पाए जा चुके हैं.

अदालत ने पीड़िता के वकील की उस मांग को खारिज कर दिया जिसमें अपील पर अंतिम सुनवाई की मांग की गई थी, न कि सिर्फ सजा निलंबन के पहलू पर फैसला करने की.

अदालत ने यह भी नोट किया कि पीड़िता के वकीलों ने आगे सबूत पेश करने के लिए एक अर्जी दाखिल की थी. इस पर दो जजों की बेंच ने कहा कि आगे सबूत दर्ज करने के लिए गवाहों की जांच करनी होगी और इसके लिए मामला फिर से ट्रायल कोर्ट को भेजना पड़ेगा. ऐसी स्थिति में, जब अपीलकर्ता पहले ही 7 साल 5 महीने जेल में बिता चुका है, उसे जेल में बनाए रखना संविधान के अनुच्छेद 21 यानी जीवन के अधिकार का उल्लंघन होगा.

अदालत ने यह भी कहा कि केवल पीड़िता को खतरे की आशंका के आधार पर सेंगर को हिरासत में नहीं रखा जा सकता. यह तर्क उन्हें दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 389 का लाभ देने से इनकार करने के लिए पर्याप्त नहीं है. यह धारा अपील लंबित रहने के दौरान सजा निलंबन की अनुमति देती है, बशर्ते कुछ शर्तें पूरी हों. अदालत ने सुप्रीम कोर्ट के कश्मीर सिंह मामले के फैसले का भी हवाला दिया, जिसमें कहा गया था कि आजीवन कारावास की सजा पाए व्यक्ति को भी जमानत दी जा सकती है. सुप्रीम कोर्ट ने 1977 के फैसले में कहा था कि किसी व्यक्ति को पांच या छह साल तक जेल में रखना, जबकि अंत में यह पाया जाए कि उसने अपराध किया ही नहीं, न्याय का मजाक होगा.

मामले की यात्रा

यह मामला उन्नाव की एक नाबालिग लड़की द्वारा तत्कालीन भाजपा नेता सेंगर पर आपराधिक धमकी, बलात्कार और गंभीर यौन उत्पीड़न के आरोप लगाने से शुरू हुआ. सेंगर की सजा से एक साल पहले इस मामले की जांच सीबीआई को सौंप दी गई थी. जून 2017 में पीड़िता ने यौन शोषण के लिए बंधक बनाए जाने और सामूहिक बलात्कार का आरोप लगाते हुए एक और एफआईआर दर्ज कराई.

इसी दौरान पीड़िता के पिता के खिलाफ बिना लाइसेंस के हथियार रखने और शांति भंग करने के इरादे से अपमान करने के आरोप में आर्म्स एक्ट के तहत मामला दर्ज किया गया. इसके जवाब में रेप पीड़िता की मां ने भी अपने पति पर हमले का आरोप लगाते हुए केस दर्ज कराया.

अगस्त 2019 में सुप्रीम कोर्ट ने सभी मामलों को, जिनमें पीड़िता के पिता के खिलाफ मामले भी शामिल थे, लखनऊ की सीबीआई अदालत से दिल्ली की ट्रायल कोर्ट में स्थानांतरित कर दिया. बाद में इसी अदालत ने सेंगर को दोषी ठहराया.

ट्रायल कोर्ट ने सेंगर को दोषी क्यों ठहराया

यह साबित होने के अलावा कि पीड़ित नाबालिग थी, ट्रायल कोर्ट ने कहा कि यह एक “न टाला जा सकने वाला नतीजा” था कि इस मामले में जांच अधिकारी ने निष्पक्ष जांच नहीं की. देरी और चार्जशीट देर से दाखिल होने के कारण पीड़ित को नुकसान हुआ.

ट्रायल कोर्ट ने कहा था कि सेंगर यह भी साबित नहीं कर पाए कि घटना के समय वह अपने घर पर मौजूद नहीं थे. कोर्ट के सामने विचार के लिए एक बड़ा सवाल यह था कि क्या वह सरकारी कर्मचारी थे या नहीं. इस सवाल का जवाब हां में देते हुए ट्रायल कोर्ट ने कहा था कि सरकारी कर्मचारी वह होता है जिसके पास आधिकारिक पद और दर्जा होता है और जिसे संविधान के तहत कुछ कर्तव्य निभाने होते हैं.

POCSO एक्ट के पूरे संदर्भ में ट्रायल कोर्ट में यह नतीजा निकला कि अगर कोई विधायक या चुना हुआ प्रतिनिधि POCSO के तहत कोई अपराध करता हुआ पाया जाता है, तो वह सीधे तौर पर एक्ट की धारा 5(c) के तहत आएगा.

2019 के इस दोषसिद्धि के आदेश को चुनौती देते हुए सेंगर ने दिल्ली हाई कोर्ट का रुख किया था.

(इस रिपोर्ट को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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