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Friday, 28 June, 2024
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‘मिसिंग फाइल्स, फटाफट जमानत’- योगी सरकार के पैनल का दावा गैंगस्टर विकास दुबे को ‘सरकारी संरक्षण’ हासिल था

जस्टिस बी.एस. चौहान (रिटायर्ड) की अध्यक्षता वाले आयोग ने आठ पुलिस कर्मियों की हत्या और उसके बाद कथित मुठभेड़ में दुबे को ढेर कर दिए जाने के मामले में अपनी जांच रिपोर्ट 2021 में यूपी सरकार को सौंपी थी. यह रिपोर्ट इसी हफ्ते सार्वजनिक की गई है.

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नई दिल्ली: इलाहाबाद हाई कोर्ट से संरक्षण संबंधी आदेश, ट्रायल कोर्ट की कार्यवाही टलना, गुपचुप और त्वरित ढंग से जमानत आदेश हासिल हो जाना, मुकदमा चलाने को लेकर राज्य सरकार की ओर से कोई गंभीर कदम न उठाया जाना और मामले के रिकॉर्ड गायब होना- ये कुछ महत्वपूर्ण निष्कर्ष हैं जो विकास दुबे मुठभेड़ मामले की जांच करने वाले जस्टिस बीएस चौहान आयोग ने निकाले हैं.

आयोग ने एक रिपोर्ट में कहा कि कथित गैंगस्टर को जुलाई 2020 में मार गिराए जाने के पहले तक उत्तर प्रदेश में राज्य और पुलिस का पूरा संरक्षण मिला हुआ था. रिपोर्ट में कथित तौर पर दुबे की सहायता करने वाले पुलिस अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई की सिफारिश की गई है.

तीन सदस्यीय आयोग ने आगे कहा, ‘विकास दुबे और उसके सहयोगियों को अदालतों से आसानी से और जल्द जमानत मिल जाती थी क्योंकि राज्य के अधिकारियों/सरकारी अधिवक्ताओं की तरफ से कोई गंभीर विरोध नहीं किया जाता था. वह 64 आपराधिक मामलों में शामिल था, (फिर भी) राज्य के अधिकारियों ने कभी भी उसके खिलाफ मुकदमे के लिए कोई विशेष वकील नियुक्त करना उचित नहीं समझा.’

रिपोर्ट में आगे कहा गया है, ‘राज्य की तरफ से कभी जमानत रद्द करने के लिए कोई आवेदन नहीं किया गया या किसी भी जमानत आदेश को रद्द करने के लिए हाई कोर्ट का रुख नहीं किया गया.’

आठ पुलिसकर्मियों की हत्या और उसके बाद मुठभेड़ों में विकास दुबे और उसके पांच कथित सहयोगियों को मार गिराए जाने के मामले की जांच के लिए 22 जुलाई, 2020 को सुप्रीम कोर्ट के सेवानिवृत्त न्यायाधीश चौहान की अध्यक्षता में एक आयोग का गठन किया गया था.

आयोग की 817 पृष्ठों वाली यह रिपोर्ट इसी हफ्ते सार्वजनिक हुई जब इसे सुप्रीम कोर्ट की वेबसाइट पर अपलोड किया गया. यह 22 जुलाई को चीफ जस्टिस एनवी रमना की अगुवाई वाली पीठ के आदेश पर किया गया, जिसने रजिस्ट्री को सुप्रीम कोर्ट के आधिकारिक पोर्टल पर ये रिपोर्ट अपलोड करने को कहा और उत्तर प्रदेश को आयोग की सिफारिशों पर कार्रवाई का निर्देश दिया.
साथ ही, अदालत ने दो वकीलों की तरफ से दायर उन जनहित याचिकाओं (पीआईएल) का निपटारा कर दिया जिसमें मुठभेड़ को पूर्व नियोजित बताते हुए इस मामले में निष्पक्ष जांच की मांग की गई थी.

आयोग ने अप्रैल 2021 में योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व वाली यूपी सरकार को अपनी रिपोर्ट सौंपी और अगस्त 2021 में इसे राज्य विधानसभा के सामने पेश किया गया. रिपोर्ट में मुठभेड़ मामले में इस आधार पर राज्य के पुलिस अधिकारियों को क्लीन चिट दी गई कि किसी प्रत्यक्षदर्शी ने संदेह या सवाल नहीं उठाया था.

पिछले हफ्ते सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने सीजेआई रमना की अदालत को बताया कि राज्य ने जस्टिस चौहान आयोग की सिफारिशों को स्वीकार कर लिया है और रिपोर्ट को यूपी विधानसभा के समक्ष रखा गया है.


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गायब हुईं फाइलें

आयोग ने अपनी रिपोर्ट में महत्वपूर्ण दस्तावेजों को खोजने के लिए पांच महीने का समय दिए जाने के बावजूद दुबे के खिलाफ 21 केस फाइलों का पता नहीं लगा पाने को लेकर यूपी पुलिस की खिंचाई की है. इनमें 12 मामलों में विकास दुबे को बरी कर दिया गया था और इस बारे में कोई जानकारी नहीं है कि क्या आदेशों को कोई चुनौती दी गई थी. जबकि एक मामले में उसे जमानत पर दिखाया गया है, रिपोर्ट में बाकी केस फाइल के बारे में कोई जानकारी नहीं है.

गायब फाइलों का रहस्य आयोग के संज्ञान में तब आया जब उसने विकास दुबे के खिलाफ मामलों में एफआईआर, चार्जशीट, गवाहों की सूची के साथ उनके बयानों के बाबत जानकारी मांगी. जवाब में पुलिस ने कहा कि दस्तावेजों का पता नहीं चल रहा.
आयोग ने उन अदालतों में कड़ाई के साथ विरोध न जताने को लेकर भी यूपी पुलिस की आलोचना की, जहां दुबे के खिलाफ मामलों की सुनवाई हुई और उसे राहत दी गई. कुछ मामलों में निचली अदालतें आगे नहीं बढ़ सकीं क्योंकि इलाहाबाद हाई कोर्ट ने उन पर स्थगन आदेश जारी कर रखा था.

यद्यपि स्टे ऑर्डर करीब 13-14 साल तक लागू रहे, और हाल ही में हटाए गए थे- वर्ष 2018 में- लेकिन पुलिस ने इन स्टे ऑर्डर को रद्द कराने या इसके बावजूद विकास दुबे के आपराधिक गतिविधियों में लिप्त होने पर भी उसकी जमानत रद्द कराने का कोई प्रयास नहीं किया. रिपोर्ट में कहा गया है कि इसने विकास दुबे को कथित तौर पर एकदम बेखौफ होकर अपनी आपराधिक गतिविधियां जारी रखने के लिए प्रोत्साहित किया.

राजनेताओं, पुलिस, राज्य प्रशासन और राजस्व अधिकारियों के साथ विकास दुबे के संबंधों पर रिपोर्ट में कहा गया है कि उनके साथ उसके ‘अच्छे संबंध’ थे और भूमि-हथियाने और अन्य गतिविधियों के साथ-साथ हथियार लाइसेंस और पासपोर्ट हासिल करने में विकास दुबे को उनसे ‘सहायता’ मिलती रही थी.

रिपोर्ट कहती है, ‘इस तरह की सहायता नियमों और कानूनों के वैधानिक प्रावधानों (जिसके तहत दुबे के खिलाफ मामले दर्ज थे) का पूरी तरह से उल्लंघन करके दी गई थी. जहां तक विकास दुबे और उसके साथियों का सवाल है, किसी भी अधिकारी ने कभी किसी मामले की ठीक से जांच नहीं की.’

इसमें चश्मदीद गवाहों के बयानों का उल्लेख है जो कहते हैं कि दुबे को बसपा और सपा का समर्थन हासिल था, और यही दोनों पार्टियां मौजूदा भाजपा सरकार से पहले यूपी में सत्ता पर काबिज रही थीं. लेकिन रिपोर्ट में किसी राजनेता विशेष की तरफ से विकास दुबे को संरक्षण देने की बात का समर्थन नहीं किया गया है.

केस स्टडी

आयोग ने अपनी रिपोर्ट में दुबे को कथित तौर पर राज्य संरक्षण के बारे में भी रोशनी डाली है. ऐसा ही एक उदाहरण हत्या के एक मामले का है जिसमें निचली अदालत ने 14 जून, 2004 को दुबे को दोषी ठहराया था. हालांकि, फैसला सुनाए जाने के एक दिन बाद ही दायर एक अपील पर इलाहाबाद हाई कोर्ट, जहां ग्रीष्मावकाश चल रहा था, ने 16 जून, 2004 को विकास दुबे को जमानत दे दी.

जमानत आदेश में कोई कारण नहीं बताया गया था और सरकारी वकील की तो दलीलें भी नहीं सुनी गई थीं. आयोग ने कहा कि आदेश में सिर्फ यही कारण बताया गया था कि दुबे मुकदमे के दौरान जमानत पर थे, जो तर्क कानून के अनुरूप नहीं था.

इसके विपरीत, यूपी सरकार ने हत्या के एक अन्य मामले में जब विकास दुबे को बरी करने के खिलाफ हाई कोर्ट में चुनौती दी, तो हाई कोर्ट ने बिना कोई कारण बताए अपील पर विचार करने से इनकार कर दिया. आयोग ने कहा कि हाई कोर्ट ने इस मामले में ठीक से जांच नहीं करने को लेकर पुलिस के खिलाफ की गई निचली अदालत की टिप्पणी पर भी कोई ध्यान नहीं दिया, जबकि कथित हत्या एक पुलिस स्टेशन के अंदर हुई थी.

घटना के दौरान थाने में तैनात सभी पुलिस अधिकारी डरकर भाग गए थे और पीड़ित का चालक बाद में मुकर गया था. आयोग ने इस मामले पर अपनी राय में कहा कि न तो राज्य ने मामले को हाई कोर्ट के समक्ष उचित तरीके से उठाने के लिए कोई विशेष वकील नियुक्त करने का प्रयास किया और न ही सरकारी वकील ने न्यायाधीशों को दुबे के आपराधिक इतिहास के बारे में अवगत कराया.

यूपी कंट्रोल ऑफ गुंडा एक्ट, 1970 के तहत दर्ज एक अन्य मामले में विकास दुबे दिसंबर 2005 में किसी कार्यवाही के खिलाफ स्टे लेने में कामयाब रहा. उक्त मामले के खिलाफ उनकी याचिका सितंबर 2018 में जाकर ही खारिज हुई.

हाई कोर्ट की तरफ से ट्रायल कोर्ट को मामले की सुनवाई से रोकने के बाद विकास दुबे को 14 साल तक लूटपाट और डकैती के एक मामले में संरक्षण हासिल रहा. यह संरक्षण अंततः नवंबर 2019 में हाई कोर्ट की तरफ से हटाया गया.

इसी तरह, मामला रद्द कराने संबंधी एक और याचिका पर, जो हत्या के प्रयास का मामला था- में हाई कोर्ट ने ट्रायल कोर्ट की कार्यवाही पर रोक लगा दी. 13 साल बाद मई 2019 में इसने याचिका खारिज की और फिर सुनवाई बहाल हो सकी.
आयोग ने कहा, ‘इन मामलों के आगे बढ़ाने में राज्य की लापरवाही स्पष्ट तौर पर नजर आती हैं और भविष्य में इस दिशा में सुधार के कदम उठाए जाने की जरूरत है.’

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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