नई दिल्ली: मोदी सरकार ने शुक्रवार को अमेरिकी थिंक टैंक फ्रीडम हाउस की उस रिपोर्ट को बाकायदा बिंदुवार खारिज कर दिया, जिसके स्वतंत्रता सूचकांक में भारत की रेटिंग ‘डाउनग्रेड’ की गई है और इसे ‘आंशिक रूप से स्वतंत्रत’ देश के तौर पर सूचीबद्ध किया गया है.
सरकार ने अपने बयान में कहा है कि ‘फ्रीडम इन द वर्ल्ड’ रिपोर्ट ‘भ्रामक, गलत और निराधार’ है.
विभिन्न राजनीतिक अधिकारों और नागरिक स्वतंत्रता के आधार पर आकलन करने के बाद रिपोर्ट में भारत को 67/100 का ‘ग्लोबल फ्रीडम स्कोर’ दिया गया है. रिपोर्ट में भारत में मुसलमानों के साथ कथित भेदभाव जैसे मुद्दों को उठाया गया है.
इसने विभिन्न आंदोलनों में शामिल एक्टिविस्ट की गिरफ्तारी और भारत स्थित कुछ एनजीओ के खिलाफ कार्रवाई के मुद्दे को भी उठाया है.
हालांकि, सरकार ने भारत के फ्रीडम रिकॉर्ड का बचाव करते हुए इस तथ्य की ओर ध्यान आकृष्ट किया कि कई राज्यों में राष्ट्रीय स्तर पर सत्ता में काबिज दल को छोड़कर अन्य पार्टियों का शासन है, यही नहीं उन्हें एक चुनाव प्रक्रिया के जरिये चुना जाता है जो स्वतंत्र और निष्पक्ष होता है और इन्हें एक स्वतंत्र चुनाव संस्था द्वारा कराया जाता है.
इसमें यह भी कहा गया कि यह एक जीवंत लोकतंत्र की कार्यप्रणाली को दर्शाता है, जो अलग-अलग विचार रखने वालों को भी पूरी जगह देता है.
‘सभी कानून बिना भेदभाव के लागू’
रिपोर्ट अन्य बातों के अलावा नरेंद्र मोदी शासन के तहत ‘मुसलिम आबादी को प्रभावित करने वाली भेदभावपूर्ण नीतियों और बढ़ती हिंसा’ और मीडिया, शिक्षाविदों, सिविल सोसाइटी समूहों और प्रदर्शनकारियों की तरफ से असंतोष व्यक्त किए जाने के खिलाफ कार्रवाई’ जैसे ‘मल्टीलेयर पैटर्न’ को सामने रखने की कोशिश करती है.
इस बारे में सरकार ने कहा कि वह अपने सभी नागरिकों के साथ समानता का व्यवहार करती है, जैसा देश के संविधान के तहत निर्धारित है, और सभी कानून बिना किसी भेदभाव के लागू किए जाते हैं.
इसमें कहा गया है, ‘कानून-व्यवस्था से जुड़े मामलों में कानूनी प्रक्रिया का पूरी तरह पालन किया जाता है, इसमें कथित तौर पर ऐसा करने वाले की पहचान कोई मायने नहीं रखती.’
फरवरी 2020 में उत्तर पूर्वी दिल्ली के दंगों का जिक्र करते हुए इसमें कहा गया है कि कानूनी मशीनरी ने पूरी तरह निष्पक्ष और बिना भेदभाव वाले तरीके से तेजी से काम किया.
साथ ही जोड़ा, ‘स्थिति को नियंत्रण में लाने के लिए सीमित और उपयुक्त कार्रवाई की गई. कानून-व्यवस्था बनाए रखने वाली पूरी मशीनरी ने सभी शिकायतों/कॉल पर पूरी तरह नियम-कायदों का पालन करते हुए जरूरी कानूनी और सुरक्षात्मक कदम उठाए थे.’
रिपोर्ट में ‘औपनिवेशिक काल वाले राजद्रोह कानून’ और सूचना प्रौद्योगिकी (आईटी) अधिनियम के तहत पत्रकारों, छात्रों और अन्य के खिलाफ दायर आपराधिक मामलों का जिक्र करते हुए कहा गया कि ये सब ‘सरकार की आलोचना माने वाले बयानों, खासकर नए नागरिकता कानून को लेकर विरोध जताने और कोविड-19 महामारी पर सरकार की आधिकारिक प्रतिक्रिया पर चर्चा करने के मद्देनजर उठाए गए कदम हैं.’
इस पर, सरकार ने कहा कि भारत के संघीय शासन के तहत ‘कानून-व्यवस्था’ और ‘पुलिस’ राज्य के विषय हैं.
साथ ही जोड़ा कि कानून-व्यवस्था बनाए रखने की जिम्मेदारी, जिसमें अपराधों की जांच, मामला दर्ज करना और मुकदमा करना, के साथ जीवन और संपत्ति की सुरक्षा करना मुख्य रूप से राज्य सरकारों के अधिकार क्षेत्र में है.
सरकार ने कहा, ‘ऐसे में कानून-व्यवस्था बनाए रखने के लिए जो कदम उपयुक्त समझे जाते हैं कानून प्रवर्तन एजेंसियां उन पर अमल करती हैं.’
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लॉकडाउन पर
फ्रीडम हाउस की रिपोर्ट में महामारी के मद्देनजर सरकार की तरफ से घोषित लॉकडाउन की वजह से भारत की आंतरिक प्रवासी आबादी के समक्ष पेश आई ‘चुनौतीपूर्ण कठिनाइयों’ पर भी ध्यान आकृष्ट किया गया है.
जवाब में सरकार ने कहा कि उसने स्थिति को संभालने के लिए कई कदम उठाए.
इसमें आगे कहा गया कि लॉकडाउन की अवधि में सरकार को मास्क, वेंटिलेटर, व्यक्तिगत सुरक्षा उपकरण (पीपीई) किट की उत्पादन क्षमता बढ़ाने की अनुमति दी और इस तरह से महामारी को फैलने से प्रभावी ढंग से रोका.
इसमें कहा गया है कि भारत प्रति व्यक्ति आधार पर वैश्विक स्तर पर सक्रिय कोविड-19 केस और कोविड-19 से संबंधित मौतों की सबसे कम दर दर्ज करने वाले देशों में एक रहा है.
फ्रीडम हाउस की रिपोर्ट में कहा गया है कि एनजीओ, खासकर ‘वो जो मानवाधिकारों के हनन की जांच में शामिल में शामिल हैं, को धमकियों, कानूनी उत्पीड़न, पुलिसिया कार्रवाई और कभी-कभी घातक हिंसा का सामना करना पड़ता है.’
रिपोर्ट में कहा गया है, कुछ परिस्थितियों में विदेशी चंदा विनियमन अधिनियम (एफसीआरए) केंद्रीय सरकार को एनजीओ को विदेशी चंदा लेने से वंचित करने की अनुमति देता है, और प्रशासनिक स्तर पर इस अधिकार का इस्तेमाल कथित तौर पर अपने राजनीतिक विरोधियों को निशाना बनाने के लिए किए जाने के आरोप भी लगते हैं.
इसके जवाब में सरकार ने मानवाधिकार संरक्षण अधिनियम 1993 का हवाला दिया जिसके तहत मानवाधिकारों के बेहतर संरक्षण के लिए राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग और राज्य मानवाधिकार आयोगों के गठन की व्यवस्था की गई है.
सरकार ने बताया, ‘राष्ट्रीय आयोग सुप्रीम कोर्ट के एक सेवानिवृत्त न्यायाधीश के नेतृत्व में चलता है और यह देश में उन मामलों की जांच, पड़ताल और आवश्यक सिफारिशें करने के लिए एक तंत्र के रूप में काम करता है, जिनमें मानवाधिकारों के उल्लंघन की बात सामने आती है.’
इन आरोपों कि ‘शिक्षाविदों के सामने उन विषयों पर चर्चा न करने का दबाव रहता है जिन्हें भाजपा सरकार संवेदनशील मानती है, खासकर भारत और पाकिस्तान के बीच रिश्ते और भारतीय हिस्से वाले कश्मीर की स्थितियां और पत्रकारों का उत्पीड़न होता है, सरकार ने कहा, ‘चर्चा, बहस और असंतोष भारतीय लोकतंत्र का हिस्सा हैं’
इसमें कहा गया है, ‘भारत सरकार पत्रकारों सहित देश के सभी नागरिको की सुरक्षा को सबसे अधिक महत्व देती है. भारत सरकार ने पत्रकारों की सुरक्षा पर राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों को विशेष परामर्श भी जारी किया है और उनसे मीडिया से जुड़े लोगों की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए कानूनों को सख्ती से लागू करने को कहा है.
सरकार के जवाब में दूरसंचार सेवाओं और इंटरनेट को अस्थायी तौर पर रोके जाने, जैसा गणतंत्र दिवस के मौके पर हिंसा के मद्देनजर दिल्ली-एनसीआर के कुछ इलाकों में किया गया था, को उचित ठहराने की कोशिश करते हुए कहा गया कि यह कदम ‘कानून-व्यवस्था बनाए रखने के उद्देश्य से कड़े सुरक्षात्मक उपायों’ के तहत उठाया गया था.
2020 में एफसीआरए में हुए संशोधन, जो एमनेस्टी इंटरनेशनल की संपत्ति फ्रीज करने का आधार बना, का जिक्र करते हुए कहा गया है कि संगठन को 20 साल पहले केवल एक बार एफसीआरए अधिनियम के तहत अनुमति मिली थी.
इसमें आगे कहा गया है कि एफसीआरए नियमों को धता बताने के लिए एमनेस्टी यूके ने भारत में पंजीकृत चार संस्थाओं को मोटी रकम का भुगतान प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) के नाम पर गलत तरीके से किया.
सरकार के बयान के मुताबिक, ‘एफसीआरए के तहत केंद्रीय गृह मंत्रालय की मंजूरी के बिना ही एमनेस्टी इंडिया को बड़े पैमाने पर विदेशी धन भेजा गया. दूसरे रास्तों से इस तरह धन भेजना कानूनी प्रावधानों का खुले तौर पर उल्लंघन है.’
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