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बुधवार, 25 जून, 2025
होमदेशएक फोन कॉल जिसने सब कुछ बदल दिया—IAS ऑफिसर ने इमरजेंसी को किया याद

एक फोन कॉल जिसने सब कुछ बदल दिया—IAS ऑफिसर ने इमरजेंसी को किया याद

उस समय दिल्ली में एडीएम के रूप में कार्यरत प्रदीप्तो घोष बताते हैं कि आपातकाल के दौरान मीसा के तहत किस प्रकार नजरबंदी के आदेश जारी किए गए थे.

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नई दिल्ली: 25 जून 1975 की रात करीब 10 बजे, भारतीय प्रशासनिक सेवा (आईएएस) के युवा अधिकारी प्रदीप्तो घोष, जो उस समय दिल्ली में अतिरिक्त जिलाधिकारी (एडीएम) के तौर पर तैनात थे, को उनके वायरलेस डिवाइस पर एक कॉल आया. उन्हें तीस हज़ारी के पास जिलाधिकारी (डीएम) के निवास पर तुरंत पहुंचने को कहा गया.

वे घर से निकल पड़े, यह जाने बिना कि वे भारत के इतिहास की सबसे अंधेरी रातों में से एक में कदम रख रहे हैं. जब वे डीएम के निवास पर पहुंचे, तो वहां पहले से ही चार अन्य एडीएम मौजूद थे. किसी को भी यह नहीं पता था कि उन्हें इतनी जल्दी क्यों बुलाया गया है.

उनकी चिंता तब और बढ़ गई जब उन्हें बताया गया कि डीएम प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के निवास पर गए हैं.

घोष ने मंगलवार को दिप्रिंट को दिए एक इंटरव्यू में बताया, “हम उनका इंतजार करते रहे, और लगभग एक घंटे बाद वे लौटे. वे बहुत परेशान थे और कांप रहे थे. फिर उन्होंने हमें बताया कि प्रधानमंत्री स्तर पर यह फैसला लिया गया है कि बड़ी संख्या में विपक्षी नेताओं को तुरंत गिरफ्तार किया जाएगा, और इन नेताओं की सूची जल्द ही पुलिस अधीक्षक और आपराधिक जांच विभाग (सीआईडी) से डीएम ऑफिस में भेजी जाएगी.”

यह खबर सुनकर घोष और बाकी अधिकारी स्तब्ध रह गए.

कुछ ही घंटे पहले, शाम को घोष दिल्ली के रामलीला मैदान में एक बड़ी रैली में शामिल हुए थे, जहां कई विपक्षी नेताओं, जिनमें जयप्रकाश नारायण भी शामिल थे, ने भीड़ को संबोधित किया था. डीएम ने सभी एडीएम अधिकारियों को वहां मौजूद रहने का निर्देश दिया था.

घोष ने बताया, “कोई भी असामान्य या भड़काऊ बात वहां नहीं कही गई थी… लेकिन जब हम घर लौटे तो डीएम ने हमें कहा था कि हम अपनी गाड़ियां और वायरलेस ऑपरेटर साथ रखें.”

जो इसके बाद हुआ, वह घोष की यादों में हमेशा के लिए दर्ज हो गया—भारत के लोकतांत्रिक इतिहास का एक काला अध्याय: 25 जून 1975 की आधी रात को इंदिरा गांधी द्वारा लगाया गया आपातकाल, जो 21 महीने तक चला. बुधवार को उस दिन की 50वीं बरसी है.

डीएम ने ADMs को बताया कि योजना यह है कि विपक्षी नेताओं को आंतरिक सुरक्षा अधिनियम (MISA 1971) के तहत हिरासत में लिया जाएगा, जो उस समय पहले से लागू था. लेकिन मीसा के तहत यह ज़रूरी था कि हिरासत में लिए गए व्यक्ति को गिरफ्तारी के समय आदेश की कॉपी दी जाए और 24 घंटे के भीतर हिरासत का कारण बताया जाए. “डीएम ने हमसे कहा कि उनके पास अभी वह वजह नहीं है. उन्होंने कहा, ‘अगर यह मामला कल कोर्ट में चला गया तो मेरे पास इन गिरफ्तारियों को सही ठहराने के लिए कुछ भी नहीं होगा’,” घोष ने बताया. “वह साफ़ तौर पर बहुत परेशान थे और भारी दबाव में थे.”

फिर भी, फैसला हो चुका था: डीएम मीसा के तहत गिरफ्तारी आदेश जारी करेंगे—क्योंकि कानूनी रूप से वही इसके लिए अधिकृत थे. एडीएम अधिकारियों को ये आदेश अपने-अपने पुलिस अधीक्षकों को सौंपने थे और पूरे दिल्ली में इन गिरफ्तारियों के लिए समन्वय करना था.

एक लंबी रात

घोष ने बताया कि इस पूरी प्रक्रिया में उन्हें दो बड़ी मुश्किलों का सामना करना पड़ा. घोष ने बताया, “एक तो यह कि हमने पहले कभी मीसा के तहत हिरासत का आदेश जारी नहीं किया था. इसलिए सबसे पहले हमें मीसा का हिरासत आदेश ड्राफ्ट करना था और इसके लिए कानूनी विशेषज्ञता चाहिए थी. लेकिन हम में से कोई भी कानूनी विशेषज्ञ नहीं था और न ही हमारे पास कोई सरकारी वकील या दिल्ली सरकार से कोई कानूनी सलाहकार मौजूद था. तो, खैर, हमने खुद ही एक ड्राफ्ट तैयार किया.”

हिरासत में लिए जाने वाले लोगों की सूची में 200 से अधिक नाम थे और हर आदेश की पांच प्रतियां बनानी थीं.

उन्होंने कहा, “उस समय न कंप्यूटर थे, न फोटोकॉपी मशीनें. सिर्फ साइक्लोस्टाइल मशीनें हुआ करती थीं. हमें टाइपिस्ट से आदेश टाइप करवाने थे और मुझे तिस हज़ारी ऑफिस जाकर करीब हज़ार प्रतियां तैयार करनी थीं.”

लेकिन मशीनें ठीक से काम नहीं कर रही थीं. “जब हम वहां पहुंचे, तो तीन साइक्लोस्टाइल मशीनें थीं… पहली मशीन खराब थी… दूसरी मशीन ने दो स्टेंसिल फाड़ दिए… और तीसरी मशीन काम कर रही थी लेकिन उसका मोटर खराब था, इसलिए उसे हाथ से घुमाकर चलाना पड़ रहा था,” घोष ने समझाया. समय और संसाधनों की कमी के चलते सिर्फ करीब 200 प्रतियां ही तैयार हो सकीं. आदेशों को सीमित कर बांटना पड़ा. उन्होंने आगे जोड़ा, “हम एक प्रति हिरासत में लिए जाने वाले व्यक्ति को देते थे, एक प्रति वह रसीद के तौर पर साइन करता था जिसे पुलिस अधीक्षक के कार्यालय में रखा जाता था और बाकी प्रतियां बाद में काम आती थीं.”

पुलिस रातभर घर-घर जाकर आदेश देती रही. घोष ने कहा, “कुछ मामलों में उन्हें व्यक्ति मिल गया, और कई मामलों में नहीं मिला. तब हम कहते थे अगला नाम देखो. अंत में, मुझे लगता है कि पहली रात हम आधे से भी कम लोगों को ही हिरासत में ले सके.”

“अब मैं यह ज़रूर बताना चाहूंगा कि जब पुलिस हिरासत में लेने गई, तो कहीं कोई हिंसा नहीं हुई. लोग खुद चलकर आए। कुछ ने थोड़ी देर मांगी बैग पैक करने के लिए, वो भी दी गई.” यह प्रक्रिया 26 जून सुबह 7 बजे तक चली, और तब तक यह स्पष्ट नहीं था कि सरकार क्या कर रही है.

शाह आयोग (1977 में गठित एक सार्वजनिक जांच आयोग) के सामने अपने बयान में घोष ने कहा कि उन्हें ऐसा लग रहा था जैसे वह “तख्तापलट” देख रहे हों.

घोष ने कहा, “जब मैं घर लौटकर रेडियो चालू किया, तब जाकर पूरी तस्वीर साफ़ हुई—प्रधानमंत्री ने आंतरिक आपातकाल की घोषणा कर दी थी. तभी हमें समझ आया कि कौन-सा कानूनी और संवैधानिक कदम उठाया गया है. उससे पहले हमें सिर्फ इतना पता था कि कुछ ऐसा हो रहा है जो शायद असंवैधानिक है, और जिलाधिकारी पर दबाव डालकर ये हिरासत आदेश जारी करवाए जा रहे हैं.”

उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि किसी भी अधिकारी को सीधे संजय गांधी से कोई निर्देश नहीं मिले थे, जिन्हें उस समय प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी का सलाहकार माना जाता था. “हमें सारे निर्देश जिलाधिकारी से मिलते थे, और जिलाधिकारी प्रधानमंत्री निवास से आदेश ले रहे थे.”

‘एल-जी के कार्यालय से धमकियां’

घोष के अनुसार, जिस रात आपातकाल घोषित हुआ, उस समय सिर्फ़ जिलाधिकारी (डीएम) को मीसा के तहत हिरासत के आदेश जारी करने का अधिकार था. बाक़ी अतिरिक्त जिलाधिकारी (एडीएम) सिर्फ़ इन आदेशों को तैयार करने और उन्हें लागू करने की ज़िम्मेदारी में थे. लगभग 10 दिन बाद, एडीएम को भी हिरासत आदेश जारी करने की अनुमति मिल गई, आमतौर पर पुलिस की सिफारिश पर.

घोष ने बताया, “हालांकि, ज़्यादातर मामलों में हिरासत के आधार बिल्कुल अपर्याप्त थे, और कुछ मामलों में तो हमें शक था कि वे झूठे थे। जब हम में से कुछ ने अधिक स्पष्ट और विस्तृत आधार की मांग की, तो हमें सीधे और गंभीर धमकियां मिलीं—संजय गांधी से नहीं, बल्कि उपराज्यपाल कार्यालय से.”

उन्होंने कहा, “धमकी बिल्कुल सीधी थी. हम में से कोई भी वास्तव में शहीद नहीं बनना चाहता था. इसलिए हमने वैसा ही किया जैसा कहा गया, लेकिन कई मामलों में हमने जिलाधिकारी को स्पष्ट रूप से बताया कि हिरासत के आधार अपर्याप्त हैं.”

एक मामला जो उनके ज़हन में रह गया, वह था डिजिटल पोर्टल न्यूज़क्लिक के संस्थापक प्रबीर पुरकायस्थ का, जिन्हें “पहले गलत पहचान के चलते हिरासत में लिया गया था”। असली हिरासत के आदेश किसी और के लिए थे.

घोष ने इस गलती की जानकारी डीएम को दी और कहा, “जब गलत व्यक्ति हिरासत में है, तो हम हिरासत आदेश कैसे दे सकते हैं?” लेकिन उन्हें उस रात डीएम का जवाब मिला, “गलत पहचान हो या नहीं, अब फैसला हो चुका है कि उसे हिरासत में ही रखा जाएगा.”

हालांकि घोष ने स्वीकार किया कि कई नौकरशाहों को इस पर आपत्ति थी, लेकिन “मैं यह नहीं कह सकता कि हम में से किसी ने भी सीधे तौर पर इन आदेशों का विरोध किया हो, क्योंकि इनके पीछे धमकी थी.”

जब उनसे दिल्ली के तुर्कमान गेट पर अप्रैल 1976 में हुई बुलडोजर कार्रवाई के बारे में पूछा गया, तो घोष ने कहा कि वह इलाका उनके कार्यक्षेत्र में नहीं था. हालांकि, वह बाद में वहां पहुंचे थे.

उन्होंने कहा, “मैंने देखा कि तोड़फोड़ हो रही थी और लोग इससे बहुत परेशान थे. लेकिन जब मैं वहां पहुंचा, तब तक गोलीबारी हो चुकी थी, इसलिए भीड़ शांत थी और वहां कोई हिंसा नहीं हो रही थी.”

अप्रैल 1976 में, दिल्ली पुलिस ने प्रदर्शनकारियों पर गोली चलाई थी जो बुलडोज़र को रोकने और अपने घरों को बचाने की कोशिश कर रहे थे.

‘लोगों को अधिकारों से वंचित नहीं रखा जा सकता’

आपातकाल के 50 साल पूरे होने पर घोष ने दिप्रिंट से कहा: “मुझे लगता है कि यह साफ है कि लोगों को लोकतांत्रिक अधिकारों और स्वतंत्रताओं से ज़्यादा समय तक वंचित नहीं रखा जा सकता. और जब कोई राजनीतिक समूह संविधान के तहत अपने अधिकारों से बाहर जाकर सत्ता का उपयोग करने की कोशिश करता है, या संविधान को खींच-तान कर अपने फायदे के लिए इस्तेमाल करता है, तो वह लंबे समय तक टिक नहीं सकता.”

उन्होंने ज़ोर देकर कहा कि “ऐसे हालात का विरोध सरकार के भीतर से नहीं आ सकता. न तो नौकरशाही से, न सिविल सेवा से, न पुलिस से और न ही हाई कोर्ट से.”

1976 में सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए गए एडीएम जबलपुर बनाम शिवकांत शुक्ल हैबियस कॉरपस केस का ज़िक्र करते हुए उन्होंने कहा: “यहां तक कि सुप्रीम कोर्ट ने भी कहा कि आपातकाल के दौरान न केवल मौलिक अधिकार निलंबित रहते हैं, बल्कि जीवन और स्वतंत्रता जैसे प्राकृतिक अधिकार भी उस समय उपलब्ध नहीं होते.”

घोष ने कहा, “सरकार के भीतर से विरोध की उम्मीद न रखें. यह विरोध राजनीतिक वर्ग से आना चाहिए, जिसे अपनी ताकत जनता की प्रतिक्रिया से मिलनी चाहिए. लेकिन इसके लिए राजनीति में शेरों की ज़रूरत है, गीदड़ों की नहीं.”

उन्होंने आगे कहा, “जब तक ये दो शर्तें पूरी नहीं होतीं—राजनीति में शेर और जागरूक जनता—तब तक ऐसे हालात लंबे समय तक चल सकते हैं, लेकिन वे हमेशा के लिए नहीं टिक सकते.”

(इस रिपोर्ट को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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