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Friday, 22 November, 2024
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अपनो के बीच रह कर मानसिक रोगियों का हो इलाज न कि अस्पतालों की कैद में

भारत में मानसिक बीमारियों से जूझ रहे मरीज़ो की संख्या 15 करोड़ है और अगर राष्ट्रीय मानसिक रोग सर्वेक्षण 2016 की मानें तो 83 प्रतिशत रोगियों का माकूल इलाज नहीं हो पाता.

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नई दिल्ली: हिंदी फिल्मों में पागलखाने के चित्रण में सालों साल सलाखों के पीछे, बिजली का शॉक झेलते मानसिक रोगियों को तो खूब देखा जाता है. साहित्य में भी इसका खासा वर्णन है. मानसिक रोग के शिकार जाने-माने लोग हुए है. मानसिक रोगों का इलाज कराने वाली मशहूर हस्तियों में -महाकवि सूर्यकांत त्रिपाठी निराला, मशहूर शायर मजाज लखनवी और बंगाल के विद्रोही कवि काजी नजरुल इस्लाम – ये फेरहिस्त लंबी है. सआदत हसन मंटो की टोबा टेक सिंह कहानी और मानसिक रुप से बीमार उसके नायक को कौन भूल सकता है. मगर आज चीज़ें बहुत बदल रही है. इलाज का तरीका, डॉक्टरों का नज़रिया और मानसिक रोगियों को देखने का नज़रिया भी बदल रहा है.

ये बदलाव हालांकि हौले-हौले ही हो रहा है पर स्वास्थ्य कर्मियों और सरकार की सोच और कानून में बदलाव आ रहा है.  अब कोशिश की जा रही है कि अस्पतालों की बजाय घरों में रह कर ही मानसिक रोगियों का इलाज हो. देश में मेंटल हेल्थकेयर एक्ट 2017 में पारित किया गया. जोकि इस मानसिक रोगियों के इलाज की नई सोच को इंगित करता है.

भारत में मानसिक बीमारियों से जूझ रहे मरीज़ो की संख्या 15 करोड़ है और अगर राष्ट्रीय मानसिक रोग सर्वेक्षण 2016 की मानें तो 83 प्रतिशत रोगियों का माकूल इलाज नहीं हो पाता. साथ ही इन रोगियों को समाज में लौट कर, जीने की स्वतंत्रता भी नहीं मिलती और उनके मानवाधिकारों का हनन होता है.

हाल में देश के 24 राज्यों में 43 मानसिक रोग उपचार करने वाले अस्पतालों पर हंस फाउंडेशन द्वारा किए गए एक शोध में पाया गया कि सरकार द्वारा देशभर में संचालित मानसिक रोग संस्थाओं में ईलाज करा रहे 36.25 प्रतिशत मरीज़ एक साल से अधिक समय से अस्पतालों में भर्ती हैं, जबकि उनमें से अधिकतर रोगी ऐसे हैं जिनका इलाज उनके घर पर रहते हुए भी किया जा सकता है. और समाज को या आस-पास वालों को मरीज से कोई परेशानी भी नहीं होगी. आधुनिक सोच और इलाज पद्धति का लक्ष्य ये रखा गया है कि अस्पतालों की जगह मानसिक रोगियों का इलाज अपने घर और समाज में हो उतना अच्छा है.

मानसिक अस्पताल हो ‘बिना बेड’ वाला

इंस्टीट्यूट ऑफ ह्यूमन बिहेवियर एंड साइंसेस (आईबीएचएएस) के निदेशक डॉ निमेश देसाई ने कहा, ‘मेरा सपना है कि भविष्य के मानसिक रोग अस्पताल ‘बिना बेड’ वाला हो.’

निमेश ने कहा, ‘आज भले ही मुंगेरी लाल के हसीन सपने सा दिखता है पर सभी लोग जो इस क्षेत्र में काम कर रहे हैं उनका सपना है कि मानसिक रोगी आएं और अस्पताल में रहने की बजाए अपने परिवार में रहकर ही स्वास्थ्य लाभ करें.’

डॉ. निमेश को आशा है कि इस शोध में शामिल सभी 43 अस्पतालों में 2025-2030 तक किसी में भी लंबे समय तक रहने वाला एक भी मरीज़ न हो.

श्वेता रावत, जोकि द हंस फाउंडेशन की अध्यक्ष है का कहना था कि ‘उन्होंने ऐसे मरीज़ भी देखें है जो कि 20- 20 साल से अस्पतालों में इलाज करवा रहे हैं और अपने घर परिवार से कटे हुए हैं. ऐसे मरीज अस्पताल के बाहर कभी एक जीवन बना पायेंगे उसकी आशा ही नहीं बची है. अब समय है कि समस्या को समझे और इस का निदान ढ़ूंढें.’

निमहांस के पूर्व निदेशक और राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य नीति के सलाहकार रह चुके डॉ के वी किशोर कुमार कहते हैं, ‘गंभीर मानसिक रोगियों को अधिकार है कि वे अपने समुदाय में रहें. बीमारी के बाद भी उनका जीवन हो. मानसिक रोगियों को साथ, प्रोत्साहन, नौकरी का मौका भी दिया जाना चाहिए.

कुमार आगे कहते हैं, मानसिक रोगियों की मदद के लिए ये ज़रूरी है कि सरकार ‘प्रतिबद्धता, दृढ़ निश्चय, निवेश और बजट में प्रावधान करें.’ केंद्र और राज्य सरकारों को इस क्षेत्र में निवेश करने की आवश्यकता है.’

अंजलि मेंटल हेल्थ राइट ऑर्गेनाइजेशन नामक संस्थान कि निदेशक रत्नाबोली रे मानसिक रोगियों की मदद करती हैं, वह कहती हैं, ‘समाज में मानसिक रोगियों के प्रति दुराग्रह अब भी जारी है और समाज को बदलने के लिए अभी बहुत लंबी दूरी तय करनी होगी.’

वह कहती हैं कि ये मानसिक रोगी का मानवाधिकार है कि वो अपना ‘इलाज’ कैसे करवाना चाहते हैं, वो अपने घर में रह कर, अपने परिवार के पास रहना चाहते हैं.

असली बदलाव और सफलता तब मिलेगी जब समाज इतना बदल जाए कि एक मानसिक रोगी इलाज के बाद ठीक होकर- ‘स्वाभीमान से काम कर पाए, संपत्ति खरीद पाए, बैंक अकाउंट खोल सके, उसे ड्राइविंग लाइसेंस मिले और वो  प्यार कर सके अपना साथी, स्वयं चुन सकें.’

मानसिक रोगी का सही इलाज और उनके मानवाधिकार तभी सुरक्षित होंगे जब उपचार ऐसा किया जाए कि वे जल्द से जल्द अपने घर और समुदाय के बीच पहुंच कर सामान्य जीवन जी सकें. मानसिक रोग अस्पतालों में कैद रह कर इलाज करने का तरीका पुराना हो चुका है, अब कानून बदल रहा है और सरकार और समाज को भी अपने व्यवहार में परिवर्तन करने की ज़रूरत है.

ताकि जिस तरह से इतिहास साहित्य और हास्य में मानसिक रोगियों और मानसिक रोग अस्पतालों का चित्रण है वो बदले पर इन रोगियों के सामान, आत्मसम्मान के साथ जीने की राह भी तैयार की जाये ताकि भविष्य में किसी भी मरीज़ को मानसिक अस्पताल में रात भी न गुज़ारनी पड़े.

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