नई दिल्ली: पिछले साल की सर्दियों की एक ठंडी अंधेरी रात को, दिल्ली के शकूर बस्ती में रहने वाले 33-वर्षीय सॉफ्टवेयर इंजीनियर अचानक अपने घर से निकल गए और फिर लापता हो गए. मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी पुरानी दिक्कतों के कारण उनके माता-पिता को डर सता रहा था. कई नाकाम कोशिशों के बाद जब कोई सुराग नहीं मिला, तो उन्होंने पुलिस में गुमशुदगी की रिपोर्ट दर्ज करवाई.
पहला सुराग फरवरी 2025 में मिला—उनके मोबाइल की आखिरी लोकेशन और बैंकिंग गतिविधि के आधार पर पता चला कि वह बेंगलुरु में हैं, जो दिल्ली से 2,100 किलोमीटर दूर है, लेकिन यह जानकारी पुलिस से नहीं, बल्कि डीडीएस डिटेक्टिव एजेंसी के सीईओ संजय कुमार की मदद से मिली.
संजय कुमार की कंपनी ने न सिर्फ युवक के माता-पिता को उनके ठिकाने के सुराग दिए, बल्कि उन्हें एक वकील से भी जोड़ा, जिससे वे कोर्ट जा सके. माता-पिता ने दिल्ली हाई कोर्ट में हैबियस कॉर्पस (गुमशुदा व्यक्ति को पेश करने के लिए याचिका) दाखिल की, जो डीडीएस से जुड़े एक वकील के ज़रिए दायर की गई थी. याचिका, जिसे दिप्रिंट ने भी देखा है, में अदालत से अनुरोध किया गया है कि वह पुलिस को उनके बेटे की तलाश का आदेश दे.
हाई कोर्ट ने तुरंत कार्रवाई करते हुए दिल्ली और बेंगलुरु पुलिस के साथ-साथ साइबर सेल को भी आदेश में शामिल किया. बाद के आदेश में, कोर्ट ने दिल्ली पुलिस से ब्यूरो ऑफ इमिग्रेशन से संपर्क कर यह पता लगाने को कहा कि कही युवक देश से बाहर तो नहीं चला गया है.
जल्द ही पता चला कि वह थाईलैंड में है. कोर्ट की निगरानी में एक वीडियो कॉल कराई गई जिसमें युवक ने जजों से बात की. आखिरकार, वह कोर्ट में आखिरी सुनवाई में खुद भी हाज़िर हुआ.
यह मामला माता-पिता, निजी जासूसी एजेंसी और पुलिस के बीच एक असामान्य सहयोग का नतीजा था. भले ही याचिका में संजय कुमार या उनकी कंपनी का नाम नहीं है, लेकिन उनकी भूमिका हर कदम पर नज़र आती है—चाहे वो लोकेशन का पता लगाना हो या स्वतंत्र जांच करना.
संजय कुमार ने कहा, “पुलिस बल सीमित है. उनका ज़्यादातर ध्यान गंभीर अपराधों पर होता है. इसलिए जब कोई वयस्क लापता होता है, तो पुलिस के पास ज़रूरी संसाधन नहीं होते. ऐसे में यह कमी निजी जासूस पूरी करते हैं.”
भारतीय पुलिस महकमा पहले से ही कई मामलों के बोझ तले दबा हुआ है. ऐसे में निजी जासूस एक अदृश्य सहायक के रूप में सामने आए हैं, जो न्याय प्रणाली का हिस्सा बनकर वो सबूत जुटाते हैं जो अदालत में काम आते हैं.
ये निजी जासूस लापता लोगों की तलाश से लेकर, कंपनियों में धोखाधड़ी, कस्टडी के झगड़े और फरार अरबपतियों तक—हर तरह के मामलों में पर्दे के पीछे से अहम भूमिका निभा रहे हैं.
भारत में दर्जनों ऐसी एजेंसियां हैं जो बाहरी स्रोतों से जानकारी जुटाकर, बैकग्राउंड चेक करके, फील्ड इंक्वायरी, निगरानी और फाइनेंशियल ट्रैकिंग जैसी गतिविधियों से ऐसे सबूत इकट्ठा करती हैं जो कोर्ट में काफी अहम साबित होते हैं.
हालांकि, भारत में निजी जासूसों के लिए कोई रेगुलेटरी सिस्टम नहीं है, इसलिए वह अक्सर कानूनी ग्रे ज़ोन यानी अस्पष्ट कानूनी दायरे में काम करते हैं.
तेज़ी से बढ़ता कारोबार
हालांकि, डिटेक्टिव एजेंसियों का कहना है कि उनका बिज़नेस इन दिनों बहुत अच्छा चल रहा है.
डीडीएस, जिसे आधिकारिक तौर पर DDS मैनेजमेंट सॉल्यूशंस प्राइवेट लिमिटेड के नाम से रजिस्टर किया गया है, ऐसी कई एजेंसियों में से एक है जो लगातार फल-फूल रही हैं. इसकी शुरुआत 2013 में एक सेवानिवृत्त पुलिस अधिकारी ने की थी. संजय कुमार, जो खुद भी पूर्व पुलिस अफसर हैं, 2018 में इस इंडस्ट्री से जुड़े थे.
कुमार ने कहा, “2018 से अब तक, भगवान की कृपा से, काम 5 से 6 गुना बढ़ गया है. मुझे लगता है कि आने वाले समय में भारत में निजी जासूसों की मांग बहुत तेज़ी से बढ़ेगी.” वह इस बढ़ोतरी का कारण लोगों में जागरूकता को बताते हैं.
इन्वेस्टिगेशन एजेंसियों का सबसे सामान्य क्षेत्र matrimonial disputes (वैवाहिक विवाद) होता है. हालांकि, ये सिर्फ धोखाधड़ी साबित करने तक सीमित नहीं है. मेंटेनेन्स (भरण-पोषण) के मामलों में भी दोनों पक्षों की आर्थिक स्थिति की जांच ज़रूरी होती है क्योंकि दोनों पति-पत्नी एक-दूसरे की असली आय जानना चाहते हैं.
एक केस में, वकील रितिम वोहरा आहूजा बताती हैं कि एक निजी जासूस ने कस्टडी विवाद के बीच गायब बच्चे को ढूंढ़ने में मदद की थी. कंरजावाला एंड कंपनी में वरिष्ठ एसोसिएट आहूजा ने बताया, “बच्चे के पिता उसे लेकर देश से बाहर चले गए थे, बिना मां की अनुमति के.”
बाद में जब उन्होंने हैबियस कॉर्पस याचिका दायर की, तो उसमें उन्होंने उस सारी जानकारी का इस्तेमाल किया जो जासूस ने जुटाई थी. उन्होंने बताया, “जैसे ही कोर्ट ने सच्चाई देखी, जज ने तुरंत पुलिस को कार्रवाई के लिए लगाया.”
लेकिन निजी जासूसों का काम सिर्फ पारिवारिक मामलों तक ही सीमित नहीं है. कुमार बताते हैं कि उनका एक बड़ा हिस्सा इंटेलेक्चुअल प्रॉपर्टी राइट्स (IPR) से जुड़े मामलों का होता है.
उन्होंने कहा, “हम बड़ी कंपनियों से अथॉरिटी लेटर लेते हैं, जिससे हमें यह अधिकार मिलता है कि हम जांच करें, वकील रखें और उनकी तरफ से शिकायत दर्ज करवाएं. फिर हम जांच करके उन गोदामों और फैक्ट्रियों तक पहुंचते हैं जहां नकली माल बन रहा होता है.”
इसके बाद वह पुलिस के ज़िले स्तर के IPR इन्वेस्टिगेशन यूनिट्स से संपर्क करते हैं. कुमार ने कहा, “हम खुद भी छापेमारी में मदद करते हैं और कंपनियों की तरफ से FIR भी दर्ज करवाते हैं.”
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वकीलों से ‘खास’ रिश्ता
पारिवारिक और IPR मामलों के अलावा, निजी जासूस अब कॉर्पोरेट मामलों में भी बड़ी भूमिका निभा रहे हैं.
रिस्क कंसल्टिंग फर्म CIGAER के डायरेक्टर और को-फाउंडर मुकेश बजाज बताते हैं कि उनकी कंपनी ऐसे कई कॉर्पोरेट मामलों को देखती है जिनमें जानकारी जुटानी होती है—जैसे किसी कंपनी में हितों का टकराव, अंदरूनी धोखाधड़ी, डेटा लीक, पैसों की हेराफेरी, रिश्वत, सप्लायर की मिलीभगत, यौन उत्पीड़न के मामले (POSH) और शेयरधारकों के बीच विवाद.
उन्होंने कहा, वकील अक्सर मुकदमे के अलग-अलग स्टेज पर उनसे संपर्क करते हैं. कभी-कभी मुकदमा शुरू करने से पहले ही वकील अपने क्लाइंट को सलाह देते हैं कि सामने वाले पक्ष की जांच करा लें ताकि उन्हें समझा जा सके और केस में मजबूत बिंदु पकड़े जा सकें.
बजाज वकीलों और जासूसों के रिश्ते को “खास” कहते हैं. उनके अनुसार, जासूस वकीलों की “एक्शन टीम” जैसे होते हैं.
वे बताते हैं, “जासूस का काम होता है बाहर से जानकारी जुटाना, रिसर्च करना, गवाहों को पहचानना, उन्हें ढूंढना और कोर्ट में गवाही देने के लिए मनाना. इसके अलावा वह अलग-अलग स्रोतों से पक्के सबूत ढूंढते हैं.”
बजाज ने कहा, निजी जासूसों के पास काफी संसाधन होते हैं. उनकी कंपनी CIGAER में भारत, बांग्लादेश और श्रीलंका में 35 लोग फुल टाइम काम करते हैं. ये दो टीमों में बंटे होते हैं—ओपन सोर्स और ह्यूमन सोर्स.
ओपन सोर्स टीम कंप्यूटर टूल्स, डाटाबेस और मीडिया रिपोर्ट्स के जरिए जानकारी निकालती है. ह्यूमन सोर्स टीम ऐसे लोग होते हैं जो दूसरों से बातचीत करके सीधे जानकारी हासिल करते हैं.
बजाज ने बताया, “पिछले 15 सालों में हमारी टीम 50,000 से ज्यादा लोगों से संपर्क कर चुकी है. LinkedIn, Facebook, Instagram जैसे सोशल मीडिया और CRM टूल्स की मदद से हम उन लोगों को पहचानते हैं जिनके पास हमारे क्लाइंट के काम की जानकारी हो सकती है.”
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भागते अरबपति
एक और अहम क्षेत्र जहां निजी जासूसों की बड़ी भूमिका होती है, वह है बड़ी कर्ज़ वसूली के मामलों में “एसेट ट्रेसिंग” यानी संपत्तियों का पता लगाना.
दिल्ली स्थित वकील, जो रिकवरी और एन्फोर्समेंट मामलों पर काम कर चुके हैं, ने दिप्रिंट से कहा, “जब किसी व्यक्ति या कंपनी के खिलाफ देशी या विदेशी कोर्ट से आदेश मिल जाता है, तो वे लोग अपनी संपत्तियों को छुपाने लगते हैं या किसी और के नाम (बेनामी) कर देते हैं. वे इन संपत्तियों को अपने या रिश्तेदारों की कंपनियों के ज़रिए ट्रांसफर करते हैं और इन ट्रांजैक्शनों की कई परतें होती हैं.”
यहीं पर एसेट ट्रेसिंग कंपनियां काम में आती हैं — ये पूरी जांच करती हैं, कागज़ातों की परत-दर-परत पड़ताल करके असली लाभार्थी (beneficiary) तक पहुंचती हैं.
एक ऐसे ही केस में, बजाज की कंपनी CIGAER ने एक फाइनेंशियल इंस्टीट्यूशन की मदद की, जिसे यूरोप, मिडिल ईस्ट और अफ्रीका के एक डिफॉल्टर क्लाइंट की संपत्तियों का पता लगाना था. उनके पास सिर्फ उस व्यक्ति के पासपोर्ट की डिटेल थी. CIGAER की वेबसाइट के मुताबिक, “हमारी टीम ने सलाह दी कि उस व्यक्ति के पूरे परिवार का नक्शा तैयार किया जाए, संपत्तियों और संपर्कों के साथ, ताकि क्लाइंट कोर्ट में मज़बूत सबूतों के साथ जा सके.”
और ऐसा ही हुआ.
CIGAER के मुताबिक, भारत में संपत्ति के रिकॉर्ड ऑनलाइन उपलब्ध नहीं हैं और कोई केंद्रीकृत एसेट रजिस्ट्री भी नहीं है, लेकिन उनकी टीम ने एक खास और गुप्त तरीका तलाश लिया है, जिससे किसी व्यक्ति की छुपी हुई संपत्तियों की जानकारी इकट्ठा की जा सकती है.
इस जानकारी के आधार पर डिफॉल्टर की छिपी संपत्तियों का पता चला और फाइनेंशियल संस्था कोर्ट में गई, पक्के सबूतों के साथ राहत की मांग कर सकी.
‘फोटो मत खींचिए’
निजी जासूस आम तौर पर परदे के पीछे काम करते हैं और बेहद सतर्क रहते हैं. कुमार का कहना है कि वह मीडिया को अपनी तस्वीर लेने की इजाज़त नहीं देते.
उन्होंने कहा, “यह ऐसा पेशा नहीं है जहां आप सुर्खियों में रहें या आपको इनाम मिलें. मैं खुद साल में तीन-चार बार प्रोजेक्ट्स पर जाता हूं. फिर मैं अपना चेहरा क्यों दिखाऊं?” यह बात वह अपने ऑफिस की दीवार के सामने बैठे हुए कह रहे थे, जहां ‘गुप्त’, ‘सबूत’, ‘प्रामाणिकता’, ‘जासूस’ और ‘इंटेल’ जैसे शब्दों का एक कोलाज बना हुआ है.
एक जासूस को हायर करने की कीमत कुछ हज़ार रुपये से लेकर लाखों तक हो सकती है.
नाम न बताने की शर्त पर एक निजी जासूस ने दिप्रिंट से कहा, उदाहरण के लिए शादी से पहले बैकग्राउंड चेक कराने की फीस 45,000 से 50,000 हज़ार रुपये के बीच हो सकती है. हालांकि, यह रकम एजेंसी और काम की जटिलता के अनुसार बदलती है. अगर किसी केस में अलग-अलग शहरों में यात्रा करनी पड़े तो खर्च और बढ़ जाता है.
एक्स्ट्रा मैरिटल अफेयर के मामलों में फीस आमतौर पर 50,000 हज़ार से 1.5 लाख रुपये के बीच होती है.
कॉर्पोरेट क्लाइंट्स के लिए फीस 25,000 हज़ार से शुरू होकर कई लाख रुपये तक जा सकती है, खासतौर पर जब केस में गहरी जांच और इंटेलिजेंस की ज़रूरत हो.
सबूत को कोर्ट में मान्य बनाना
जब एक निजी जासूस अपनी जांच पूरी कर लेता है, तो फिर वकीलों और संबंधित पक्षों का काम होता है कि उस जानकारी को कोर्ट में इस्तेमाल करने के रचनात्मक तरीके निकालना. एक निजी जांचकर्ता, नाम न बताने की शर्त पर दिप्रिंट से कहा कि “सबूत तैयार करने” (manufacturing evidence) के भी कुछ तरीके होते हैं.
उदाहरण के लिए उन्होंने कहा वे इस कानूनी ज़रूरत को ध्यान में रखते हैं कि भारतीय साक्ष्य अधिनियम 1972 की धारा 65B (अब भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 63 से बदली गई) के तहत एक सर्टिफिकेट ज़रूरी होता है, जो इलेक्ट्रॉनिक रिकॉर्ड को कोर्ट में स्वीकार्य बनाता है.
यह सर्टिफिकेट यह बताता है कि रिकॉर्ड क्या है, कैसे बनाया गया, किस डिवाइस से तैयार किया गया और यह रिकॉर्ड सही और असली है.
उन्होंने कहा, “इसलिए जब हमें पता होता है कि सबूत रिकॉर्ड करना है, तो हम क्लाइंट का फोन इस्तेमाल करते हैं — फोटो और वीडियो वहीं से लेते हैं. फिर 65B का सर्टिफिकेट आसानी से बन जाता है और वह सबूत कोर्ट में मान्य हो जाता है.”
अगर किसी पति या पत्नी पर बेवफाई का शक हो, तो एजेंट लंबे समय तक उनका पीछा करते हैं जब तक कि उनके पास पकड़ने लायक सबूत न हो जाए. फिर वह क्लाइंट से कहते हैं कि उस वक्त जीवनसाथी का सामना करें, और उसी समय उनका एक साथी 112 डायल करता है.
वे बताते हैं, “मुझे पता है कि पुलिस आमतौर पर ऐसे मामलों में कुछ नहीं करती, लेकिन PCR कॉल का एक डायरी एंट्री बनाना पुलिस की जिम्मेदारी होती है और यही एक मजबूत सबूत बन जाता है.”
एक वकील, जो एसेट ट्रेसिंग कंपनियों की मदद लेते हैं, बताते हैं कि ऐसे सबूतों को स्मार्ट तरीके से इस्तेमाल करना होता है.
उन्होंने कहा, “हम इसे एक शुरुआती बिंदु की तरह इस्तेमाल करते हैं. हम कोर्ट में इंटरोगेटरी (पूछताछ वाले) या स्पेसिफिक एप्लिकेशन फाइल करते हैं. जैसे, हम एप्लिकेशन फाइल करते हैं कि,‘हमें शक है कि इन संपत्तियों को छिपाया गया है, और ये उसी व्यक्ति की हैं. कृपया हलफनामे में पूछें कि ये संपत्तियां उसकी हैं या नहीं, या किसी लोकल कमिश्नर को नियुक्त करें जो जांच कर सके.’”
ऐसी विशेष पूछताछों के जवाब अक्सर कोर्ट में अहम सबूत बनकर सामने आते हैं.
छिपकर काम करने वाले
हालांकि, विशेषज्ञों का कहना है कि निजी जासूसों से प्राप्त सबूतों के स्रोत को लेकर कानून अब भी ग्रे ज़ोन (अस्पष्ट स्थिति) में है.
दिल्ली की वकील हर्षा आज़ाद को एक मामला याद है, जिसमें विपक्ष ने कुछ तस्वीरें और वीडियो अदालत में पेश किए, जो “मान लिया गया कि एक निजी जासूस से हासिल किए गए थे”.
वह बताती हैं, “मैंने इसका विरोध किया क्योंकि ये सबूत गैरकानूनी तरीके से लिए गए थे और मेरे क्लाइंट की प्राइवेसी के अधिकार का उल्लंघन था, लेकिन कानून की स्थिति साफ है — अगर कोई सबूत प्रासंगिक है, तो वह कोर्ट में स्वीकार्य होता है, चाहे वह कैसे भी हासिल किया गया हो.”
उनके केस में कोर्ट ने आखिरकार पारिवारिक साझेदारी विवाद में उन्हीं सबूतों पर भरोसा किया.
कमर्शियल मामलों के विशेषज्ञ वकील चित्रांशुल सिन्हा दिप्रिंट को बताया कि जब तक कोई जानकारी सार्वजनिक रिकॉर्ड से ली गई हो और वैरिफाई की जा सके, कोर्ट आम तौर पर उसे मान्यता देती है.
सिन्हा ने कहा, “लेकिन कुछ जासूस ऐसे डॉक्यूमेंट्स तक पहुंचने की कोशिश करते हैं जो कॉन्फिडेंशियल या सार्वजनिक डोमेन में नहीं होते. जब वो ऐसे दस्तावेज़ लाते हैं, तो वो ‘ज़हरीले पेड़ का फल’ बन जाते हैं.” उन्होंने कहा कि इस मामले में कानून अभी भी बहुत अस्पष्ट है.
उन्होंने आगे कहा, “कुछ मामलों में कोर्ट ने ऐसे सबूतों को स्वीकार किया है और कुछ में कोर्ट ने कहा कि अगर सबूत कानूनी तरीके से हासिल नहीं हुए हैं, तो हम उस पर भरोसा नहीं कर सकते, क्योंकि उसकी सच्चाई की कोई गारंटी नहीं है. यानी यह पूरी तरह से केस-बाय-केस पर निर्भर करता है.”
बजाज ने कहा कि निजी जासूस इंटेलिजेंस के क्षेत्र में काम करते हैं और उनका काम गुप्त प्रकृति का होता है. उन्होंने कहा, “हम यह सुनिश्चित करने की कोशिश करते हैं कि हमारी टीम को बेवजह कोई पब्लिक एक्सपोज़र न मिले और न ही उन्हें गवाही देने की ज़रूरत पड़े.”
वे दावा करते हैं कि पिछले 15 सालों में CIGAER की कई रिपोर्टें सबूत के तौर पर कोर्ट में पेश की गईं, लेकिन कभी भी किसी टीम मेंबर को गवाही के लिए नहीं बुलाया गया.
नियमों की कमी
प्राइवेट डिटेक्टिव एजेंसियों (नियमन) विधेयक पहली बार 2007 में राज्यसभा में पेश किया गया था. इसका उद्देश्य था कि हर ऐसी एजेंसी को काम करने के लिए लाइसेंस लेना पड़े. ये लाइसेंस केंद्र और राज्य स्तर पर बनाए जाने वाले नियामक बोर्डों के ज़रिए दिए जाने का प्रस्ताव था.
इस विधेयक के उद्देश्यों और कारणों के बयान में निजी जासूसी एजेंसियों के कामकाज को लेकर बढ़ती चिंताओं का ज़िक्र किया गया था. इसलिए इसमें यह प्रस्ताव था कि कोई भी जासूस किसी व्यक्ति की गोपनीयता और स्वतंत्रता के अधिकार का उल्लंघन न करे और अगर ऐसा किया गया तो छह महीने की जेल और 50,000 हज़ार रुपये का जुर्माना, साथ ही लाइसेंस का निलंबन या रद्दीकरण जैसी सज़ा हो सकती है.
हालांकि, यह बिल पहले एक स्थायी समिति को भेजा गया और बाद में 2020 में वापस ले लिया गया. इस नियमों की कमी को अक्सर इसके लिए दोषी ठहराया गया है कि जासूसों को कॉल डिटेल रिकॉर्ड (CDRs) जैसी संवेदनशील जानकारी गैरकानूनी ढंग से हासिल करने के आरोप में गिरफ्तार किया गया.
वकील चित्रांशुल सिन्हा ने कहा कि ऐसी फैक्ट-फाइंडिंग को कानूनी वैधता देने के लिए एक मजबूत कानूनी ढांचे की सख्त ज़रूरत है.
उन्होंने कहा, “आज लोग अपनी संपत्तियां छिपाकर जांच से बच जाते हैं. फिर मेहनत का सारा काम हम जैसे लोग करते हैं—जासूसों को लगाते हैं ताकि उन छिपी चीज़ों का पता चल सके, लेकिन यह अभी भी एक ग्रे ज़ोन है.”
सिन्हा ने कहा, “जितना एसेट ट्रेसिंग की बात है, इन लोगों की भूमिका बहुत अहम और व्यावहारिक है.”
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