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Tuesday, 16 April, 2024
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माणिकचंद्र वाजपेयी: आरएसएस जिन्हें पत्रकारिता का आदर्श पुरुष मानता है

वाजपेयी को संघ में 'मामाजी' के नाम से जाना जाता है. वे संघ के उन चुनिंदा प्रचारकों में से हैं जिन्होंने अपना पूरा जीवन पत्रकारिता को दे दिया.

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माणिकचंद्र वाजपेयी का नाम राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के बाहर कम ही लोगों ने सुना होगा. वाजपेयी को संघ में ‘मामाजी’ के नाम से जाना जाता है. वे संघ के उन चुनिंदा प्रचारकों में से हैं जिन्होंने अपना पूरा जीवन पत्रकारिता को दे दिया. संघ के नजरिए से देखें तो आदर्श पत्रकारिता कैसे होती है, इसकी जब भी चर्चा होती है तो सबसे पहले जो नाम संघ में लिए जाते हैं, उनमें माणिकचंद्र वाजपेयी का नाम अग्रणी है. संघ में ‘मामाजी’ की पत्रकारिता को लेकर कितना श्रद्धा भाव था, वह इस बात से पता चलता है कि उनके जन्मशताब्दी वर्ष में साल 2020 में मध्य प्रदेश सरकार ने उन पर एक विशेष डाक टिकट जारी किया था. स्वयं सर संघचालक मोहन भागवत उनके जन्मशताब्दी वर्ष के समापन समारोह में दिल्ली में 7 अक्टूबर, 2020 को उपस्थित थे. उन्होंने इस अवसर पर कहा था, ‘संघ ऐसे लोगों से चलता है जो होते तो हैं, लेकिन दिखते नहीं हैं. ऐसे ही व्यक्तित्व के धनी थे राष्ट्रवादी साहित्यकार और पत्रकार मामाजी माणिकचंद्र बाजपेयी.’

2006 में मध्य प्रदेश शासन द्वारा उनकी स्मृति में ध्येयनिष्ठ पत्रकारिता के लिए ‘माणिकचंद्र वाजपेयी राष्ट्रीय सम्मान’ की घोषणा की गई थी, लेकिन मुख्यमंत्री कमलनाथ के नेतृत्व में कांग्रेस के शासनकाल के दौरान एक विवादास्पद निर्णय में इस सम्मान को बंद करने का निर्णय लिया गया. कमलनाथ सरकार के हटने के बाद जब राज्य में शिवराज सिंह चौहान के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी की सरकार की वापसी हुई तो इस सम्मान को पुन: स्थाापित किया गया.

अटल बिहारी वाजपेयी और माणिकचंद्र वाजपेयी

माणिकचंद्र वाजपेयी जब 75 वर्ष के हुए थे तो तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के निवास स्थान पर उनका अमृत महोत्सव मनाया गया था. भिंड में मनाए गए मामाजी के अमृत महोत्सव में स्वयं तत्कालीन सर संघचालक कुप. सी. सुदर्शन उपस्थित थे. वाजपेयी उनका इतना सम्मान करते थे कि उनकी मृत्यु का समाचार मिलने पर मुंबई में चल रही भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक को बीच में छोड़कर उनके अंतिम संस्कार में शामिल होने के लिए आ गए थे. उनके साथ विभाजन पर पुस्तक लिखने वाले सह—लेखक श्रीधर पराड़कर बताते हैं, ‘ज्योति जला निज प्राण की, ग्रंथ लेखन के समय में मैं मामा जी के साथ डेढ़ वर्ष तक दिल्ली में था.उन दिनों अटल जी प्रधानमंत्री थे, पर अटल जी से मिलने जाना तो दूर कभी उन्होंने फोन पर बात करने की कोशिश भी नहीं की. यह तो आज के लौकिक व्यवहार से मेल खाने वाला न था.’

देश भर में संघ के विभिन्न कार्यक्रमों व गतिविधियों में जहां भी पत्रकारिता के प्रतिमानों की चर्चा होती है तो संघ के पदाधिकारी अक्सर मामाजी से जुड़े प्रसंग स्वयंसेवकों को बताते हैं. कुल मिलाकर अगर यह समझना हो कि संघ की दृष्टि में आदर्श पत्रकारिता क्या है तो माणिकचंद्र वाजपेयी की पत्रकारिता और उनके द्वारा स्थापित किए गए पत्रकारिता के प्रतिमानों को समझना होगा.

1960 के दशक से लेकर अपने अंतिम समय तक वे मध्यप्रदेश में संघ की प्रेरणा चलने वाले बहु संस्करणीय दैनिक समाचार—पत्र स्वदेश से संपादक के रूप में जुड़े रहे और उसे दिशा देते रहे. वे न केवल पत्रकारिता से संबद्ध रहे बल्कि उन्होंने कई पुस्तकों का लेखन भी किया. इसमें दो सबसे महत्वपूर्ण ग्रंथों का उल्लेख आवश्यक है. संघ और राष्ट्रीय विचारधारा के लोग संघ की अब तक की यात्रा के दौरान हुई घटनाओं में से सबसे महत्वपूर्ण इन दो घटनाओं के लिए मामाजी के लिखे ग्रंथों को संदर्भ ग्रंथ मानते हैं. ये दो घटनाएं हैं — 1947 में भारत का विभाजन तथा 1975 में भारत में आपातकाल का लागू होना. इन दोनों विषयों पर संघ के वैचारिक अधिष्ठान को समझना हो तो इन दोनों ग्रंथों को पढ़ना ज़रुरी है— ‘ज्योति जला निज प्राण की’ तथा ‘आपातकालीन संघर्ष—गाथा’.

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वाजपेयी ने श्रीधर पराड़कर के साथ मिलकर विभाजन की त्रासदी स्वयं झेलने वाले 7000 से अधिक लोगों का साक्षात्कार कर उनके अनुभवों को ‘ज्योति जला निज प्राण की ‘ में समेटा. संघ की दृष्टि से विभाजन की त्रासदी के दस्तावेजीकरण का तब तक का यह सबसे बड़ा प्रयास रहा . भारतीय इतिहास संकलन योजना के संस्थापक तथा संघ के एक अन्य वरिष्ठ प्रचारक ठाकुर राम सिंह ने 1999 में प्रकाशित इस पुस्तक की प्रस्तावना में लिखा है, ‘1947 में हुए देश के विभाजन पर अनेकों पुस्तकें लिखी गई हैं.पर …’ज्योति जला निज प्राण की’ अपने आप में एक विशेष कृति है. विभाजन की त्रासदी और उसके कारण उत्पन्न हुए संकट का संघ के स्वयंसेवकों ने समाज बंधुओं को साथ लेकर किस प्रकार मुकाबला किया इसका बड़ा रोमांचक और सजीव वर्णन, वास्तविक व तथ्यपूर्ण घटनाओं के आधार पर किया गया है…लेखक केवल उन घटनाओं का वर्णन करके ही नहीं रुके हैं उन्होंने इस विभीषिका से निकले संकेतों की ओर भी संकेत किया है. गत…वर्षों में विभाजन की घटना पर ठीक दृष्टि से विचार कर उससे सबक न लेने के कारण आज फिर से अलगाववाद और विभाजन के नए खतरे देश पर मंडरा रहे हैं. इस दृष्टि से इस पुस्तक की प्रासंगिकता और बढ़ गई.’

आपातकाल को लेकर वाजपेयी ने प्र.ग. सहस्त्रबुद्धे के साथ मिलकर एक ग्रंथ की रचना की जिसे संघ के वरिष्ठ प्रचारक दत्तोपंत ठेंगड़ी ने प्रस्तावना में आपातकाल का वस्तुनिष्ठ, प्रमाणबद्ध व अधिकृत इतिहास कहा. इससे पूर्व दस्तावजों के आधार पर किसी अन्य ग्रंथ में संघ की आपातकाल में राष्ट्रीय स्तर पर निभाई गई भूमिका की इतने विस्तार से प्रामाणिक चर्चा नहीं थी. ठेंगड़ी ने लगभग 35 पृष्ठ की अपनी प्रस्तावना को आरंभ करते हुए इस ग्रंथ के बारे में कहा है.’..असाधारण संघर्ष की एक गाथा..यहां प्रस्तुत की जा रही है. स्वतंत्रता और लोकतंत्र के सभी उपासकों के लिए यह संघर्ष—गाथा देहली पर रखे हुए दीपक का काम करेगी. इसके प्रकाश में वे देख सकेंगे भूतकालीन प्रेरणादायक घटनाएं और भविष्यकालीन निरापद मार्ग.’ आपातकाल में संघ अपनी भूमिका का आकलन कैसे करता है, उसे समझने के लिए संघ के समर्थकों व आलोचकों दोनों के लिए ही यह ग्रंथ महत्वपूर्ण है.


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संक्षिप्त जीवन—वृत्त

माणिकचंद्र वाजपेयी का जन्म 7 अक्तूबर, 1919 को बटेश्वर, जिला आगरा (उत्तर प्रदेश) में हुआ और उनका देहांत 27 दिसंबर, 2005 को ग्वालियर में हुआ. उन्होंने मिडिल स्कूल की परीक्षा ग्वालियर से उत्तीर्ण की तथा इंटर में अजमेर बोर्ड की परीक्षा में स्वर्ण पदक प्राप्त किया.बाद में बी.ए. व एल.एल.बी. की डिग्रियां हासिल कीं. 1944 से 1953 तक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक के रूप में वह मौजूदा मध्यप्रदेश के भिंड क्षेत्र में संगठन विस्तार का कार्य करते रहे.

आपातकाल में 19 महीने जेल में रहे. उन्होंने भारतीय जनसंघ में 1951 से 1954 तक उत्तरी मध्य भारत में संगठन मंत्री के रूप में भी कार्य किया. संगठन के आदेश पर भिंड से 1957 में श्री नरसिंहराव दीक्षित के विरुद्ध विधानसभा एवं 1962 में राजमाता विजयाराजे सिंधिया के विरुद्ध ग्वालियर से लोकसभा चुनाव लड़े. लहरौली, जिला भिंड में 1954 से दस वर्ष तक शिक्षक रहे.

भिंड से प्रकाशित साप्ताहिक ‘देशमित्र’ के संपादक के रूप में पत्रकारिता प्रारंभ की. दैनिक ‘स्वदेश’ से 1966 में जुड़े। 1968 से 1985 तक इसके संपादक एवं प्रधान संपादक रहे. उनके द्वारा लिखी गई कुछ प्रमुख पुस्तकें हैं—

आपातकालीन संघर्षगाथा, प्रथम अग्निपरीक्षा, भारतीय नारी: स्वामी विवेकानंद की दृष्टि में, कश्मीर का कड़वा सच, पोप का कसता शिकंजा, ज्योति जला निज प्राण की, मध्य भारत की संघर्ष गाथा.

स्वदेश के वर्तमान समूह संपादक अतुल तारे का कहना है, ‘मामाजी के सानिध्य में मुझे भी सीखने का अवसर मिला है यह मेरे जीवन का सौभाग्य है. मामाजी इतने सहज, सरल एवं सामान्य थे कि प्रथम दृष्टया यह लगता था कि हम भी मामाजी जैसे हो सकते हैं, पर जैसे जैसे उनके निकट आते थे लगता था कि सामान्य काया में यह दिव्य पुरुष हैं. उन तक या उन जैसा होना सहज नहीं हैं पर उन्होंने अपने वैशिष्ट्य को अति सामान्य ही रखा.उनकी लेखनी धारधार थी,पैनी थी पर व्यक्तिगत आक्षेप ओर दुराग्रह से वह सर्वथा दूर थे.


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इस आलेख के लिए निम्न पुस्तकों से संदर्भ लिए हैं
1. आपातकालीन संघर्ष गाथा, सुरुचि प्रकाशन
2.ज्योति जला निज प्राण की, सुरुचि प्रकाशन
3.समर्पण, मामा माणिकचंद्र वाजपेयी स्मृति सेवा न्यास
4.शब्दपुरुष माणिकचंद्र वाजपेयी, प्रभात प्रकाशन

(लेखक आरएसएस से जुड़े थिंक-टैंक विचार विनिमय केंद्र में शोध निदेशक हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)

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