नयी दिल्ली, 22 मई (भाषा) उच्चतम न्यायालय ने महाराष्ट्र के पूर्वी विदर्भ क्षेत्र में स्थित झुडपी जंगल को बृहस्पतिवार को 1996 के अपने फैसले के अनुरूप वन भूमि घोषित कर दिया। हालांकि, शीर्ष अदालत ने उक्त जमीन पर दशकों से मौजूद संरचनाओं को भी संरक्षित कर दिया।
सर्वोच्च न्यायालय के 1996 के फैसले में ‘वन’ शब्द को परिभाषित किया गया था।
प्रधान न्यायाधीश बी.आर. गवई और न्यायमूर्ति ऑगस्टीन जॉर्ज मसीह की पीठ ने कहा कि ‘झुडपी’ एक मराठी शब्द है, जिसका मतलब ‘झाड़ियां’ है और ‘झुडपी’ भूमि का मतलब निम्न श्रेणी की झाड़ीदार खाली भूमि है।
पीठ पूर्वी विदर्भ क्षेत्र के नागपुर, वर्धा, भंडारा, गोंदिया, चंद्रपुर और गढ़चिरौली जिलों में ऐसी भूमि के दर्जे से जुड़े मुद्दे पर सुनवाई कर रही थी।
पीठ ने आदेश दिया कि वनरोपण के लिए गैर-वन भूमि की अनुपलब्धता के संबंध में राज्य के मुख्य सचिव का प्रमाणपत्र न होने तक झुडपी जंगल भूमि का प्रतिपूरक वनरोपण के लिए इस्तेमाल करने की अनुमति नहीं दी जाएगी।
उसने कहा कि ऐसे मामलों में पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय के मौजूदा दिशा-निर्देशों के अनुसार, ‘झुडपी जंगल’ भूमि के दोगुने क्षेत्र पर प्रतिपूरक वनरोपण किया जाना चाहिए।
प्रधान न्यायाधीश की ओर से लिखे गए फैसले में कहा गया है, “मौजूदा मामले में इस अदालत के 12 दिसंबर 1996 के आदेश के अनुरूप झुडपी जंगल भूमि को वन भूमि माना जाएगा।”
शीर्ष अदालत ने इस बात पर जोर दिया कि पर्यावरण संरक्षण और सतत विकास की आवश्यकता के बीच संतुलन बनाए रखना जरूरी है।
उसने कहा कि झुडपी जंगल भूमि पर पहले से ही कई विकास गतिविधियां शुरू की जा चुकी हैं, जिनमें सिंचाई बांध, सड़कों, स्कूल, सार्वजनिक स्वास्थ्य केंद्र और अन्य सुविधाओं का निर्माण शामिल है।
पीठ ने अकेले नागपुर शहर में प्रभावित होने वाले संस्थानों, इमारतों, आवासीय क्षेत्रों और अन्य सार्वजनिक प्रतिष्ठानों की सूची संलग्न की।
उसने कहा कि जिन इमारतों में उच्च न्यायालय, उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के आवास, राज्य सरकार का सचिवालय, केंद्र सरकार के भवन, रक्षा भवन, वायुसेना भवन और कब्रिस्तान स्थित हैं, वे भी प्रभावित होंगी।
पीठ ने कहा, “हम निर्देश देते हैं कि अपवाद के रूप में और इसे किसी भी मामले में मिसाल के रूप में न मानते हुए, महाराष्ट्र सरकार सक्षम प्राधिकारी की ओर से 12 दिसंबर 1996 तक आवंटित की गई झुडपी जंगल भूमि, जिसके लिए भूमि वर्गीकरण में कोई परिवर्तन नहीं किया गया है, को “वन क्षेत्रों की सूची” से हटाने के लिए राज्य वन (संरक्षण) अधिनियम, 1980 की धारा 2 के तहत मंजूरी हासिल करेगी।”
शीर्ष अदालत से इस बात पर विचार करने का आग्रह किया गया कि दशकों से “घरों में रह रहे लाखों लोगों के सिर से छत छीनने” की इजाजत दी जानी चाहिए या नहीं।
पीठ ने कहा कि झुडपी क्षेत्रों में रहने वाले नागरिकों को सेवाएं प्रदान करने के लिए स्कूल, सरकारी कार्यालय, सार्वजनिक स्वास्थ्य केंद्र, कब्रिस्तान जैसी विभिन्न सार्वजनिक सुविधाएं आधी सदी से अधिक समय से ऐसी भूमि पर मौजूद हैं।
उसने कहा, “हमें इस सवाल का भी जवाब देना होगा कि क्या राज्यों के पुनर्गठन के समय राज्य सरकार के अधिकारियों की लापरवाही के कारण गड़बड़ी के कारण नागरिकों को इन सभी सुविधाओं से वंचित किया जाना चाहिए।”
पीठ ने कहा, “इन सभी सवालों के जवाब न में ही होंगे।”
भाषा पारुल प्रशांत
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