जगतपुर/जयापुरा: उत्तर प्रदेश में रायबरेली के जगतपुर गांव में शादियों का मौसम अपने चरम पर है. भारतीय अर्थव्यवस्था में आई सुस्ती ने लोगों को शादी करने से भले ही नहीं रोका हो, पर इसने 21 वर्षीय नौशाद के फलते-फूलते टेलरिंग के धंधे को ज़रूर चौपट कर दिया है.
डेढ़ साल पहले तक महिलाओं के पारंपरिक परिधान के अपने बुटीक में नौशाद को अक्सर आधी रात तक काम करना पड़ता था, और कई बार ग्राहकों को लौटाना तक पड़ता था. नौशाद कहते हैं, ‘तब हर किसी का काम करना संभव ही नहीं था.’
पर अब, अभी शाम के 7 बजे हैं और नौशाद दोस्त की जूते की दुकान पर निठल्ला बैठे हुए हैं. वह पास की अपनी दुकान पर ग्राहक के आने का इंतजार कर रहे हैं. कई बार इस इंतजार में पूरा दिन निकल जाता है.
नौशाद कहते हैं, ‘2018 से ही सब कुछ बिल्कुल निचले स्तर पर है. जनवरी शादियों का महीना होता है, जब लोग दुल्हन, दुल्हन की बहन, दुल्हन की बुआ आदि के लिए लहंगा और सलवार सूट सिलाने आते हैं… लेकिन इन दिनों उनके लिए सिर्फ दुल्हन की पोशाक सिलवाना भी भारी पड़ता है.’
ये सिर्फ नौशाद की ही कहानी नहीं है. पूरे यूपी में गांव-देहात के इलाकों में किसान, उत्पादक, रिटेलर और मज़दूरों के पास सुनाने के लिए इसी तरह की कहानियां हैं. उनका कहना है कि नवंबर 2016 की नोटबंदी और जुलाई 2017 में वस्तु एवं सेवा कर लागू किए जाने से स्थितियां खराब होनी शुरू हुईं, और 2018 में जब भारतीय अर्थव्यवस्था की रफ्तार कम हुई तो आजीविका कमाने और अपने एवं परिवार के लिए चीजें खरीदने की उनकी क्षमता पर जोरदार चोट पड़ी.
खर्च में हरसंभव कटौती
अर्थव्यवस्था के सुस्त पड़ने से पहले, नौशाद कभी-कभार सिलाई के अपने काम से ब्रेक लेकर शाम को टहलने निकल जाया करते थे और दोस्तों के साथ जूस पीते और समोसा या ऑमलेट खाते. पर अब उन्हें चाय से ही संतोष करना पड़ता है. वह कहते हैं, ‘जब आमदनी रोज़ के 250-300 रुपये से घटकर 80-90 रुपये रह गई हो, तो भला जूस कौन खरीदे?’
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लेकिन बात सिर्फ नौशाद के जूस नहीं खरीद सकने या मोबाइल डेटा पैक खरीदने के लिए दोस्तों से पैसे उधार लेने की ही नहीं है. दो महीने बाद उनके बहन की शादी है, और उनका परिवार मेहमानों की सूची को बिल्कुल छोटी करने में व्यस्त है.
शादी की पार्टी के लिए शुरू में दो क्विंटल गोश्त मंगाने की योजना थी. पर अब प्रस्तावित मात्रा घटकर एक क्विंटल रह गई है. लहंगे में सस्ते कपड़ों का इस्तेमाल किया जा रहा है, और दूल्हे के परिवार के लिए सीमित उपहार ही खरीदे जा रहे हैं.
राज्य के दूसरे हिस्सों में भी कइयों ने यही आपबीती सुनाई कि जिस मद में भी संभव हो वो अपना खर्च कम कर रहे हैं– चाहे बात सब्जियों की हो, कपड़ों की या इलेक्ट्रॉनिक्स की. एक ऐसे राज्य में जहां आबादी का 30 प्रतिशत हिस्सा पहले ही कैलोरी-आधारित गरीबी रेखा से नीचे है, आर्थिक सुस्ती का भयावह असर साफ दिख रहा है.
चिंताजनक प्रवृति
भारत 2018 तक दुनिया की सबसे तेज़ विकास करने वाली अर्थव्यवस्था वाला देश था, और 2016 की पहली तिमाही में विकास दर 9.3 प्रतिशत के स्तर पर थी. पर सितंबर 2019 आते-आते तिमाही विकास दर गिरकर 4.5 प्रतिशत पर आ गई जो छह वर्षों का न्यूनतम स्तर है.
राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय (एनएसओ) की अभी जारी नहीं की गई एक रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में उपभोक्ता व्यय में 2017-18 में 3.7 प्रतिशत की गिरावट दर्ज़ की गई जोकि चार दशकों की सबसे बड़ी गिरावट है. रिपोर्ट में कहा गया है कि ग्रामीण बाज़ार में मांग में गिरावट की दर 8.8 प्रतिशत के स्तर पर है.
इसका ये भी मतलब है कि ग्रामीण खपत की वृद्धि दर, जोकि अतीत में आमतौर पर शहरी खपत के मुकाबले तीन से पांच प्रतिशत अंक अधिक रहती थी, पहली बार पीछे छूट गई है.
संपूर्ण भारतीय बाज़ार में एक तिहाई के हिस्से वाली ग्रामीण मांग कमजोर पड़ चुकी है.
ऑटोमोबाइल और निरंतर बिक्री वाली उपभोक्ता वस्तु (एफएमसीजी) सेक्टरों से आए आंकड़ें आर्थिक सुस्ती का सबूत दे चुके हैं. भारतीय ऑटोमोबाइल निर्माताओं के संगठन (सियाम) के इसी महीने जारी आंकड़ों में दर्शाया गया था कि 2019 में यात्री वाहनों, वाणिज्यिक वाहनों और दोपहिया वाहनों की बिक्री इससे पहले के साल के मुकाबले 14 फीसदी कम रही. सियाम ने इस नकारात्मक वृद्धि के लिए अन्य बातों के अलावा उपभोक्ताओं की उदासीनता और ग्रामीण मांग में कमी को दोष दिया है.
एफएमसीजी कंपनियों को भी ग्रामीण इलाकों में बिक्री में कमी का सामना करना पड़ रहा है. मैरिको ने दूसरी तिमाही के कारोबार के आंकड़ों में बताया है कि ग्रामीण मांग में कमी के चलते बिक्री में वृद्धि की दर महज 1 प्रतिशत रह गई है. इसके लोकप्रिय पैराशूट ब्रांड बालों के तेल की वृद्धि दर ऋणात्मक 1 प्रतिशत रही है.
इसके पहले इसी महीने मैरिको ने एक बयान में कहा था कि दिसंबर में समाप्त तिमाही में इसके बालों के तेल और नारियल तेल की बिक्री में मामूली गिरावट दर्ज की गई है.
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एफएमसीजी सेक्टर की बड़ी कंपनी हिंदुस्तान लीवर ने भी गत सितंबर में समाप्त तिमाही में अपने उत्पादों की ग्रामीण इलाकों में बिक्री के शहरों के मुकाबले आधे स्तर पर रहने की स्वीकारोक्ति की थी. उक्त तिमाही में उसने कुल बिक्री 5 प्रतिशत की दर से बढ़ने की बात की थी, जोकि साल भर पहले उसी तिमाही में 10 प्रतिशत के स्तर पर थी.
विलासिता में शामिल हुआ लंच
पूरे उत्तर प्रदेश में सुर्खियां या आंकड़ें ही नहीं बल्कि आम लोगों की असल कहानियां भी इसी हालत का बयान करती हैं.
चिंता देवी वाराणसी के जयापुरा गांव की एक कांट्रैक्ट कर्मचारी हैं. इस गांव को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सांसद आदर्श ग्राम योजना के तहत गोद ले रखा है. सांसदों के लिए यह योजना आदर्श ग्राम विकसित करने के उद्देश्य से शुरू की गई थी.
चिंता देवी ने घरेलू खर्च पर लगाम लगाने के लिए एक हृदयविदारक समाधान निकाला है– वह अपने बच्चों को अब दोपहर का खाना नहीं देती है.
उन्होंने कहा, ‘हम दिन में तीन टाइम भोजन करने में समर्थ नहीं हैं… पहले, जब बच्चे स्कूल से आते थे, तो मैं उनके लिए दाल-चावल बनाती थी, पर अब हम इसका खर्च नहीं उठा सकते.’
जयापुरा में परचून की दुकान चलाने वाले ओमप्रकाश पटेल बताते हैं कि इस हाल में चिंता देवी कोई अकेली नहीं है– कई परिवारों ने स्थिति का सामना करने के लिए इस उपाय को अपना रखा है. सब्ज़ी हो या तेल या शैंपू या दाल या फिर बिस्किट, सब की खपत घट गई है, और पटेल की रोजाना की बिक्री गत दो वर्षों में आधी रह गई है– प्रतिदिन 6,000 रुपये के स्तर से घटकर 2,000-3,000 के बीच.
पटेल सवाल करते हैं, ‘हर किसी की हालत खराब है…जब लोग सब्ज़ी नहीं खरीद पा रहे हैं, तो ऐसे में बिस्किट या मैगी कौन खरीदेगा?’
‘तीन-चार साल पहले ऐसी आर्थिक स्थिति की कोई कल्पना तक नहीं कर सकता था… इस मंदी ने गांव के लोगों के सारे शौक खत्म कर दिए हैं.’
2011-12 और 2017-18 के बीच देश भर के ग्रामीण इलाकों में भोजन पर किया जाने वाला मासिक खर्च 10 प्रतिशत गिरावट के साथ 643 रुपये से घटकर 580 रुपये रह गया. नील्सन मार्केट रिसर्च के अनुसार एफएमसीजी की ग्रामीण बाज़ार में खपत– जो संपूर्ण भारत के आंकड़े का 36 प्रतिशत है– सात वर्षों में सबसे निचले स्तर पर रही है.
अपनी आमदनी का 60 प्रतिशत से अधिक भोजन पर खर्च करने वाले भारत के गरीब परिवार अपनी सीमित व्यय क्षमता के कारण दाल, सब्ज़ी, दूध और फल जैसे पौष्टिक खाद्य पदार्थ नहीं खरीद पा रहे हैं.
गांवों में एक ‘बुनियादी ज़रूरत’ माने जाने वाली इंटरनेट डेटा सुविधा लोगों की पहुंच से बाहर होती जा रही है. नौशाद सवाल करते हैं, ‘हम अब डेटा के बिना नहीं रह सकते…बिना इंटरनेट के फोन का क्या काम?’ उन्होंने आगे कहा, ‘हम अब सस्ते पैक खरीदते हैं…कभी-कभार मुझे अपना फोन पैक रिचार्ज कराने के लिए दोस्तों से पैसे उधार लेने पड़ जाते हैं.’
और, खपत में आई इस कमी का असर अनिल बाजपेयी पर भी पड़ रहा है जिनकी जगतपुर गांव में मोबाइल रिचार्ज और घड़ियों की दुकान है. लोगों के लिए जब रोज़मर्रा का काम चलाना मुश्किल हो रहा है तो ऐसे में बाजपेयी की दुकान की बिक्री में 60-70 प्रतिशत की गिरावट आ गई है, और उन्हें अपने घर का खर्चा कम करने को बाध्य होना पड़ा है. वह कहते हैं, ‘पहले मां-बाप बेहिचक बच्चों के मोबाइल डेटा के लिए पैसे खर्च करते थे… अब वे उनसे कहते हैं ‘या तो पढ़ो या मोबाइल चलाओ – हम दोनों का भार नहीं उठा सकते.’
किसान समृद्ध नहीं होंगे, तो व्यापार कैसे बढ़ेगा?
उत्तर प्रदेश में, 65 प्रतिशत कार्यबल कृषि में कार्यरत हैं. लेकिन अब बेरोज़गारी के भारी स्तर के कारण पहले से अधिक लोग कृषि कार्य में लग रहे हैं.
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ज्यादातर लोगों का तर्क यही है कि जब तक कृषि आय नहीं बढ़ती, अर्थव्यवस्था के पुनरुद्धार की कोई उम्मीद नहीं है.
रायबरेली और कुंडा ज़िलों की सीमा पर अवस्थिति ऊंचाहार गांव में इलेक्ट्रॉनिक्स और फर्नीचर की दुकान चलाने वाले 64 वर्षीय मेहंदी हसन कहते हैं, ‘इस समय, हर तरफ किसान मुश्किलों में दिख रहे हैं. जब गांवों में किसान समृद्ध नहीं होंगे, तो फिर व्यवसायी कैसे फले-फूलेगा?’
भारत में पिछले कुछ वर्षों से ग्रामीण क्षेत्रों का संकट साफ दिख रहा है. लगातार दो वर्ष 2014 और 2015 में पड़े सूखे और ऊपर से अपर्याप्त न्यूनतम समर्थन मूल्य ने किसानों की हालत को और खराब कर दिया. इस कारण वास्तविक आमदनी में कमी आई और कर्ज का स्तर बढ़ा है. इसके फलस्वरूप उत्तर प्रदेश समेत विभिन्न राज्यों को कर्ज़माफी की योजनाएं लानी पड़ी है.
माना जाता है कि आने वाले महीनों में किसानों की हालत में मामूली सुधार होगा, क्योंकि दिसंबर में हुई असामयिक बारिश की बदौलत रबी फसलों की स्थिति बेहतर रहने की संभावना है. हालांकि इंडियन काउंसिल फॉर रिसर्च ऑन इंटरनेशनल इकॉनोमिक रिलेशंस में वरिष्ठ विजिटिंग फेलो सिराज हुसैन का कहना है कि अर्थव्यवस्था में व्यापक स्तर पर सुधार के बिना कृषि सेक्टर में सुधार से अधिक उम्मीद नहीं की जानी चाहिए.
उत्तर प्रदेश के औसत किसान के पास एक हेक्टेयर से अधिक ज़मीन नहीं है, ऐसे में अर्थव्यवस्था की कमजोरी का मतलब है बमुश्किल गुजारा करना. और इस स्थिति का राज्य की ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर व्यापक असर पड़ा है.
दहेज़ में गिरावट
मेहंदी हसन के मामले में, आमतौर पर शादियों के मौसम का मतलब होता है बढ़ा मुनाफा, क्योंकि लोग दहेज़ के लिए फ्रिज़, वाशिंग मशीन, माइक्रोवेव, सोफा और किंग-साइज़ बेड आदि पर बड़ी रकम खर्च करते हैं. पर इस समय अधिकांश परिवार इस खर्च में भी कटौती कर रहे हैं– नकारात्मक खबरों की भीड़ में शायद एकमात्र सकारात्मक खबर.
अपनी बचत से डिस्ट्रिब्यूटर को पैसे चुकाने वाले हसन कहते हैं, ‘2020 में अभी तक हमने एक भी रेफ्रिजरेटर नहीं बेचा है. इससे पहले शादियों के मौसम में हम एक ही दिन में कई यूनिट बेच लेते थे.’
नौशाद की बहन की शादी के लिए उनका परिवार एक सोफा-सेट, एक किंग-साइज़ बेड और एक मोटरसाइकिल खरीदना चाहता था. वह कहते हैं, ‘अब हम ऐसा नहीं कर पाएंगे…अब्बू पूरे दिन इस बारे में चिंता करते रहते हैं.’
ये पूछे जाने पर कि क्या कम दहेज़ के कारण उनकी बहन को तंग किया जा सकता है. नौशाद ने कहा कि दूल्हे के परिवार को अर्थव्यवस्था की हालत का अंदाजा है. हंसते हुए उन्होंने कहा, ‘लड़के भी पहले जितना नहीं कमा रहे हैं, इसलिए उनका भाव भी गिर गया है.’
वैसे तो लोग दहेज़ के लिए अब भी कर्ज ले रहे हैं, पर उनका कहना है कि कम खर्च करने के अलावा उनके पास कोई विकल्प नहीं है. प्रयागराज जिले के थरवई गांव में मेवालाल यादव की कपड़े की दुकान है. कुछ महीने बाद ही उनकी 23 वर्षीय पुत्री की शादी है. वह कहते हैं, ‘अगर अच्छे दिन होते, तो हम भी अच्छे से विदा करते बेटियों को.’
अन्य अनेक रिटेलरों की तरह यादव की बिक्री पर ग्रामीण अर्थव्यवस्था की सुस्ती का असर नहीं पड़ा है. पर ऐसा सिर्फ इस वजह से कि उन्होंने अपना मुनाफा कम कर लिया है. यादव कहते हैं, ‘मुझे जल्दी ही समझ में आ गया कि हालत से निपटने का एक ही तरीका है कि मुनाफा कम कर लिया जाए.. पहले जितनी कमाई 10,000 रुपये की बिक्री से हो जाती थी, उतने के लिए मुझे 20,000 रुपये का सामान बेचना पड़ता है.’
तेज़ी वाला एकमात्र धंधा: देसी शराब
हालांकि एक धंधा ऐसा है जो आर्थिक संकट के बावजूद फल-फूल रहा है– देसी शराब. दिप्रिंट ने शराब के कई दुकानदारों से बात की, और उनका कहना था कि बिक्री में बढ़ोतरी ही हुई है.
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वाराणसी के कृष्णानगर में देसी शराब की दुकान चलाने वाले चंदन यादव ने कहा, ‘साल-दो साल पहले जहां रोजाना की बिक्री 10-12 हज़ार रुपये की थी, जो अब आराम से 17,000 रुपये के स्तर पर रहती है.’
दुकान से 35-40 रुपये का पौवा (क्वार्टर बोतल) खरीदने वाले ग्राहकों को संभालते हुए यादव कहते हैं, ‘देखिए, आदमी अच्छे वक्त में उतना नहीं पीता, जितना बुरे वक्त में पीता है.’
उन्नाव स्थिति मोहन गोल्डवाटर ब्रूअरीज़ के प्रवक्ता चेतना शर्मा ने इस बारे में बताया, ‘भारत निर्मित विदेशी शराब की बिक्री विगत एक वर्ष में कम हुई है, पर देसी शराब की बिक्री में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है… ग्राहक विदेशी शराब से देसी की ओर जा रहे हैं क्योंकि वो बहुत सस्ती मिलती है.’
शर्मा ने आगे कहा, ‘लोग जश्न के दौरान और बुरे वक्त में, दोनों ही स्थितियों में अल्कोहल का सेवन करते हैं, और हम कह सकते हैं कि बिक्री बढ़ने के पीछे एक हद तक बाज़ार की नकारात्मक धारणा का हाथ है.’
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