scorecardresearch
Tuesday, 5 November, 2024
होमदेशमध्य प्रदेश और राजस्थान में दलितों के खिलाफ अपराध दर है सबसे ज्यादा और ये हैं इसके कारण

मध्य प्रदेश और राजस्थान में दलितों के खिलाफ अपराध दर है सबसे ज्यादा और ये हैं इसके कारण

नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ों से पता चलता है कि साल 2021 में प्रत्येक 1 लाख दलित आबादी के लिए, राजस्थान और एमपी में 60 से अधिक अपराध दर्ज किए और यूपी ने 25 के राष्ट्रीय औसत के मुकाबले प्रति लाख दलित आबादी पर 31 ऐसे मामले दर्ज किए.

Text Size:

नई दिल्ली: केंद्रीय गृह मंत्रालय के तहत करने वाले नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) द्वारा सोमवार को जारी किये गए ‘क्राइम इन इंडिया 2021’ की रिपोर्ट से पता चलता है कि उत्तर प्रदेश ने एक बार फिर से पूरे भारत में अनुसूचित जातियों, या दलितों, के खिलाफ सबसे अधिक अपराध दर्ज करने का संदिग्ध ख़िताब हासिल किया है.

लेकिन, इन आंकड़ों नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ों से पता चलता है कि साल 2021 में प्रत्येक 1 लाख दलित आबादी के लिए, राजस्थान और एमपी में 60 से अधिक अपराध दर्ज किए और यूपी ने 25 के राष्ट्रीय औसत के मुकाबले प्रति लाख दलित आबादी पर 31 ऐसे मामले दर्ज किए.पर थोड़ी गहराई से नजर डालने से पता चलता है कि मध्य प्रदेश और राजस्थान कुछ और परेशान करने वाले रुझान पेश करते हैं.

इन दोनों राज्यों ने साल 2021 में दलितों के खिलाफ उच्चतम अपराध दर (प्रति लाख जनसंख्या के लिए दर्ज मामले के आधार पर) दर्ज किए, जो यूपी से काफी आगे और ऐसे मामलों के राष्ट्रीय औसत से दोगुने से भी अधिक थे.

दिप्रिंट ने साल 2016 से 2020 तक दलितों के खिलाफ हुए अपराधों की पिछले पांच साल की औसत दर की गणना करने के लिए एनसीआरबी डेटा का उपयोग किया और फिर इसकी तुलना 2021 के आंकड़ों से की. यहां भी, राजस्थान और मध्य प्रदेश में अनुसूचित जाति के सदस्यों के खिलाफ अपराध दर में सबसे अधिक वृद्धि दिखाई दी.

अनुसूचित जाति के खिलाफ किए गए अपराधों/अत्याचारों की गिनती के लिए, एनसीआरबी के आंकड़े में केवल वे ही मामले शामिल हैं जो अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 – जिसे एससी/एसटी एक्ट के रूप में भी जाना जाता है- के तहत दायर किए गए थे. रिपोर्ट में कहा गया है कि यह सिर्फ भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) के तहत दायर किए गए मामलों की गिनती नहीं करता है, क्योंकि ‘उन मामलों में अनुसचित जाति के ही किसी सदस्य द्वारा किसी और एससी / एसटी के खिलाफ किये गए अपराध का उल्लेख होता है.’

कुल मिलाकर, एनसीआरबी की इस ताजातरीन रिपोर्ट से पता चलता है कि भारत ने साल 2021 में हर घंटे दलितों के खिलाफ छह अपराध दर्ज किए, पिछले साल ऐसे कुल मामलों की संख्या बढ़कर 50,900 हो गई, जो 2020 में 50,291 थी.

कुल मामलों की संख्या के आधार पर, उत्तर प्रदेश ने दलितों के खिलाफ सबसे अधिक अपराध के मामले – 13,146 – दर्ज किए, जो कि 2021 में पूरे देश में घटी कुल ऐसी घटनाओं का लगभग एक चौथाई हिस्सा है. इसके बाद राजस्थान (7,524), मध्य प्रदेश (7,214), और बिहार (5,842) थे. इन राज्यों में से, यूपी, राजस्थान और एमपी में 2020 की तुलना में अधिक मामले देखे गए, लेकिन बिहार में ऐसे मामलों में गिरावट देखी गई.

हालांकि, इसकी एक अधिक सटीक तस्वीर, अपराधों की कुल संख्या के बजाय अपराध दर से प्राप्त की जा सकती है.

एमपी और राजस्थान में है एससी के खिलाफ सबसे अधिक अपराध दर

उत्तर प्रदेश में देश में दलितों की सबसे अधिक आबादी रहती है – साल 2011 की जनगणना (जिसका उपयोग एनसीआरबी एससी के खिलाफ अपराधों की दर की गणना के लिए करता है) के अनुसार इस राज्य में 4 करोड़ से अधिक दलित थे. पिछले साल, यूपी में ऐसे मामलों में अपराध दर 31.8 दर्ज की गई थी, इसका मतलब है कि राज्य की हर 1 लाख दलितों पर साल 2021 में करीब 31 जाति आधारित अपराध दर्ज किए गए.

यह मध्य प्रदेश और राजस्थान की अपराध दर, जो क्रमशः 63.6 प्रतिशत और 61.6 प्रतिशत थी, से काफी कम है. 2011 की जनगणना के अनुसार, इनमें से प्रत्येक राज्य में 1 करोड़ से अधिक की दलित आबादी रहती है.

संदर्भ के लिए यह जान लेना जरुरी है कि अनुसूचित जातियों के खिलाफ राष्ट्रीय औसत अपराध दर इस समुदाय की प्रति 1 लाख आबादी पर 25 अपराध है. मध्य प्रदेश और राजस्थान में अपराध दर इस औसत से दोगुने से भी ज्यादा है.

कई अन्य राज्यों ने भी राष्ट्रीय औसत से ऊपर की अपराध दर दर्ज की, जिनमें से तीन : बिहार (35.3), और तेलंगाना (32.6), और ओडिशा (32.4) – के हालात उत्तर प्रदेश से भी बदतर हैं. दलितों के खिलाफ औसत से अधिक अपराध दर वाले अन्य राज्य हरियाणा (31.8, यूपी के समान), केरल (31.1), और गुजरात (29.5) थे.

यह ध्यान देने योग्य है कि पश्चिम बंगाल में भारत में दूसरी सबसे अधिक दलित आबादी रहती है, जहां इनकी संख्या लगभग 2.1 करोड़ है. हालांकि, इस राज्य में इस समुदाय के खिलाफ अपराध दर बेहद कम है – प्रति 1 लाख आबादी पर सिर्फ 0.5. लगभग 1.4 करोड़ दलितों की आबादी के साथ तमिलनाडु में भी अनुसूचित जाति के खिलाफ अपराधों की दर अपेक्षाकृत कम (9.5) है.

पंजाब, जहां हर तीन में से एक व्यक्ति अनुसूचित जाति समुदाय का है, में भी दलितों के खिलाफ अपराध दर काफी कम है, साल 2021 में प्रत्येक 1 लाख में से सिर्फ दो दलितों को अपराधों का सामना करना पड़ा था.


यह भी पढ़ेंः बाढ़ पर मोदी का ट्वीट, जयशंकर का बयान भारत-पाकिस्तान के बीच खड़ी दीवार को ढहाने का काम कर सकती है


रुझानों के बारे में

एनसीआरबी की पिछली रिपोर्टों का उपयोग करते हुए, दिप्रिंट ने साल 2016 से 2020 तक दलितों के खिलाफ हुए अपराधों की पांच साल की औसत दर की गणना की, और फिर इसकी तुलना 2021 के आंकड़ों से की.

आंकड़ों से पता चलता है कि राजस्थान के मामले में अनुसूचित जाति के खिलाफ अपराध दर में सबसे नाटकीय वृद्धि हुई है. पिछले पांच वर्षों में, राज्य ने प्रति लाख दलित जनसंख्या पर औसतन लगभग 45 अपराध दर्ज किए थे, 2021 में, यह संख्या बढ़कर 61 प्रति लाख हो गई, यानि राज्य में प्रत्येक 1 लाख दलितों की आबादी के ऊपर 16 अतिरिक्त अपराध हुए.

ग्राफिक: प्रज्ञा घोष | दिप्रिंट

इसी तरह, मध्य प्रदेश ने भी पिछले पांच वर्षों के औसत (49) की तुलना में दलितों के खिलाफ लगभग प्रति लाख दलित जनसंख्या पर 15 अतिरिक्त अपराध दर्ज किए हैं.

2021 में अगली सबसे बड़ी वृद्धि, पिछले पांच साल के औसत की तुलना में, हरियाणा में हुई, जहां दलितों के खिलाफ अपराध एससी आबादी के प्रति लाख पर 13 से अधिक बढ़ गए थे.

2016-2020 के पांच साल के औसत की तुलना में, यूपी में साल 2021 में दलितों के खिलाफ अपराध में ‘केवल’ 3.6 मामले प्रति लाख की बढ़ोतरी हुई.

इसके विपरीत, बिहार और गुजरात जैसे राज्यों में, जहां भी जाति-आधारित अपराधों की उच्च दर रही है, पिछले पांच वर्षों के औसत की तुलना में साल 2021 में अपराध दर में वास्तविक रूप में प्रति लाख दलित आबादी पर लगभग 5 अपराध की कमी आई है.

‘लोग अब अपने अपमान को हल्के में नहीं ले रहे’

विशेषज्ञों के अनुसार, राजस्थान और मध्य प्रदेश में देखे जा रहे रुझान कम-से-कम आंशिक रूप से धीमी आर्थिक वृद्धि और इसी कारण से सामाजिक परिवर्तन में पिछड़ जाने की वजह से हैं. इसका एक और पहलू यह भी है कि जाति-आधारित अपराधों या भेदभाव के मामले में लोग खुलकर बोलने और पुलिस से संपर्क करने के प्रति अधिक इच्छुक हो रहे हैं.

जिंदल ग्लोबल यूनिवर्सिटी, सोनीपत के प्रोफेसर और पश्चिमी राजस्थान में जाति-आधारित मुद्दों के विशेषज्ञ कहे जाने वाले खिनवराज जांगिड़ ने बताया, ‘राजस्थान में अधिकांश नौकरियां पर्यटन उद्योग पर आधारित हैं और पारंपरिक व्यवसाय अभी भी सामाजिक समीकरणों पर हावी हैं. राज्य में महानगरीय क्षेत्रों की कमी के साथ-साथ आवाजाही की उच्च लागत आर्थिक गतिशीलता में बाधा डालती है और लोग शायद ही कभी अपनी पारंपरिक अलग-अलग घेरेबंदी वाली रिहाइश से बाहर निकलते हैं. इस तथ्य से आंशिक रूप से यह समझा सकता है कि ये समुदाय अपनी प्रकृति में अपेक्षाकृत अधिक जातिवादी क्यों हैं.‘

एक दलित कार्यकर्ता और ‘आई कुड नॉट बी हिंदू: द स्टोरी ऑफ़ ए दलित इन द आरएसएस’ नाम की पुस्तक के लेखक, भंवर मेघवंशी ने दिप्रिंट को बताया कि राजस्थान का मारवाड़ क्षेत्र और मध्य प्रदेश का मालवा क्षेत्र समान सांस्कृतिक प्रथाओं को साझा करते हैं, इसलिए यह ‘कोई आश्चर्य की बात नहीं है’ एमपी को भी इस सूची में शीर्ष स्थान पर दिखाई दे रहा है.

तो, ऐसा क्यों है कि इन दोनों राज्यों में जातिगत टकराव के मामले आंकड़ों में काफी बढे हुए नजर आ रहे हैं?

इस बारे में मेघवंशी का मानना है कि बढ़ती जागरूकता और सोशल मीडिया के आगमन से युवाओं को कानूनी मदद के जरिए इन अत्याचारों का मुकाबला करने में मदद मिल रही है.

राजस्थान में पिछले कुछ वर्षों में दलितों के खिलाफ हो रहे अत्याचार में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है, हालांकि, नई पीढ़ी के युवा अब इन अपमानों को हल्के में नहीं ले रहे हैं. उन्होंने फोन पर हुई बातचीत में प्रिंट को बताया, ‘आज हमारे पास फोन हैं. कोई भी वीडियो वायरल हो जाता है और फिर पुलिस और प्रशासन को इन मामलों को गंभीरता से लेना पड़ता है. आजकल, पुलिस तक मामले को पहुंचाने के लिए किसी भी अपराध का सिर्फ एक वीडियो ही चाहिए और फिर मामला दर्ज कर लिया जाता है. अब एफआईआर दर्ज करवाने के लिए आपको 5,000 लोगों की भीड़ जुटाने की जरूरत नहीं है.’

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


यह भी पढ़ें: 2023-24 तक स्कूली छात्रों के लिए संशोधित और ज्यादा ‘इंडियन’ सिलेबस लागू होने की संभावना


share & View comments