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Friday, 22 November, 2024
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मांग घटी, कमाई हुई कम और लगातार बढ़ रही लागत, महामारी ने फीकी की यूपी की ‘पीतल नगरी’ की चमक

उत्तर प्रदेश के पीतल, कैंची और ताले वाले सभी उद्योग लॉकडाउन, बढ़ती निर्माण लागत और महंगाई की चपेट में आ चुके हैं. छोटे व्यवसायी एमएसएमई सेक्टर के लिए चलाई गई सरकारी योजनाओं के तहत ऋण न मिल पाने की भी शिकायत कर रहे हैं.

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नई दिल्ली: तैंतालीस वर्षीय फज़ल रहमान हमेशा से मुरादाबाद जिले, जिसे ‘पीतल नगरी के नाम से भी जाना जाता है, के मोहम्मदपुर बस्तौर क्षेत्र में पीतल को गलाने और ढालने (स्मेल्टिंग एन्ड कास्टिंग) के कारखाने का पुश्तैनी कामकाज ही करते रहे हैं, लेकिन इस क्षेत्र में इतनी गंभीर और लंबे समय तक चलने वाली मंदी उन्होंने कभी नहीं देखी.

उन्होंने और उनके सभी कारीगरों ने कोविड की महामारी के बाद लगने वाले लॉकडाउन के दौरान और उसके बाद भी, बहुत कर्ज लिया और अब उनके लिए इसे चुकाना मुश्किल हो रहा है. बढ़ती महंगाई ने रोजमर्रा से जुड़े खर्च को भी बढ़ा दिया है, जबकि धीमी मांग के साथ-साथ पिछले दो महीनों में कोयले की कीमत के 36 रुपये प्रति किलोग्राम से बढ़कर 70 रुपये प्रति किलोग्राम हो जाने से काम भी ढीला पड़ा हुआ है.

रहमान ने दिप्रिंट को बताया, ‘खाद्य तेल की कीमत 100 रुपये को पार हो गयी है, लेकिन मजदूरों को अभी भी केवल 400-500 रुपये प्रतिदिन ही मिलते हैं. उनके पास 18-30 प्रतिशत की उच्च ब्याज दरों के साथ लिए गए 40,000 रुपये से 50,000 रुपये तक के अपने कर्ज को चुकाने के लिए कोई दूसरी नौकरी करने के अलावा दूसरा विकल्प नहीं है.’

रहमान की यह परेशानी पूरे मुरादाबाद की पीतल नगरी में गूंजती लगती है, जो उत्तर प्रदेश सरकार की भी महत्वाकांक्षी ‘वन डिस्ट्रिक्ट वन प्रोडक्ट’ (ओडीओपी) योजना का हिस्सा है, और उत्तर प्रदेश के बाकी इलाकों में स्थित ऐसे सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यमों (माइक्रो, स्माल एन्ड मीडियम इंटरप्राइजेज -एमएसएमई) के हालात भी इससे कोई खास अलग नहीं है.

लॉकडाउन ने उनकी पहले से मौजूद कठिनाइयों में और वृद्धि की क्योंकि ये कंपनियां पहले भी नोटबंदी और वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) की शुरुआत की वजह से पिछड़ रही थीं. अब घटती मांग के बीच ऊर्जा (ईंधन) की बढ़ती कीमतों, कच्चे माल की बढ़ी हुई लागत और जबरदस्त प्रतिस्पर्धा ने इन इकाइयों पर और भार डाल दिया है.

केंद्रीय एमएसएमई मंत्रालय के आंकड़ों के मुताबिक, मुरादाबाद में बड़े पैमाने पर बनने वाले पीतल के सामान जैसे हस्तशिल्प और बर्तनों के निर्माण में लाखों लोग कार्यरत हैं. अमेरिका, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया और यूरोपीय संघ जैसे बाजारों में होने वाले निर्यात के साथ इसका कुल वार्षिक कारोबार 10,000 करोड़ रुपये से अधिक है.


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उद्यमी बने कामगार, बाजार का आकार 65 फीसदी तक घटा

व्यवसाय में आये इस संकट ने मोहम्मद अजीम को उद्यमी से मजदूर बना दिया है. अज़ीम इससे पहले दिल्ली और अन्य प्रमुख शहरों में दुकानदारों और निर्यातकों को रहमान जैसे लोगों द्वारा बनाए गए पीतल के बर्तन और छोटी मूर्तियों की सप्लाई करते थे.

अज़ीम ने दिप्रिंट को बताया, ‘मैं 11,000 रुपये प्रति माह के वेतन पर 5-7 लोगों से काम करवाता था. अब, मैं खुद कर्ज में डूबा हुआ हूं और 19,000 रुपये महीने के हिसाब से दूसरी जगह पर काम करता हूं.’

वह आगे बताते है, ‘पहले हम हर महीने 500-800 किलोग्राम पीतल की वस्तुओं की आपूर्ति किया करते थे, जो अब घटकर 125-200 किलोग्राम हो गई है. ट्रांसपोर्ट लागत भी 300 रुपये प्रति पीस से बढ़कर 550-600 रुपये हो गई है.’

अज़ीम ने बताया कि कैसे बढ़ती निर्माण लागत (इनपुट कॉस्ट) ने उत्पादों के लागत मूल्य को लगभग 700-800 रुपये प्रति किलोग्राम तक बढ़ा दिया, जिससे वे ऑर्डर रद्द कर दिए गए हैं जो पहले 400-500 रुपये प्रति किलोग्राम की कीमतों पर बुक किए गए थे.

वे कहते है, ‘इन आर्डर के रद्द हो जाने से तैयार वस्तुओं बेकार हो गई हैं. इसकी वजह पूरे क्षेत्र में आपसी विश्वास की कमी भी पैदा हो गई है. भारी नुकसान, ऑर्डर में गिरावट और भुगतान में देरी के कारण, हम लोहे या स्टील की वस्तुओं के निर्माण जैसे दूसरे क्षेत्र में स्थानांतरित हो गए हैं और अब मैं किसी और के कारखाने में काम कर रहा हूं.’

मुरादाबाद के ब्रास मैन्युफैक्चरर्स एसोसिएशन (पीतल निर्माता संघ) के एक सदस्य आजम अंसारी ने दिप्रिंट को बताया कि उनके अनुमान के मुताबिक, 2008-09 के बाद से पीतल नगरी के प्रसिद्ध पीतल उद्योग ने अपने बाजार के आकार का 65 प्रतिशत हिस्सा खो दिया है. यह अब गिरकर 7,500 करोड़ रुपये तक आ गया है जो तब (2008-90 में) 20,000 करोड़ रुपये था.

अंसारी कहते हैं, ‘चौदह प्रतिशत से अधिक कारीगरों ने इस क्षेत्र को ही छोड़ दिया है, क्योंकि लागत बढ़ गई है जिससे हमारे उत्पाद वैश्विक निर्यात बाजारों में प्रतिस्पर्धा से बाहर हो गए हैं. 2019 में पीतल का स्लैब रेट 300 रुपये किलो था, जो अब बढ़कर 510 रुपये किलो हो गया है.’

वे कहते हैं, ‘यहां तक कि एल्यूमीनियम, जिसे एक विकल्प के रूप में पेश किया गया था, भी पिछले दो महीनों में 125-135 रुपये प्रति किग्रा से बढ़कर 205-210 रुपये प्रति किग्रा हो गया है. अन्य लागत की वस्तुओं जैसे डीजल की कीमतें 65-75 रुपये से बढ़कर 100 रुपये से अधिक हो गईं, जबकि बिजली की कीमतें पिछले साल 7-8 रुपये प्रति यूनिट से बढ़कर अब 14 रुपये प्रति यूनिट हो गई हैं.‘

वे आगे बताते हैं, ‘घटती मांग और बढ़ती लागत के साथ ही वस्तुओ का निर्माण सामान्य स्तर का सिर्फ 65 प्रतिशत रह गया है. बिक्री से प्राप्त राजस्व भी सामान्य से 25 प्रतिशत कम है. कार्यशील पूंजी (वर्किंग कैपिटल) के प्रवाह में भी एक गंभीर संकट है क्योंकि सभी का पैसा पिछले ऑर्डर्स में फंस गया है.’

कई बड़े निर्माता जो घरेलू और विदेशी के बाजारों में निर्यात के लिए उम्दा किस्म का पीतल (एक्सपोर्ट ग्रेड प्रीमियम ब्रास) उत्पाद बनाते हैं, वे भी कोविड की वजह से पैदा हुए व्यवधानों से परेशान हैं.

पीतल और स्टील के एक विशिष्ट और व्यक्तिगत उपभोक्ताओं के लिए तैयार किये गए आर्किटेक्चरल आइटम को बनाने वाली मुरादाबाद स्थित कंपनी आइजल हैंडीक्राफ्ट के मालिक साइमन मॉरिसन ने दिप्रिंट को बताया, ’कच्चे माल की लागत तो दरअसल लॉकडाउन में काफी कम हो गई थी, लेकिन हम इसका लाभ नहीं उठा क्योंकि सब कुछ बंद था. हाल ही में, इसमें कम से कम 33 प्रतिशत की वृद्धि हुई है. शिपिंग की लागत भी दोगुनी हो गई है. महामारी के पहले दौर में सभी भुगतान बंद हो गए थे और जब सारा माल तैयार था, तब भी खरीदार उन्हें बिल्कुल लेना नहीं चाहते थे. यह हालत अलग-अलग समय काल के दौरान घरेलू और निर्यात दोनों बाजारों में एकसमान ही थी.’


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अलीगढ़ की ताला बनाने वाले इकाइयां ई-कॉमर्स प्लेटफॉर्म की भी आजमा रहीं हैं

उत्तर प्रदेश के विभिन्न जिलों में धातु से संबंधित अन्य एमएसएमई भी कच्चे माल की लागत में बढ़ोत्तरी के कारण इसी तरह की समस्याओं का सामना कर रहे हैं.

अलीगढ़, जो ओडीओपी योजना के तहत तालों के निर्माण के लिए जाना जाता है, में रुवा लॉक्स एंड हार्डवेयर की मालिक रीना अग्रवाल को बढ़ती लागत के कारण अपने व्यवसाय का आकार को कम करने को मजबूर होना पड़ा.

अग्रवाल ने दिप्रिंट को बताया, ‘हम दो संयंत्रों से घटकर एक पर आ गए हैं और हमारे पास 120 कर्मचारी थे जो घटकर अब केवल 50 रह गए हैं. सभी प्रकार की धातुओं जिनका इस्तेमाल ताले बनाने में किया जाता है, जैसे लोहा, एल्युमिनियम और पीतल, की कीमतों में 10-15 प्रतिशत की भारी बढ़ोतरी हुई है. इनकी लागत जद से बाहर हो गई है, और ज्यादातर ऑर्डर या तो रद्द हो रहे हैं या हमें उन्हें पूर्व-निर्धारित दरों पर पूरा कर के नुकसान उठाने हेतु मजबूर होना पड़ रहा है.’

केंद्रीय एमएसएमई मंत्रालय से मिली जानकारी के अनुसार, अलीगढ़ ताला उद्योग 8,000 करोड़ रुपये से अधिक के निर्यात के साथ-साथ लगभग 1.5 लाख कुशल और अकुशल श्रमिकों को रोजगार भी देता है.

रीना अग्रवाल कहती हैं, ‘पिछले आर्डर, जो अभी तक पूरे नहीं हुए हैं, पर आने वाली निर्माण लागत कम से कम 20 प्रतिशत तक बढ़ गई है. हमारा लाभ का हिस्सा ही 10-15 फीसदी है, इसलिए यह अब हमारे लिए घाटे का कारोबार साबित हो रहा है. हमारा व्यापार क्षेत्र रियल एस्टेट जैसे अन्य क्षेत्रों के हालत पर बहुत अधिक निर्भर करता है, जो फ़िलहाल काफी ढीला है और इसने हमें बुरी तरह प्रभावित किया है.’

अग्रवाल ने आगे कहा कि उनकी कंपनी इंडियामार्ट, अमेज़न और फ्लिपकार्ट जैसे ई-कॉमर्स प्लेटफॉर्म पर भी अपने उत्पादों की मार्केटिंग करने की कोशिश कर रही है, लेकिन वहां होने वाले बिक्री इतनी कम है कि इसमें अभी कोई फर्क नहीं पड़ा है.

अलीगढ़ के एक अन्य ताला निर्माता विकास बंसल, जिन्होंने अपने घाटे की भरपाई के लिए अपने व्यापार के एक हिस्से को ऑनलाइन प्लेटफॉर्म पर स्थानांतरित कर दिया है, ने दिप्रिंट को बताया कि कच्चे माल की कीमतों में भारी वृद्धि को ध्यान में रखते हुए उनके ‘तैयार उत्पादों की बढ़ी हुई कीमत को स्वीकार करने के लिए बाजार अभी तक तैयार नहीं है.’

इंडिया रेटिंग्स एंड रिसर्च के मुताबिक, इस साल अगस्त में पिछले साल की तुलना में कोकिंग कोल की कीमतों में 103 फीसदी का उछाल आया है. इसी तरह, अंतराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) की एक रिपोर्ट के अनुसार, धातुओं की कीमतों में उनके महामारी के पूर्व के स्तर के मुकाबले 72 प्रतिशत की वृद्धि हुई, जो सभी औद्योगिक धातुओं के मूल्य में व्यापक आधार पर वृद्धि के साथ अपने नौ साल के उच्च स्तर पर पहुंच गई है.

धातु की कीमतों में आयी इस बढोत्तरी के लिए मुख्य रूप से वैश्विक विनिर्माण-आधारित गतिविधियों में दुबारा आई तेजी को जिम्मेदार माना जा रहा है. दूसरी ओर खनन सम्बन्धी कई गतिविधियों को कोविड -19 की वजह से अस्थायी रूप से बाधा पहुंची है. साथ ही प्रमुख बंदरगाहों में हो रही भीड़भाड़, क्वारंटाइन सम्बन्धी प्रतिबंधों और ईंधन की बढ़ती कीमतों के कारण माल ढुलाई की दरें के 10 साल के अपने उच्च स्तर पर पहुंचने के कारण हालत और भी खराब हो गए हैं.

मुरादाबाद के अंसारी ने कहा, ‘कई सार्वजनिक उपक्रमों और हिंडाल्को जैसी अन्य बड़ी धातु के कारोबार वाले कारखानों ने अपने कामकाज में कटौती की जिससे स्क्रैप (रद्दी माल) का उत्पादन कम हुआ. अंतरराष्ट्रीय स्तर से होने वाले आयात पर शुल्क में वृद्धि से यह मामला और भी बढ़ गया जिस वजह से स्क्रैप की अनुपलब्धता पैदा हो गई.’


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स्क्रैप की कमी ने मेरठ के कैंची उद्योग को भी नुकसान पहुंचाया

मेरठ, जिसको अपने जाने-माने उत्पाद कैंची के लिए भौगोलिक संकेतक (ज्योग्राफिकल इंडिकेटर – जीआई) टैग मिला हुआ है, धातु स्क्रैप का उपयोग करके पिछली तीन शताब्दियों से भी अधिक समय से अपने उत्पाद बना रहा है.

केंद्र सरकार के जीआई जर्नल के अनुसार, इस शहर में छोटे पैमाने पर कैंची बनाने वाली 250 इकाइयां हैं, जिनमें प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से 70,000 लोग कार्यरत हैं.

A scissor-making unit at Meerut | Photo: Manisha Mondal/ThePrint
कैंची बनाने वाली एक यूनिट/फोटो: मनीषा मोंडल/दिप्रिंट

मेरठ सीज़र्स मैन्युफैक्चरर्स एसोसिएशन (कैंची निर्माता संघ ) के अध्यक्ष शरीफ अहमद, जो एक उत्पादन इकाई के मालिक भी हैं, ने दिप्रिंट को बताया, ‘कैंची की ब्लेड कारों, बसों, ट्रकों और रेलवे में पाए जाने वाले स्क्रैप मेटल से बनाया जाता है. इसकी मुट्ठी (हैंडल) एल्यूमीनियम और पीतल के बर्तनों से प्राप्त प्लास्टिक, एल्यूमीनियम या मिश्र धातुओं के स्क्रैप से बने होते हैं. लेकिन लॉकडाउन के कारण नीलामी से प्राप्त स्क्रैप की आवाजाही और यहां तक कि कारखानों में होने वाला इसका निर्माण भी बंद हो गया, जिससे कीमतों में वृद्धि हुई.’

अहमद ने कहा कि हर रविवार को इसकी एक नई दर आती है, और पिछले दो हफ्तों में ही स्क्रैप की कीमत 120 रुपये किलो से बढ़कर 170 रुपये किलो हो गई है.

उन्होंने बताया, ‘निर्माण की कीमतों में वृद्धि के कारण ऑर्डर रद्द हो रहे हैं. लॉकडाउन से पहले, शहर के कैंची उद्योग का सालाना कारोबार 50-60 करोड़ रुपये था. अब फैक्ट्रियों की संख्या 250 से घटाकर 175 हो जाने के साथ यह लगभग आधा हो गया है.’

कोई कर्ज नहीं मिल रहा, जीएसटी से चीजें जटिल हो रही हैं

छोटे व्यवसायों के मालिक सरकार द्वारा कम-ब्याज योजनाओं, जो मुख्य रूप से महामारी से पीड़ित एमएसएमई की मदद के लिए शुरू की गई हैं, के तहत ऋण से वंचित किये जाने की भी शिकायत करते हैं,

अहमद ने कहा, ‘खाते में लेनदेन की कमतर संख्या, क्योंकि उनका अधिकांश काम नकद में होता है, या आईटीआर और जीएसटी की अनुपस्थिति के कारण बैंक छोटे व्यवसायों को कम ब्याज पर ऋण वाली सरकारी योजनाओं का लाभ नहीं उठाने देते हैं. हालांकि सरकार ने यह छूट दे रखी है कि एक विशेष सीमा तक टर्नओवर (कारोबार) से नीचे के व्यवसायों को जीएसटी रिकॉर्ड दिखाने की ज़रूरत नहीं है, फिर भी बैंक वाले इसके लिए पूछते रहते हैं और हमें किसी भी योजना का लाभ नहीं उठाने देते.’

आजम अंसारी कहते हैं, ‘अगर हम 10 लाख रुपये का कारोबार शुरू करते हैं, तो हमें सरकार को इसका 18 फीसदी (जीएसटी के रूप में) देना होगा, जो कि 1.8 लाख रुपये बनता है. तीन या चार महीने बाद जब ऑर्डर पूरा हो जाता है तभी हमें रिफंड मिलता है. यह सब बहुत जटिल हो जाता है. जब आपको इसे वापस ही करना है तो छोटे व्यापारियों से जीएसटी वसूलें ही क्यों ? कारीगर, दुकानदार, निर्यातक, सबका पैसा जीएसटी में फंसा पड़ा है.’

प्रबंधन सम्बन्धी मामलों में परामर्श देबे वाली फर्म ‘प्राइमस पार्टनर्स’ के सह-संस्थापक और प्रबंध निदेशक कनिष्क माहेश्वरी ने भी इस तरह की चिंताओं के प्रति अपना समर्थन व्यक्त किया.

माहेश्वरी ने दिप्रिंट को बताया, ‘जीएसटी जैसे मुद्दों के कारण एमएसएमई इकाइयों को महामारी से पहले ही भारी नुकसान हुआ था. सरकार एमएसएमई सुविधा परिषद (फैसिलिटेशन कौंसिल) माध्यम से भुगतान और आपूर्ति में तेजी लाकर उनके पास नकदी की उपलब्धता से संबधी मुद्दों को हल कर सकती है. एमएसएमई इकाइयों की पूंजी का एक बड़ा हिस्सा जीएसटी रिफंड में फंस गया है, जिसमे तेजी लाकर वित्त मंत्रालय नकदी के प्रवाह को बढ़ावा दे सकता है.’

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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