पानीपत/रोहतक: पानीपत की महिला और बाल विवाह निषेध अधिकारी रजनी गुप्ता को 13 अक्टूबर को एक मुखबिर का फोन आया, जिसमें उसने बताया कि शहर से 20 किमी दूर रिशपुर गांव में एक महिला को उसके पति ने घर के शौचालय में एक साल से भी ज्यादा समय से बंद किया हुआ है. साथ ही मुखबिर ने गुप्ता को अतिरिक्त सावधानी बरतने के लिए भी कहा कि अगर महिला के पति को पता चल गया, तो वह घर का दरवाज़ा नहीं खोलेगा.
40 मिनट बाद, गुप्ता गांव में थीं, चार कांस्टेबल्स के साथ- दो पुरुष और दो महिलाएं. दिन अच्छा था कि घर का गेट खुला मिला. घर की पहली मंजिल पर तीन बाई तीन फीट के शौचालय में उन्हें 38 वर्षीय रामरति बंद मिलीं. तीन बच्चों की मां जो अब कंकाल में तब्दील नजर आ रही थीं, वजन 25 किलो से भी कम.
उनके पति नरेश भी घर पर ही थे. गुप्ता ने बताया, ‘हम सीधे घर में घुस गए थे. नरेश ग्राउंड फ्लोर पर था. हमने पूछा कि पत्नी कहां हैं तो वो हमें पहली मंजिल पर ले गया और शौचालय का गेट खोला. ‘नरेश ने रामरति को शौचालय में बंद किया हुआ था क्योंकि उनके मुताबिक वो पागल औरत हैं.’
उसके बाद तुरंत उन्हें मेडिकल केयर के लिए ले जाया गया और बाद में रोहतक पोस्ट ग्रेजुएट इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंसेज यानि पीजीआई में भर्ती कराया गया जहां उनका इलाज चल रहा है.
रामरति की इस दुर्दशा के पीछे महिलाओं के खिलाफ होने वाली हिंसा, ग्रामीण और साथ ही शहरी भारत में मेंटल हेल्थ के बारे में जागरूकता की कमी और कोविड- लॉकडाउन था.
दिप्रिंट ने घरेलू हिंसा और मेंटल हेल्थ की इस कहानी की परतें खोलने के लिए पानीपत के रिशपुर गांव, सिविल अस्पताल, वन स्टॉप सेंटर और रोहतक पीजीआई का दौरा किया.
रामरति ने जिन डरावनी स्थितियों का सामना किया
पीजीआई रोहतक में रामरति की देखभाल कर रहे उनके रिश्तेदार ने दिप्रिंट को बताया कि पिछले एक सप्ताह से वो एक ही चीज कर रही हैं- वो है खाना. डॉक्टर ने हमें कहा है कि ये जो कुछ भी मांगें, हम इन्हें खिलाएं.’ रामरति को कथित तौर पर शौचालय में रहने के लिए मजबूर किया गया और उन्हें कई दिनों तक खाना नहीं दिया गया था. भोजन और देखभाल से वंचित होने की वजह से वो इतनी कुपोषित हो गई थीं कि वो चलने में भी असमर्थ थीं.
लेकिन अब वह अपनी कहानी बताने के लिए इतनी मजबूत तो हैं कि तीन छोटी-छोटी लाइनों में पूरे एक साल का ब्यौरा दे सकें. अस्पताल के अपने बेड पर बैठे हुए शून्य की ओर ताकते हुए वो कहती हैं, ‘उन्होंने मुझे कभी-कभी खाना दिया. मैंने ज्यादातर शौचालय के भीतर ही अपना खाना खाया. मैंने कभी-कभी बाहर झांकने की कोशिश की.’
गुप्ता उन्हें रेस्क्यू कराने वाले दिन की भयावहता का जिक्र करते हुए बताती हैं, ‘घुटने मुड़े हुए थे और चेहरे पर हमेशा के लिए ठहर जाने वाला एक अजीब से भय के साथ वो लगभग कंकाल नजर आ रही थीं. फटे कपड़ों के साथ बैठी उनको देखकर हमारे रोंगटे खड़े हो गए थे. अपनी 12 वर्षों की इस सर्विस में 2,500 से अधिक महिलाओं को घरेलू शोषण से बचाया है, लेकिन इस मामले ने मुझे पूरी तरह हिला दिया.’
रामरति को रेस्क्यू कराने वाली महिला कांस्टेबल्स में से एक उस दिन को याद करते हुए भावुक हो गईं, उन्होंने दिप्रिंट को बताया, ‘जैसे ही उन्हें बाहर निकाला गया, उन्होंने जो सबसे पहली चीज मांगी वो चाय और चपातियां थीं. उन्होंने एक साथ तुरंत 7 चपातियां खाईं. उनके कपड़ों पर सूखा मल लगा हुआ था. उनके बालों में गांठें पड़ गई थीं. उनको बाद में गर्म पानी और शैंपू से नहलाया गया तो उन्होंने मेरे हाथों में चूड़ियां देखीं. उसके बाद उन्होंने नेल पेंट और चूड़ियां मांगीं.’
जब पिछले हफ्ते नवरात्रि के उपवास के दौरान हमने उनके घर का दौरा किया था तो परिवार के कुछ सदस्यों ने नवरात्रि के उपवास किए हुए थे. उन्होंने जिस शौचालय में रामरति को बंद किया हुआ था, उसी के बग़ल में देवी दुर्गा की एक मूर्ति भी बना रखी थी.
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‘पागलपन’ के चलते ऐसे किया
परिवार ने रामरति का विवाह 17 साल पहले एक किसान नरेश से किया था. आगे चलकर नरेश के पिता ने दो एकड़ ज़मीन बेच दी थी. फ़िलहाल वो एक भूमिहीन किसान हैं. नरेश ने केवल पांचवीं तक पढ़ाई की है. लेकिन पिछले दो सालों से रामरति पब्लिक की नजर से ग़ायब हो गई थीं. रामरति ने ख़ुद बताया कि वो पिछले एक साल से शौचालय में ही रह रही थीं. लेकिन पड़ोसियों और स्थानीय प्रशासन ने बताया कि रामरति को आख़िरी बार करीब ढाई साल पहले देखा गया था.
रामरति के पड़ोस में रहने वाली 60 वर्षीय पार्वती बताती हैं,’ मैंने उसे पहले काम करते देखा था लेकिन पिछले कुछ सालों में वो कभी-कभार ही ऊपरी छत पर नज़र आई. उसके तीनों बच्चे बड़े हो गए थे. अब घर में उसकी ज़रूरत भी नहीं थी. इसलिए उसे शौचालय में मरने के लिए छोड़ दिया गया था.’
रामरति के रिश्तेदारों ने सामने आकर नरेश के खिलाफ शिकायत दर्ज कराने से इनकार कर दिया तो ऐसे में बचाव अधिकारी गुप्ता ने ही घरेलू हिंसा और गलत तरीके से कैद (धारा 498 ए और भारतीय दंड संहिता की धारा 340) के तहत शिकायत दर्ज कराई है. नरेश को 13 अक्टूबर को गिरफ्तार किया गया था, लेकिन अगले दिन उसे जमानत दे दी गई थी.
39 वर्षीय नरेश ने दिप्रिंट को बताया, ‘उसमें दिमाग़ की कमी थी. हमने उसे एक डॉक्टर को भी दिखाया था. अगर वो बाहर निकलती तो हमें शर्मिंदगी उठानी पड़ती. इसलिए हमने ऐसा किया.’
नरेश की बहन 35 वर्षीय कविता कहती हैं, ‘अगर आपके आस-पास एक ऐसी महिला हो जिसमें दिमाग़ की कमी है तो आप उसे बाहर नहीं आने देंगे ताकि समाज में आपका मखौल न उड़े.’
पानीपत सिविल अस्पताल में पिछले आठ साल से कार्यरत मनोचिकित्सक डॉ. मोना नागपाल ने रेस्क्यू के बाद रामरति की जांच की थी और पाया था कि वास्तव में वो एक मानसिक बीमारी से पीड़ित थीं.
नागपाल दिप्रिंट को बताती हैं, ‘रामरति के बयानों में कोई सामंजस्य नहीं था. मैंने अपनी जांच में पाया है कि वो पिछले 12 साल से क्रोनिक मेंटल डिसऑर्डर का शिकार थीं. देखभाल और खाना न मिलने की स्थिति में उनकी हालत बदतर होती गई.’
उन्होंने रामरति जैसी कमजोर महिलाओं के साथ होने वाले दुर्व्यवहार के लिए ग्रामीण भारत में मेंटल हेल्थ को लेकर जागरूकता की कमी को जिम्मेदार ठहराया. वो कहती हैं, ‘न तो महिलाओं और न ही पुरुषों को पता है कि मेंटल हेल्थ क्या है. अगर किसी महिला में अवसाद और चिंता के मामूली संकेत भी नज़र आते हैं तो उसे कई तरह के नाम दे दिए जाते हैं. बहुत बार परिवार इन महिलाओं से ‘भूत’ को बाहर निकलवाने के लिए कई तथाकथित बाबाओं के पास भी जाते हैं.’
रामरति के परिवार ने भी बताया कि जब उसमें ठीक होने के कोई संकेत नहीं दिखाई दिए तो उन्होंने कुछ ऐसे बाबाओं के चक्कर लगाए.
प्रशासन की लापरवाही और लॉकडाउन से गहराया संकट
गुप्ता के अनुसार, तीन एजेंसियां जो महिलाओं के कल्याण के लिए जिम्मेदार हैं – गांव के सरपंच, आंगनवाड़ी कार्यकर्ता और नज़दीकी पुलिस चौकी. वो कहती हैं, ‘इस मामले में, ये तीनों ही एजेंसियां गांव में जो कुछ भी हो रहा था, उससे अनभिज्ञ थीं.’
रिशपुर गांव की तीन आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं में से एक संचिता ने कहा, ‘आखिरी बार मैंने रामरति को ढाई साल पहले देखा था, जब हम एक सर्वेक्षण के लिए गए थे. हमने कुछ दस्तावेजों की मांग की थी लेकिन उसने हमें बताया कि उसके पास कोई दस्तावेज नहीं है.’
वो आगे जोड़ती हैं, ‘उसके बाद हमने उसे कभी नहीं देखा. घर पर हमेशा उनके पति या बच्चों से ही मुलाक़ात हुई. पिछले आठ महीनों में, कोरोनोवायरस के कारण हमारे सर्वे भी सीमित हो गए और घरेलू हिंसा दूसरी प्राथमिकता बन गई.’
गुप्ता के अनुसार इस घोर लापरवाही के लिए आंगनवाड़ी केंद्र के खिलाफ जांच शुरू की जा रही है.
ग्राम प्रधान रविंद्र कुमार ने भी कुछ ऐसा ही कहा, ‘हमने कभी रामरति को शौचालय में रखे जाने के बारे में नहीं सुना. पिछले कुछ महीनों से पंचायतें कोरोनावायरस से निपटने में व्यस्त हो गई थी और एक दूसरे के घरों में जाना भी बंद हो गया था.’
इधर, नरेश और उनके बच्चे एजेंसियों को विरोधाभासी बयान दे रहे हैं. बच्चों ने बताया कि उन्होंने रामरति को शौचालय में बंद नहीं किया था जबकि नरेश स्वीकार कर रहा है कि उसकी मानसिक स्थिति और लोक-लाज के चलते ऐसा करना पड़ा.’
गुप्ता ने दिप्रिंट को बताया, ‘हमने रामरति के तीन नाबालिग बच्चों की काउंसलिंग कराई है. वो अपने घर में हो रही चीजों को अनदेखा कर रहे थे. अपनी मां के बारे में वो कुछ नहीं बताते हैं. नरेश उनके लिए खाना बनाता था और मां शौचालय में बंद थीं- एक साल से यही रूटीन चल रहा था.’
अब, हरियाणा राज्य महिला आयोग ने इस मामले की जांच के लिए ममता गौड़ की अगुवाई में एक पांच सदस्यीय समिति का गठन किया है. पैनल को 10 दिनों के भीतर अपनी रिपोर्ट जमा करानी है.
हरियाणा महिला आयोग की कार्यवाहक चेयरपर्सन प्रीति भारद्वाज ने दिप्रिंट को बताया, ‘हमारी टीम दो बार गांव में जाकर पड़ोसियों के बयान दर्ज किए हैं. कई लोग सामने आए और रामरति के साथ हुई घटनाओं की पुष्टि कर रहे हैं. हम कानून के तहत अन्य पहलुओं को भी देख रहे हैं, क्योंकि रामरति के नाबालिग बच्चे भी इसे ग़ैर कानूनी काम में शामिल हैं.’
ग्लोबल लॉकडाउन के तहत घरेलू हिंसा में हुई अप्रत्याशित बढ़ोतरी
संयुक्त राष्ट्र ने कहा कि दुनियाभर में फैली इस महामारी और लॉकडाउन के कारण, घरेलू हिंसा के मामलों में 20 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हो गई है.
दि हिंदू की एक रिपोर्ट के अनुसार, मार्च से मई तक, लॉकडाउन के पहले चरण में भारत में दर्ज हुईं घरेलू हिंसा की शिकायतें पिछले 10 सालों दर्ज हुई शिकायतों से कहीं अधिक ज़्यादा हैं. इस रिपोर्ट के मुताबिक़ घरेलू हिंसा का शिकार होने वाली लगभग 86 प्रतिशत महिलाओं को कभी मदद नहीं मिल पाती है.
इस रिपोर्ट के मुताबिक़ घरेलू हिंसा का शिकार होने वाली लगभग 86 प्रतिशत महिलाओं को कभी मदद नहीं मिल पाती है.
पानीपत सिविल अस्पताल की डॉक्टर नागपाल इस पर कहती हैं, ‘लॉकडाउन के पहले चरण में महिलाएं पुलिस, हेल्पालाइन नंबरों या फिर आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं के माध्यम से मदद नहीं ले सकीं. इससे स्थिति और ख़राब हो गई. लॉकडाउन में ढील दिए जाने के बाद, हमारे पास एक दिन में लगभग 50 मरीज आने लगे. हमने पाया कि इनमें से ज्यादातर महिलाएं थीं जिसमें से ज्यादातर घरेलू हिंसा के कारण मानसिक विकारों से पीड़ित थीं.’
हालांकि, प्रीति भारद्वाज कहना है कि हरियाणा में लॉकडाउन के शुरुआती चरण में घरेलू हिंसा के मामलों में वृद्धि हुई थी मगर बाद में स्थिति में सुधार हुआ था.
वो आगे जोड़ती हैं, ‘पुलिस के आंकड़ों और 1091 (हरियाणा की महिलाओं के लिए हेल्पलाइन) पर हमें मिली कॉल्स के अनुसार ट्रेंड देखने को मिला था कि लॉकडाउन ने घरेलू हिंसा के मामलों को बढ़ा दिया है. कई महिलाएं अपने साथ हुई मारपीट की शिकायत कर रही थीं तो कई बता रही थीं कि कैसे उनसे मोबाइल फ़ोन तक छीन लिए गए थे.’
लेकिन वो ये भी कहती हैं, ‘पिछले कुछ महीनों के आंकड़े बताते हैं कि महिलाओं के खिलाफ हिंसा में कमी आई है.
हरियाणा पुलिस के आंकड़ों के अनुसार, पिछले साल की तुलना में 17 प्रतिशत कम मामले हैं. हमारे अपने आकलन में ये बात सामने आई है कि मार्च से सितंबर तक महिलाओं के खिलाफ हिंसा में पिछले साल की तुलना में 23 फीसदी की कमी आई है.’
हालांकि, पानीपत में वन स्टॉप सेंटर की इंचार्ज ईशा वर्मा एक अलग कहानी बताती हैं. वन स्टॉप सेंटर केंद्रीय महिला और बाल विकास मंत्रालय की एक प्रमुख योजना के तहत स्थापित किए गए हैं. जिनका उद्देश्य निजी या फिर सार्वजनिक स्थान, परिवार के बीच या फिर कार्यस्थल पर हिंसा की शिकार हुई महिलाओं को सपोर्ट करना है.
वर्मा दिप्रिंट को बताती हैं, ‘हमने कोविड लॉकडाउन के दौरान घरेलू हिंसा के मामलों में तेजी से हुई बढ़ोतरी देखी है.’
वो आगे जोड़ती हैं, ‘हमारे पास कुछ मामले आंगनवाड़ियों के माध्यम से, कुछ पुलिस के माध्यम से आते हैं, लेकिन ज़्यादातर जो पीड़ित महिलाएं हैं ख़ुद ही हम तक पहुंचती हैं.’
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