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Monday, 25 November, 2024
होमदेशममता का कार्टून फॉरवार्ड करने के आरोप में गिरफ्तार प्रोफेसर की 9 साल बाद भी जारी है कानूनी लड़ाई

ममता का कार्टून फॉरवार्ड करने के आरोप में गिरफ्तार प्रोफेसर की 9 साल बाद भी जारी है कानूनी लड़ाई

अंबिकेश महापात्रा पर आईटी एक्ट की धारा 66 ए के तहत आरोप लगाया गया था, लेकिन उच्चतम न्यायालय द्वारा इस कानून को ख़ारिज किये जाने के 6 साल बाद भी उनका मामला अदालत में जारी है. ममता सरकार का कहना है कि इस सब से उसका कोई लेना-देना नहीं है.

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कोलकाता: कोलकाता के जादवपुर विश्वविद्यालय में रसायन विज्ञान के प्रोफेसर अंबिकेश महापात्रा को अप्रैल 2012 में पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी का मजाक उड़ाते हुए एक कार्टून वाले ईमेल को आगे फॉरवर्ड करने के लिए गिरफ्तार किया गया था.

सत्यजीत रे की कथा ‘सोनार केल्ला’ पर आधारित कार्टूनों की इस श्रृंखला में दिनेश त्रिवेदी की जगह मुकुल रॉय को केंद्रीय रेल मंत्री बनाये जाने पर व्यंग्य किया गया था; इसमें ममता बनर्जी की भी तस्वीर थी.

हालांकि प्रो. महापात्रा के खिलाफ दर्ज प्राथमिकी में आईपीसी की धारा 509 (शब्दों, इशारों अथवा कृत्यों द्वारा किसी महिला के शील का अपमान), 500 (मानहानि), 114 (अपराध होने के समय उपस्थित होना), के अलावा सूचना एवं प्रौद्योगिकी अधिनियम (आई.टी. एक्ट) की धारा 66 ए (कंप्यूटर का उपयोग करके अपराध करना) के तहत आरोप लगाए गए थे, परन्तु, अंत में दायर किये गए 96 पन्नों वाले आरोप पत्र में आईटी एक्ट की धारा 66 ए(बी) और 66ए(सी) – (किसी अन्य की पहचान चुराने के लिए सजा) – को छोड़कर पुलिस ने बाकी सभी आरोपों को हटा दिया था.

मगर इस घटना के साढ़े नौ साल बाद भी प्रो. महापात्रा अभी भी कानूनी पचड़े में फंसे हुए हैं, हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने छह साल पहले – 2015 में – हीं आईटी एक्ट की धारा 66 ए को खत्म कर दिया था. इस साल जुलाई में, केंद्रीय गृह मंत्रालय ने सभी राज्यों से धारा 66ए के तहत दर्ज सभी मामलों को वापस लेने को कहा था.

इसके बाद, सितंबर 2021 में, एक स्थानीय अदालत ने प्रोफेसर महापात्रा के खिलाफ दायर आरोपपत्र से धारा 66ए को हटा दिया, लेकिन उनके खिलाफ चल रहे मुकदमे को जारी रखा.

14 सितंबर को जारी किये गए अपने आदेश में अलीपुर (दक्षिण 24 परगना) के मुख्य न्यायिक दंडाधिकारी की अदालत ने कहा, ‘आरोपी अंबिकेश महापात्रा को सूचना एवं प्रौद्योगिकी अधिनियम, 2000 की धारा 66 ए के तहत लगाए गए आरोप से मुक्त किया जाता है, लेकिन आरोपी अंबिकेश महापात्रा को मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट, अलीपुर के न्यायालय के समक्ष लंबित मुकदमा संख्या सी 1810/2016 से बरी नहीं किया जाता है.‘

अदालत ने इस मामले में सुनवाई की अगली तारीख के लिये 17 नवंबर की तारीख यह निर्धारित करने के लिए तय की कि ‘क्या आईपीसी की धारा 500/509 या किसी अन्य कानून के तहत आरोपी अंबिकेश महापात्रा के खिलाफ कोई मामला चलाया जा सकता है या फिर आरोपी अंबिकेश महापात्रा को पूरी तरह से आरोप मुक्त किया जाना चाहिए या नहीं.‘

प्रो. महापात्रा ने दिप्रिंट को बताया कि वह स्थानीय अदालत के इस आदेश से स्तब्ध हैं.

उन्होंने कहा, ‘मेरे मामले में दिया गया पिछला आदेश चौंकाने वाला है. निश्चित रूप से अदालत सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस सरकार से प्रभावित हो रही है. मेरा मुक़दमा इस तथ्य के बाद भी ख़ारिज नहीं किया गया कि सुप्रीम कोर्ट ने अपने आदेश में देश भर की सभी अदालतों को ऐसे सभी मामलों को रद्द करने और नए सिरे से कोई मुकदमा दायर न करने का निर्देश दिया था.‘

प्रो. महापात्रा कहते हैं, ‘पिछले छह वर्षों में, मार्च 2015 के बाद से, जब सुप्रीम कोर्ट का यह आदेश आया था, मुझे सुनवाई के लिए कम-से-कम 20 से 25 तारीखें मिली हैं. लेकिन यह सब बेकार की कवायद है. इस मामले में कोई भी सुनवाई उचित रूप से नहीं हो रही है. इस जुलाई में, जब इससे संबंधित एक और जनहित याचिका दायर की गई थी तो केंद्रीय गृह मंत्रालय ने सभी राज्यों को इस तरह के मामलों को वापस लेने के लिए लिखा था. इसके बाद कलकत्ता उच्च न्यायालय ने राज्य की सभी निचली अदालतों को ऐसे मामलों पर एक वर्तमान स्थिति रिपोर्ट (करंट स्टेटस रिपोर्ट) पेश करने के लिए कहा था. इसके बाद ही अलीपुर कोर्ट ने धारा 66ए को तो हटा दिया, लेकिन अपने आदेश में कहा कि मुकदमा अभी भी कायम रहेगा.’

प्रो.महापात्रा का कहना है कि उन्होंने इन सब सालों के दौरान मुकदमा लड़ने में लाखों रुपये खर्च किए हैं, साथ हीं उन्हें कई निजी रुकावटों, जैसे कि पिछले साल उनके पासपोर्ट के साथ आई दिक्कत, का भी सामना करना पड़ा है.

वे कहते हैं, ‘पासपोर्ट अथॉरिटी ने मुझसे अदालत से अनापत्ति प्रमाणपत्र (नो ऑब्जेक्शन सर्टफिकेट) लेने को कहा और यह मुझे मिल भी गया. उसके बाद उन्होंने 10 साल के लिए मेरे पासपोर्ट का नवीनीकरण कर दिया और इसे मेरे घर पर भी पहुंचा दिया. लेकिन बाद में, मुझे पासपोर्ट कार्यालय बुलाया गया और इसे वापस जमा करने के लिए कहा गया. मुझे बताया गया कि मेरे दस्तावेजों के सत्यापन के बारे में प्राधिकरण को पुलिस से दो बार प्रतिकूल रिपोर्ट मिली थी. इसलिए उन्होंने मेरा पासपोर्ट रद्द कर दिया और दुबारा इसे एक साल के लिए सशर्त जारी किया गया. मुझे इस तरह के अपमान और उत्पीड़न का शिकार क्यों बनाया जा रहा है? पिछले दस साल में मुझे कोई न्याय नहीं मिला.’

हालांकि, पश्चिम बंगाल सरकार में कानून मंत्री मोलॉय घटक ने दिप्रिंट को बताया कि उनकी सरकार का इस मामले से कोई लेना-देना नहीं है.

उन्होंने कहा, ‘अंबिकेश महापात्रा वाला यह मामला काफी पुराना और जटिल है. मुझे इस मुकदमे के सभी पहलू तो याद नहीं हैं, लेकिन इसमें कुछ अन्य धाराएं भी हैं. (धारा) 66ए को हटा दिया गया है. जहां तक अन्य धाराओं का सवाल है, उस बारे में संबंधित अदालत ही कोई फैसला ले सकती है. इसमें सरकार की कोई भूमिका नहीं होती है; कानून अपना काम स्वयं करेगा.’


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आई. टी. एक्ट वाले फैसले में उच्चतम न्यायालय ने महापात्रा के मामले का भी हवाला दिया था

मार्च 2015 में, सुप्रीम कोर्ट ने श्रेया सिंघल बनाम भारत संघ मामले में सूचना प्रौद्योगिकी (आईटी) अधिनियम की धारा 66 ए को रद्द करते हुए इस कानून को ‘ओपन एंडेड (बिना किसी निर्धारित सीमा के) और असंवैधानिक रूप से अस्पष्ट’ कहा था. इसके परिणामस्वरूप शीर्ष अदालत ने इंटरनेट पर बोलने की आजादी की परिसीमा को और अधिक विस्तृत कर दिया था

प्रो. महापात्रा के अनुसार, जब यह सारा मामला शीर्ष अदालत के समक्ष चल रहा था तो उस दौरान उनके मामले का भी हवाला दिया गया था. वे कहते हैं, ‘उन्होंने (शीर्ष अदालत ने) सुनवाई सत्र के दौरान मेरे मामले का भी उल्लेख किया. देश भर में इसी तरह के सैकड़ों मामले चल रहे हैं, और इस बारे में अदालत का आदेश स्पष्ट था. इसने सभी अदालतों से ऐसे पुराने मामलों को भी रद्द करने को कहा है.’

साल 2013 में, सुप्रीम कोर्ट के सेवानिवृत्त न्यायमूर्ति अशोक गांगुली के नेतृत्व वाले पश्चिम बंगाल मानवाधिकार आयोग ने इस मामले का स्वत: संज्ञान लिया था और राज्य सरकार से प्रो महापात्रा को 50,000 रुपये का मुआवजा देने के लिए कहा था. 2015 में, कलकत्ता उच्च न्यायालय ने राज्य सरकार को पश्चिम बंगाल मानवाधिकार आयोग के आदेश को लागू करने का निर्देश दिया था.

हालांकि प्रो. महापात्रा का दावा है कि उन्हें कोई भी मुआवजा नहीं मिला और इस आदेश को कभी लागू ही नहीं किया गया.

इस मुआवजे वाले मुद्दे के बारे में पूछे जाने पर, राज्य के कानून विभाग के एक वरिष्ठ अधिकारी ने कहा, ‘यह मामला अभी भी अदालत के विचाराधीन है. सरकार कानूनी प्रक्रिया के तहत काम कर रही है.’

(यह रिपोर्ट अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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