scorecardresearch
Saturday, 18 May, 2024
होमदेश‘भूख-प्यास’ छोड़कर तुर्की में भूकंप पीड़ितों की मदद करना— NDRF के लिए किसी चुनौती से कम नहीं

‘भूख-प्यास’ छोड़कर तुर्की में भूकंप पीड़ितों की मदद करना— NDRF के लिए किसी चुनौती से कम नहीं

पहले कुछ दिनों के लिए NDRF की टीमों को भूकंप के केंद्र से सिर्फ 23 किमी दूर गजियांटेप के सबसे अधिक प्रभावित इलाकों में तैनात किया था. अब उन्हें वहां से हाटे प्रांत में शिफ्ट कर दिया है.

Text Size:

नई दिल्ली: भारत की आपदा रिस्पांस टीमें भूकंप प्रभावित तुर्की में पिछले 11 दिनों से दिन-रात काम कर रही हैं. हल्के झटकों और अनिश्चित रूप से झुकी हुई इमारतों के बीच मलबे को घंटों तक हटाना और ठंड के मौसम में मलबे के नीचे से मदद के लिए हल्की आवाज़ों को पहचानने की कोशिश करना आसान कार्य नहीं है.

छह फरवरी को एक के बाद एक आए विनाशकारी भूकंपों से तुर्की और सीरिया में जानमाल का बहुत भारी नुकसान हुआ है. हालांकि, कुछ घंटों के भीतर ही भारत ने आपदा राहत सामग्री पहुंचाकर तुर्की की हर संभव मदद करने की कोशिश की. एनडीआरएफ रिस्पांस टीमों को भी वहां भेजा गया.

पहले कुछ दिनों के लिए नेशनल डिजास्टर रिस्पांस फोर्स (एनडीआरएफ) की टीमों को भूकंप के केंद्र से सिर्फ 23 किमी दूर स्थित गजियांटेप के सबसे अधिक प्रभावित क्षेत्रों में तैनात किया गया था. बिना पानी, बिजली और सीमित पैक्ड फूड के साथ, बटालियन ने कई लोगों को ज़िंदा बाहर निकालने के लिए प्रतिलकूल मौसमी परिस्थितियों में दिन-रात काम किया है.

हालांकि, भारतीय टीम को अब हाटे प्रांत में शिफ्ट कर दिया गया है.

हाटे से फोन पर दिप्रिंट से बातचीत करते हुए तुर्की में ऑपरेशन का नेतृत्व कर रहे कमांडेंट गुरमिंदर सिंह ने कहा कि तबाही काफी ज्यादा है.

अच्छी पत्रकारिता मायने रखती है, संकटकाल में तो और भी अधिक

दिप्रिंट आपके लिए ले कर आता है कहानियां जो आपको पढ़नी चाहिए, वो भी वहां से जहां वे हो रही हैं

हम इसे तभी जारी रख सकते हैं अगर आप हमारी रिपोर्टिंग, लेखन और तस्वीरों के लिए हमारा सहयोग करें.

अभी सब्सक्राइब करें

उन्होंने कहा, ‘‘बड़े पैमाने पर तबाही हुई है. ऑपरेशन शुरू होने के पहले तीन से चार दिनों तक टीमें बिना कुछ खाए, पिए, सोए या बिना रुके काम कर रही थीं. पहले कुछ दिन महत्वपूर्ण होते हैं. हम जितना संभव हो उतने लोगों को जीवित बाहर निकालने का प्रयास कर रहे हैं.’’

वह आगे कहते हैं, ‘‘ऐसी परिस्थितियों में काम करना काफी मुश्किल है जहां लगातार बर्फ गिर रही है, मौसम खराब है, लकड़ी या गैस या पानी जैसे संसाधन नहीं हैं. बहुत सारे लोग मलबे के नीचे दबे हुए हैं और उनके परिवार मदद की गुहार लगा रहे हैं.’’

गुरमिंदर ने कहा, ‘‘ऊपर से समय-समय पर आने वाले हल्के झटके और आसपास की अनिश्चित रूप से झुकी इमारतें, जो किसी भी पल ढह सकती हैं. ऐसी परिस्थितियों में काम करने के लिए टीमों को बहुत ताकत और समर्पण की जरूरत होती है.’’

सिंह ने एक घटना को याद करते हुए बताया कि कैसे एक ही परिवार के सभी 10 लोग मलबे में दबकर मर गए. ये सभी सभी सीरियाई शरणार्थी थे. सिंह ने कहा, ‘‘आपदा में पूरा परिवार खत्म हो गया. शवों का दावा करने वाला कोई नहीं था. यह दिल दहला देने वाला था.’’


यह भी पढ़ेंः विदेशों में तैनात रॉ ऑफिसर्स का लोकल भाषाएं न जानना खुफिया जानकारियां जुटाने में बना एक बड़ी चुनौती


‘खुफिया जानकारी जुटाना, तलाशी और बचाव’

आपदा के समय एनडीआरएफ की टीमों को एक सीमित समय में ज्यादा से ज्यादा लोगों को ज़िंदा बाहर निकालने की ट्रेनिंग दी जाती है. ढही हुई इमारतों के मलबे के साथ-साथ ढहने के कगार पर खड़ी इमारतों में भी खोज और बचाव अभियान चलाए जाते हैं.

ड्रिल करते हुए प्रभावित क्षेत्रों को सेक्टरों में विभाजित किया जाता है और फिर टीमों को तैनात किया जाता है. इस तरह के ऑपरेशन में पहला कदम यह है कि मलबे के नीचे कितने लोग फंसे हो सकते हैं, इसका अंदाज़ा लगाने के लिए खुफिया जानकारी जुटानी पड़ती है.

सिंह ने समझाते हुए कहा, ‘‘हम यह पता लगाने के लिए स्थानीय अधिकारियों के साथ मिलकर काम करते हैं कि कितने लोग ढह गए ढांचे के नीचे फंसे हो सकते हैं. टीमें तब क्षेत्र को सुरक्षित करती हैं और ऑपरेशन शुरू करती हैं. वे मलबे को काटने से शुरुआत करते हैं और व्यक्ति के जीवित होने के किसी भी संकेत को पकड़ करने की कोशिश करते हैं. उदाहरण के लिए बेहोशी में बड़बड़ाना या मदद के लिए पुकारना, उन्हें मिलने वाले संकेत होते हैं.’’

टीमों के उपकरण में विक्टिम लोकेटर और भूकंपीय रडार शामिल हैं. सिंह ने बताया, ‘‘उपकरण हमें पूरी तरह से खोज करने में मदद करता है. भूकंपीय रडार को ज़मीन पर रखा जाता हैं. यह जरा सी भी हलचल को पकड़कर हमें बताता है कि वहां कोई फंसा हुआ है. थर्मल इमेज के लिए भी उपकरणों का इस्तेमाल किया जाता है.’’

वह आगे बताते हैं, ‘‘हमारा तुरुप का इक्का हमारा डॉग स्क्वायड है जो मलबे के नीचे मानव जीवन को सूंघ सकता है. स्वान दस्ते ने इस ऑपरेशन में हमारी काफी मदद की है.’’

यह पहली बार नहीं है जब भारत विदेश में राहत कार्य के लिए एनडीआरएफ की टीमें भेज रहा है. 2011 में जापान में आए भूकंप, सूनामी और न्यूक्लियर मेलटडाउन (ट्रिपल डिजास्टर) के दौरान भी टीम वहां मदद के लिए पहुंची थी. साल 2015 में नेपाल में आए विनाशकारी भूकंप के बाद भी कर्मियों को वहां भेजा गया था.


यह भी पढ़ेंः तुर्की में NDRF की मौजूदगी भारत के सॉफ्ट पावर को दिखाता है, यह NATO के लिए एक संदेश भी है


डिजास्टर रिस्पांस के लिए एक विशेष टीम

एनडीआरएफ, प्राकृतिक और साथ ही मानव निर्मित आपदाओं को संभालने के लिए 2006 में गठित एक समर्पित बल है. इसे रासायनिक, जैविक, रेडियोलॉजिकल और परमाणु (सीबीआरएन) जैसी आपात स्थितियों के दौरान भी काम करने के लिए तैयार किया गया है.

90 के दशक के अंत और 2000 के दशक की शुरुआत में भारत ने अपनी कुछ सबसे गंभीर प्राकृतिक आपदाओं का सामना किया था. इसमें 1999 में उड़ीसा सुपर साइक्लोन, 2001 में गुजरात भूकंप और 2004 में हिंद महासागर सुनामी शामिल है. तब एक व्यापक आपदा प्रबंधन योजना की ज़रूरत को देखते हुए 26 दिसंबर, 2005 को आपदा प्रबंधन अधिनियम लागू किया गया. इस कानून के तहत एनडीआरएफ का गठन किया गया था.

वर्तमान में एनडीआरएफ की 15 बटालियन हैं, जिनमें से हर एक में 1149 कर्मी हैं. प्रत्येक बटालियन 18 सेल्फ कंटेन्ड स्पेशलिस्ट सर्विस करने में सक्षम है. 45 बचावकर्मियों की उनकी टीम में इंजीनियर, तकनीशियन, इलेक्ट्रीशियन, डॉग स्क्वॉड और पैरामेडिक्स शामिल हैं.

दिप्रिंट से बात करते हुए एनडीआरएफ के महानिदेशक अतुल करवाल ने कहा, ‘‘एनडीआरएफ में 7 साल के लिए प्रतिनियुक्ति की जाती है. उम्र एक बड़ा कारक है. बचाव कर्मियों के लिए फिट रहना जरूरी होता है क्योंकि उन्हें भारी उपकरणों के साथ कठोर परिस्थितियों में काम करना पड़ता है.’’

उन्होंने कहा कि कर्मियों को नौ सप्ताह की कठोर ट्रेनिंग- बेसिक फर्स्ट रेस्पोंडेंट कोर्स (बीएफआरसी)- से गुजरना पड़ता है. बीएफआरसी में मेडिकल फर्स्ट रेस्पोंडेंट कोर्स (एमएफआरसी), एक्वाटिक डिजास्टर रिस्पांस (एडीआर) और कोलैप्स्ड स्ट्रक्चर सर्च एंड रेस्क्यू (सीसीएसआर) जैसे घटक शामिल हैं.

एमएफआरसी कर्मियों को बचाव के बाद पीड़ितों की मदद करने के लिए प्राथमिक चिकित्सा तकनीक सिखाता है, एडीआर उन्हें नाव चलाने, पानी के नीचे काम करने, तैरने और गोता लगाने के लिए प्रशिक्षित करता है. सीसीएसआर पाठ्यक्रम उन्हें खोज और बचाव तकनीक सिखाता है.

करवाल ने कहा, ट्रेनिंग का एक अन्य महत्वपूर्ण पहलू सीबीआरएन है. इसमें कर्मियों को रसायनों और गैस रिसावों को पहचानने और उनका पता लगाने और प्रभावित स्थानों में बचाव कार्यों में काम करने की ट्रेनिंग दी जाती है.

उन्होंने बताया, ‘‘ऐसी स्थिति में क्या एंटीडोट्स देना है, केमिकल लैब या अस्पताल या डायग्नोस्टिक सेंटर से रेडियोएक्टिव लीकेज के स्रोत की पहचान कैसे करें, रेडियोएक्टिव एलिमेंट्स की स्ट्रेन्थ का पता कैसे लगाएं और बचाव अभियान कैसे करें, उन्हें इस सबके लिए तैयार किया जाता है.’’

करवाल कहते हैं, ‘‘बचाव कार्यों के दौरान NDRF ने CBRN चुनौतियों का सामना करने में भी काफी विशेषज्ञता हासिल कर ली है. अप्रैल और मई 2010 के दौरान मायापुरी, दिल्ली में कोबाल्ट -60 रेडियोलॉजिकल को पुनः प्राप्त करने में एनडीआरएफ का महत्वपूर्ण योगदान रहा है.’’

करवाल ने कहा कि बचावकर्मी इन पाठ्यक्रमों में मास्टर डिग्री भी लेते हैं और उन्हें ट्रेनिंग के लिए विदेश भेजा जाता है.

उन्होंने कहा, ‘’विदेश में ट्रेनिंग सेशन होते हैं जिनमें हमारे कर्मचारी भाग लेते हैं. उदाहरण के लिए संयुक्त राज्य अमेरिका में उन्होंने काफी कुछ सीखा और फिर उसे अपने ऑपरेशन्स में लागू किया है.’’

शुरुआत में जब एनडीआरएफ का गठन किया गया था, तो इसके कर्मियों को भी नियमित लॉ एंड ऑर्डर बनाए रखने के लिए तैनात किया गया था. हालांकि, 2007 में तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के समय राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण की बैठक के दौरान इसे डिजास्टर रिस्पांस के लिए एक समर्पित बल बनाने की जरूरत को रेखांकित किया गया. फरवरी 2008 में अधिसूचित एनडीआरएफ नियमों में इसे आधिकारिक बना दिया गया था.

(अनुवाद : संघप्रिया | संपादन : फाल्गुनी शर्मा)

(इस खबर को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


यह भी पढ़ेंः तुर्की शो में सिर तन से जुदा, क्रॉस बना नूपुर शर्मा की फोटो- उदयपुर दर्जी हत्या को किसने ‘उकसाया’


 

share & View comments