ऊटी: 35-वर्षीय करण सिंह, गुरुग्राम में पले-बढ़े हैं और घुटने में लगी चोटों के कारण एथलेटिक्स छोड़ने से पहले उन्होंने अमेरिका के ट्रैक टाउन के रूप में जाने वाले यूजीन, ओरेगन में एक अर्ध-पेशेवर एथलीट के रूप में प्रशिक्षण भी प्राप्त किया था.
अब उनका जीवन देश के दो विपरीत छोर पर बसे दो राज्यों- झारखंड और तमिलनाडु – के इर्द-गिर्द घूमता है.
साल 2012 में जब उनका मध्यम दूरी के धावक के रूप में करियर खत्म हो गया, तब सिंह ने फैसला किया कि वह भविष्य के ओलंपिक खेलों के लिए अन्य एथलीटों को प्रशिक्षित करेंगे और इसके लिए देश भरे में – केरल, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, झारखंड और उत्तर प्रदेश से- संभावित प्रतिभाशाली धावकों की तलाश करेंगे.
2018 में दिल्ली में ऐसे धावकों को प्रशिक्षित करने के लिए एक गैर-लाभकारी संगठन इंडियन ट्रैक फाउंडेशन (आई.टी.एफ) की स्थापना करने के बाद, उन्होंने आखिरकार झारखंड के संभावित एथलीटों को प्रशिक्षित करने पर अपना ध्यान केंद्रित किया.
इससे काफ़ी पहले उन्होंने अपने आधार केंद्र को तमिलनाडु के व्यस्त से हिल स्टेशन ऊटी में स्थानांतरित कर दिया.
आख़िर ऊटी हीं क्यों? यह सवाल पूछे जाने पर सिंह ने दिप्रिंट को बताया कि ज़्यादा ऊंचाई वाली जगहें मध्यम और लंबी दूरी की दौड़ के प्रशिक्षण के लिए अच्छी होती है और इससे एथलीटों को उनके समय को और बेहतर बनाने में मदद मिलती है. उनके शरीर की लाल रक्त कोशिकाएं बढ़ जाती हैं और फिर उनके लिए समुद्री स्तर पर प्रतिस्पर्धा करना आसान हो जाता है.
गुरुग्राम में जिए गये जिस एकमात्र जीवन के साथ उनका परिचय था, उससे दूर जाने का यह सपना भी यूजीन में उनके कोचों द्वारा दी गई सलाह के आधार पर लिया गया था.
उनका कहना है, ‘वहां के मेरे कोचों ने मुझ से कहा था कि अगर मुझ मेरे एथलीटों को ओलंपिक पदक विजेता बनाने का सपना साकार करना है तो मुझे संन्यासी जैसा जीवन बिताने की जरूरत है.’
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एक कोच के रूप में उनका सफ़र
ऊटी स्थित इंडियन ट्रैक फाउंडेशन ही कोच करण सिंह का घर भी है. वह अपने इस घर में अपनी पत्नी सोनम, दो बेटियों और 11-16 वर्ष की आयु के 14 एथलीटों के साथ रहते है, जिन्हें उन्होंने झारखंड के अंदरूनी हिस्सों – कुंदपानी, लातेहार, डालटनगंज और गुमला – से खोजा है.
सिंह ने दिप्रिंट को बताया, ‘हमने सोचा कि झारखंड हमारी कसौटी पर खरा उतरता है क्योंकि हम ऐसे बच्चे चाहते थे जो पहले कभी नहीं दौड़े हों. ये बच्चे सिर्फ़ रांची के बाहरी इलाके से नही हैं, बल्कि राज्य के अंदरूनी हिस्सों से भी आते हैं.’
वह मोड़ जिसने सिंह को अपने दौड़ने का करियर छोड़ने के लिए मजबूर किया, तब आया जब वह बेंगलुरु में एक राष्ट्रीय शिविर में भाग ले रहे थे.
आमतौर पर थकान दूर करने के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले एक इनफ्लेटबल (फुलाए जा सकने वाले) बर्फ से भरे टब में बैठे, सिंह ने जब अपने छात्रावास के कमरे से बाहर तो देखा उन्होंने पाया कि देश के सबसे अच्छा मध्यम दूरी के एथलीट अपनी थकान दूर करने के लिए अपनी मांसपेशियों पर बर्फ के एक टुकड़े का उपयोग कर रहे थे.
वे बताते हैं, ‘बहुत-से-बहुत मैं एक औसत दर्जे का मध्यम दूरी का धावक था. मैंने जब अपने छात्रावास के कमरे से बाहर देखा और यह पाया कि एक राष्ट्रीय चैंपियन, जो मुझसे कहीं अधिक अच्छा एथलीट था, अपने क्वाड्स पर बर्फ के एक टुकड़े का उपयोग कर रहा था. मैंने तुरंत इस अपराध बोध को महसूस किया और सोचा कि उसे मेरे स्थान पर होना चाहिए, और उसकी जगह पर मुझे.’
साल 2012 में, सिंह ने महसूस किया कि वह एक पेशेवर एथलीट के रूप में कभी उन ऊंचाइयों तक नहीं पहुंच पाएंगे जैसा वह चाहते थे और इसी मोड़ पर उन्होंने खेल के दूसरे आयाम की तरफ जाने का फैसला किया.
धावको के लिए यूजीन के जैसा हों एकोसिस्टम (परिस्थितियों और सुविधाओं का तंत्र) तैयार करने की चाहत के साथ सिंह ने दिल्ली में अपने इंडियन ट्रैक क्लब की शुरुआत की, जिसमें उनके द्वारा प्रशिक्षित कई धावक राज्य और राष्ट्रीय स्तर पर अच्छा प्रदर्शन कर रहे थे. लेकिन ओलंपिक पदक की दिशा में बढ़ने के अपने काम से संतुष्ट नहीं होने के कारण सिंह ने और अच्छे एथलीटों को ढूंढने और उन्हें प्रशिक्षित करने के लिए कई सारे प्रयोग किए, जो कई बार असफल भी रहे. फिर भी अगर पीछे मुड़ कर देखें तो इन सभी अनुभवों से कुछ-ना-कुछ सीखने को ही मिला था.
उनका कहना हैं, ‘अंतराष्ट्रीय स्तर पर दौड़ना एक बहुत ही कठिन खेल है. दुनिया भर में यह बेहद उन्नत अवस्था में है और हम तो अभी बस उस स्तर तक पहुंचने का प्रयास ही कर रहे हैं.’
इस बारे मे और समझाते हुए वे कहते हैं कि जूनियर और राष्ट्रीय स्तर पर अच्छा प्रदर्शन करना एकदम अलग स्तर की बात है और फिर अंतरराष्ट्रीय स्तर की प्रतियोगिता में प्रवेश करना, हीट, सेमीफाइनल, फाइनल के लिए क्वालीफाई करना और फिर पदक विजेता बनना तो पूरी तरह से अलग मामला है.
उनका कहना है, ‘इस सब के लिए जमीनी स्तर से शुरुआत करना बहुत जरूरी है.‘
एक अच्छी तरह दौड़ने वाला तंत्र
इस खेल को अच्छी तरह जानने के लाभ के अलावा, एक एथलीट के रूप में सिंह के द्वारा बिताए गये दिनों ने उन्हें अपने हेड स्काउट के साथ गठजोड़ बनाने में भी मदद की, जो प्रतिभाओं को खोजने में दक्ष होते हैं.
ऊटी में प्रशिक्षण पा रहे 14 एथलीटों के अलावा, आईटीएफ 56 अन्य एथलीटों को झारखंड के विभिन्न हिस्सों में स्थानीय शिविरों के मध्यम से प्रशिक्षित करता है. ऊटी तक की 2,299 किलोमीटर की दूरी तय करने से पहले, स्थानीय कोच इस प्रशिक्षण की निगरानी करते हैं और इन बच्चों के साथ काम करते हैं.
सिंह बताते हैं कि यही वह अवधि है जो सबसे महत्वपूर्ण होती है. उन्होंने बताया कि इस दौरान स्थानीय कोचों की खोजे गये एथलीटों और उनके अभिभावकों दोनों के साथ लगातार बातचीत होती रहती है.
इसे एक सदैव विकसित होने वाली प्रक्रिया को बताते हुए, सिंह ने समझाया कि उन्हें अपने पिछले जीवन से दूर होने और उटी आने लिए तैयार करना और उन्हें इसका अर्थ बताना काफ़ी आवश्यक होता है. और सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि यह सब सही तरीके से और सही समय बिताने के बाद हो. इसलिए, इसे एक त्वरित प्रक्रिया के रूप में नही किया जा सकता.
वे कहते हैं, ‘जब आप दौड़ते हैं, तो आपको एकदम आज़ाद होने की आवश्यकता होती है, आपको आराम महसूस करने की आवश्यकता होती है. आपको खुश रहने की जरूरत है. कोई भी आपको दौड़ने के लिए मजबूर नहीं कर सकता. और कोई भी आपको इस फाउंडेशन का हिस्सा बनने के लिए मजबूर नहीं कर सकता, चाहे आप कितने भी प्रतिभाशाली क्यों ना हों. आपको यहां इसलिए रह रहे हैं क्योंकि आप यहां रहना चाहते हैं. अगर वे पूरी तरह से तैयार होकर नहीं आते हैं, तो वे ज़्यादा देर तक यहां टिक नहीं पाएँगे.’
प्रशिक्षण
ऊटी स्थित उनके घर पर सभी एथलीट डॉर्मिटरी में रहते हैं. उनकी पढ़ाई लिखाई, चिकित्सा जरूरतों, कपड़ों और भोजन से लेकर हर चीज का फाउंडेशन द्वारा हीं ध्यान रखा जाता है. इसके अलावा, उनके माता-पिता को मासिक राशन भी प्रदान किया जाता है.
आई.टी.एफ एक गैर-लाभकारी संगठन है जिसमें व्यवसायी सेतु वैद्यनाथन और यशवेंद्र चतुर्वेदी के साथ-साथ एथलीट मंजीत और सुधा सिंह भी जैसे ट्रस्टी हैं. इसे केसीटी ग्रुप, बायोमेरीक्स और एडिडास द्वारा सीएसआर फंडिंग के माध्यम से भी सहयोग प्राप्त होता है.
ऊटी में इन एथलीटों की दिनचर्या एकदम सरल और अनुशासित होती है. उनके दिन की शुरुआत सुबह 5 बजे से होती है और सभी एथलीट सुबह 6 बजे से प्रशिक्षण शुरू कर देते हैं. इसके बाद सिंह और उनके परिवार सहित पूरा घर साफ-सफाई, खाना बनाने और घास काटने जैसे दैनिक क्रियाकलाप करता है. दोपहर के भोजन के बाद सभी एथलीट पढ़ाई करते हैं, और इसके बाद एक और प्रशिक्षण सत्र के लिए तैयार हो जाते हैं. शाम में वे सभी आराम करते हैं.
सिंह के एथलीटों में से एक, 15 वर्षीय वाल्टर,अंडर -16 वर्ग में राष्ट्रीय चैंपियन है, जबकि एक अन्य, १६ वर्षीय आकांक्षा, ने इस आयु वर्ग में पदक जीता है. इन दोनों ने अंडर -20 जूनियर चैंपियनशिप में भाग लिया लेकिन उन्हें अपेक्षित परिणाम नहीं हासिल हुआ. परंतु सिंह का कहना कि यह सिर्फ़ उन्हें और बेहतर बनाने का काम करेगा.
वे कहते हैं, ‘आप केवल तभी और बेहतर होते हैं जब आप अपने से बेहतर लोगों के साथ प्रतिस्पर्धा करते हैं. अगर वे केवल अपने आयु वर्ग के लोगों के खिलाफ प्रतिस्पर्धा करेंगे तो उनमें आत्मसंतुष्टि आ जाएगी.’
खेलों को प्रोत्साहित करने के लिए संस्थागत मोर्चे रूप से क्या आवश्यक है, इस बारे में बात करने में संकोच करते हुए, सिंह कहते हैं कि उन्हें उम्मीद है कि नीरज चोपड़ा के द्वारा जीता गया ओलंपिक स्वर्ण कई और लोगों को विश्वास करने के लिए प्रोत्साहित करेगा. लेकिन उनका यह भी कहना है कि अभी और भी बहुत कुछ करने की जरूरत है.
वे कहते है, “जिस तरह से मैं इसे देख रहा हूं, हमारे देश को जमीनी स्तर पर काम करने के लिए बहुत अधिक लोगों की जरूरत है क्योंकि यहीं एक खेल संस्कृति का निर्माण होता है. हमारे पास मध्यम दूरी के ओलंपिक एथलीटों की एक पूरी श्रृंखला तैयार करने की क्षमता है. अगर मैं इस बात में विश्वास नहीं करता तो मैं यह सब नहीं कर रहा होता.’
वह बताते हैं कि 2028 के ओलंपिक में, आई. टी. एफ. के एथलीटों के भाग लेने की उम्मीद है, लेकिन उनके लिए 2032 का ओलंपिक है गेम चेंजर साबित होगा.
‘हम 2032 के ओलंपिक में पदक जीत कर लाएंगे.
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