चुशुल, लेह: जैसे जैसे आप शानदार पैंगॉन्ग झील के साथ ड्राइव करते हैं, मान गांव से गुज़रने के बाद रास्ते में पड़ने वाले होम स्टेज़ और गेस्ट हाउसेज़ की संख्या घटने लगती है. जब तक आप पूर्वी लद्दाख़ में स्थित शहर चुशुल पहुंचते हैं, झील पहाड़ों के पीछे कहीं छिप जाती है और उसकी जगह खुले मैदान नज़र आने लगते हैं.
लद्दाख़ के शुष्क और बेहद ठंडे मौसम में, हरियाली से भरे से ज़मीनी हिस्से चांग्पाओं के ज़िंदा रहने के लिए बहुत ज़रूरी हैं- ऊंचाई पर रहने वाली एक घुमंतू जाति जो चांगथांग क्षेत्र की मूल निवासी है.
चुशुल वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलओसी) से बस कुछ किलोमीटर दूर है- जो भारत और चीन के बीच की वास्तविक सीमा है. इस क्षेत्र ने पिछले कुछ हफ्तों में काफी सामरिक कार्रवाई देखी है, जिनमें सबसे ताज़ा भारतीय और चीनी सैनिकों का गोगरा-हॉट स्प्रिंग्स एरिया में, पेट्रोलिंग प्वॉइंट (पीपी) 15 से पीछे हटना शामिल है, जो 2020 के टकराव के बाद से दोनों देशों के बीच गतिरोध का बिंदु बना हुआ था.
लेकिन, चुशुल के पार्षद और स्वायत्त पर्वतीय विकास परिषद के सदस्य कोंचोक स्तांज़िन ने दिप्रिंट को बताया, कि पीछे हटने का समझौता उनके चुनाव क्षेत्र के लोगों को पसंद नहीं आया है, जिसके नतीजे उनके जीवन को बदल सकते हैं. कोंचोक ने इस मुद्दे को उठाने के लिए सोमवार को एक प्रेस कॉनफ्रेंस की. उसमें फोगरांग और मान गांवों के लोग शरीक हुए.
उन्होंने दिप्रिंट को बताया, ‘हम पीपी 16 (गोगरा) से भी हट गए हैं, जो एक दशकों पुरानी चौकी थी, और इसका मतलब है कि कुगरांग घाटी जैसे अहम चराई इलाक़े एक बफर ज़ोन बन जाएंगे.
उन्होंने आगे कहा, ‘ख़ानाबदोश बेहद नाराज़ हैं, चूंकि इसका मतलब है कि उस ज़मीन तक अब उनकी पहुंच नहीं रहेगी. पिछले कुछ दशकों में इतनी सारी ज़मीन गंवाई जा चुकी है’.
चांग्पा लोग अपने मवेशियों को चराने के लिए एक घाटी से दूसरी घाटी में घूमते रहते हैं, और मौसमों के हिसाब से गोल गोल चलते रहते हैं. गर्मियों में वो ऊपर पहाड़ियों पर जाते हैं, जहां बर्फ पिघलने से हरी भरी घास उग जाती है. सर्दियों में जब तापमान शून्य से 30 डिग्री सेल्सियस नीचे आकर जम जाता है- तो वो मैदानों में पशु चराते हैं.
लद्दाख़ी ख़ानाबदोशों के लिए 1962 के बाद से चरागाहें सिकुड़ती चली आ रही हैं, जब भारत-चीन युद्ध फूट पड़ा था. विशेषज्ञों का कहना है कि चीन के साथ उबल रहे तनाव के अलावा, धीरे धीरे हो रहे जलवायु परिवर्तन, विकास, और आबादियों के बदलाव ने, आहिस्ता आहिस्ता इन चरागाहों की गुणवत्ता को प्रभावित किया है.
एक चरवाहे और चुशुल के पूर्व काउंसलर नामग्याल फुंतसोग ने, जो 2015 में रिटायर हो गए थे, कहा, ‘पहले, सभी परिवार घुमंतू हुआ करते थे. अब वो घटकर क़रीब 60 प्रतिशत रह गए हैं. लोग यहां से छोड़कर शहरों में जा रहे हैं, या सीमा सड़क संगठन (बीआरओ) (एक सड़क निर्माण बल) के साथ मज़दूरी कर रहे हैं, क्योंकि पशु चराने से गुज़ारा मुश्किल हो रहा है. इस बारे में तत्काल कुछ किए जाने की ज़रूरत है’.
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सिकुड़ती चरागाहें
चुशुल गांव के नेता कोंचोक ईशे ने अपने घर के बाहर खड़े होकर पहाड़ी चोटियों की ओर इशारा करते हुए कहा, ‘पहले हम अपने मवेशियों को चराने के लिए ऊपर रेज़ांग ला और ब्लैक टॉप तक चले जाते थे, लेकिन अब वो हमें उन इलाक़ों के नीचे तक भी नहीं फटकने देते’.
आठ साल पहले तक ईशे के परिवार के पास 600 से अधिक भेड़ बकरियां हुआ करती थीं. आज उनके पास सिर्फ 280 हैं. इस घटती संख्या का कारण ईशे सिकुड़ती चरागाहों को बताते हैं.
उन्होंने आगे कहा, ‘अगर ऐसा ही चलता रहा तो हमें अपने पशुओं को बेंचकर चरवाहे के काम को पूरी तरह छोड़ने पर विचार करना पड़ेगा. हमारे लिए ये एक बहुत कठिन स्थिति है’. उन्होंने आगे कहा,‘हमारे गांव में दो या तीन घरों ने पशुधन पालना पूरी तरह छोड़ दिया है’.
पूर्वी लद्दाख़ के ख़ानाबदोश बेहद कठिन मौसमी हालात सहन करते हुए, उच्च क्वालिटी की पशमीना हासिल करते हैं- बकरी के महीन बाल जिन्हें प्रोसेस करके लग्ज़री शॉलें और दूसरी चीज़ें बनाई जाती हैं. न्योमा इलाक़े में चांग्पा ख़ानाबदोशों के चलने-फिरने पर नज़र रखने वाली रिसर्च में पाया गया है, कि अपने पशुओं को चराने के लिए ये लोग एक से दूसरी चरागाह में जाते हुए, पूरे साल में क़रीब 135 किलोमीटर का सफर तय कर लेते हैं.
पर्यटन के अलावा, इलाक़े के लिए पशमीने का उत्पादन आमदनी का एक प्रमुख ज़रिया है. लद्दाख़ में हर साल क़रीब 50 टन पशमीना पैदा किया जाता है.
लेह-स्थित एक रिसर्चर सुनेत्रो घोषाल जिन्होंने चांग्पा लोगों के साथ काम किया है, ने कहा, ‘चांग्पा लोगों ने पिछली कई सदियों में ख़ुद को इस ठंडी जलवायु में ढालने के तरीक़े निकाल लिए हैं. वो लगातार चरागाहों की क्वालिटी और उनके स्वास्थ्य पर नज़र रखते हैं, और उन्होंने सूखे तथा टिड्डियों के हमलों से निपटने के तरीक़े निकाल लिए हैं’.
हालांकि चुशुल इलाक़े में ये सिर्फ बदलती जलवायु ही नहीं, बल्कि बॉर्डर का तनाव भी है जिसकी वजह से घुमक्कड़ों का आना जाना सीमित हो गया है.
काउंसलर स्तांज़िन के अनुसार, चुशुल के ज़्यादातर चराई क्षेत्र 2020 के बाद विवाद में आ गए हैं. उनकी दलील है कि इस कारण से चरवाहों के लिए अपने जानवरों की देखभाल करना मुश्किल हो रहा है, जो ऐसे अत्यधिक तापमान में असुरक्षित होते हैं, और उचित देखभाल के अभाव में उनकी मौत हो सकती है.
फुंतसोग ने कहा, ‘हम घुमंतू लोग जानते हैं कि हमारी चराई ज़मीनें कितनी दूर तक फैली हुई हैं, और हमें पता है कि चराई के लिए कहां जाना है. लेकिन जब हम किसी इलाक़े में जाते हैं, तो अचानक सेना भी पीछे पीछे अपनी ड्यूटी करने वहां पहुंच जाती है. हम कोई मुसीबत खड़ी करने के लिए सीमा के पार नहीं जा रहे हैं- हम जाते हैं, चराते हैं, और वापस आ जाते हैं, जो हमारा अधिकार है’.
पिछले महीने चीनी सैनिकों ने भारतीय चरवाहों को डेमचोक की एक चरागाह में कथित तौर पर ये कहकर घुसने से रोक दिया, कि वो उनका इलाक़ा है. हालांकि मामले को शांति के साथ सुलझा लिया गया, लेकिन चुशुल के चरवाहों ने दिप्रिंट को बताया, कि उनका अनुभव ये है कि ज़्यादातर ये भारतीय सेना थी, जिसने उन्हें ऐतिहासिक चरागाहों में जाने से रोका था.
स्तांज़िन ने कहा, ‘ख़ानाबदोशों का आना जाना भारत के लिए बातचीत का एक बिंदु बन जाता है. बहुत ज़रूरी है कि सेना चरवाहों को वहां तक जाने दे, जहां वो पहले जाया करते थे. ख़ानाबदोश सरकार और सेना के अच्छे सहयोगी रहे हैं. ये ज़मीन (जो अब बफर ज़ोन में है) बहुत महत्वपूर्ण है’.
निरंतर बदलता इलाक़ा
चराई के लिए जो चरागाहें बची हैं उन्हें हाल के दशकों में जलवायु संबंधी और मानवजनित दोनों दबाव झेलने पड़े हैं. 1950 के दशक में तिब्बती शर्णार्थियों का तांता- जो सीमावर्त्ती तनावों के चलते शुरू हुआ- अपने पशुधन के साथ चांगथांग क्षेत्र की चरागाहों में आकर बस गया, जिससे ज़मीन और विभाजित हो गई. रिसर्च से पता चलता है कि 1950 और 2006 के बीच, अकेले चुशुल की आबादी 178 प्रतिशत बढ़ गई.
एक ग़ैर-सरकारी वन्यजीव संरक्षण एवं अनुसंधान संगठन- नेचर कंज़र्वेशन फाउण्डेशन के वैज्ञानिक यश वीर भटनागर ने कहा, ‘बड़ी संख्या में शर्णार्थियों और उनके पशुधन के आने का मतलब था, कि एक पशु के लिए चराई की जगह कम हो गई. इसका असर वन्य जीवन पर भी पड़ा क्योंकि शाकाहारी जानवरों में चरागाहों की घास के लिए प्रतिस्पर्धा होने लगी’.
चांगथांग क्षेत्र एक शीत मरुस्थल का ईकोसिस्टम है, जहां कई लुप्तप्राय प्रजातियां कहती हैं, जैसे कि हिमालयी भेड़िया, हिम तेंदुआ, और कियांग या गधे जैसे खुरदार प्राणी.
भटनागर और संरक्षण विद त्सेवांग नामगैल ने पाया कि पशमीना उत्पादन को प्रोत्साहन के साथ, 1980 के दशक से चरवाहे ज़्यादा पारंपरिक याक या भेड़ों की अपेक्षा, पशमीना बकरियां रखना पसंद करते हैं.
घोषाल के अनुसार, इसके नतीजे में चांग्पा ख़ानाबदोश इनमें से कियांग जैसी कुछ जंगली प्रजातियों के साथ अपने रिश्तों को ‘फिर से तोल रहे हैं’, क्योंकि चरागाहों के आकार सिकुड़ रहे हैं, या उनमें कटाव हो रहा है.
एक 66 वर्षीय चांग्पा कर्मा ताशी ने बरसों पहले पशु चराने का काम छोड़ दिया था. उनका कहना था कि मंडराने वाला एक और ख़तरा है मौसम के अप्रत्याशित पैटर्न्स.
उन्होंने कहा, ‘लड़ाई के दौरान जो बर्फ जमती थी वो बहुत मोटी होती थी, और घास बहुत अच्छी होती थी. पिछले कुछ सालों में हम कम बर्फ देख रहे हैं, बर्फबारी भी समय पर नहीं हो रही है, और मैदानों में घास जल्दी ख़त्म हो जा रही है’.
सिंचाई की अपनी ज़रूरतों के लिए लद्दाख़ बर्फ पिघलने पर निर्भर करता है, लेकिन (जम्मू-कश्मीर के साथ) उसने अपना कम से कम 70.32 गीगा टन ग्लेशियर मास गंवा दिया है. 2018 की एक स्टडी में पता चला था कि 1971 से 2017 के बीच, लद्दाख़ का सबसे बड़ा ग्लेशियर 13.84 प्रतिशत सिकुड़ गया था.
इसका चट्टानी भूभाग ज़्यादा बारिशें नहीं झेल सकता, लेकिन रिसर्च से पता चलता है कि बारिशों में इज़ाफा हुआ है, जिससे अपवाह और बाढ़ भी ज़्यादा देखी गई हैं.
भटनागर ने समझाया कि जब बर्फबारी हल्की होती है, तो पानी जल्दी पिघल जाता है और मैदानों में नीचे नहीं रिसता, जिससे क्षेत्र में कुछ पौधों के फूलों का सीज़न प्रभावित होता है.
उन्होंने कहा, ‘गर्मी के महीनों में अगर कोई नमी न हो, और उसकी बजाय वो मॉनसून के महीनों में बारिश की शक्ल में आ जाए, तो पौधों पर फूल आने के लिए पर्याप्त समय नहीं मिलता, जिससे चरागाह की संरचना पर असर पड़ सकता है’.
भटनागर ने कहा कि गर्म होती जलवायु ने यहां एक और चीज़ की गुंजायश पैदा कर दी है, जो आमतौर पर इस क्षेत्र में पहले नहीं दिखती थी- और वो है खेती. हालांकि अधिकतर परिवार अपने पेट भरने के लिए खेती करते हैं, लेकिन पूरे पूर्वी लद्दाख़ में कृषि का विकास हुआ है, आंशिक रूप से इसलिए कि जलवायु अब इसकी इजाज़त देती है.
‘अधिक समावेशी विकास की ज़रूरत’
दिप्रिंट के साथ बात करने वाले चुशुल टाउन के चांग्पा ख़ानाबदोशों ने इलाक़े में और अधिक विकास देखने की इच्छा ज़ाहिर की. इस साल के बजट के दौरान केंद्र सरकार ने ‘वाइब्रेंट विलेज प्रोग्राम’ नाम से एक योजना का ऐलान किया, जो सीमा क्षेत्र विकास कार्यक्रम (बीएडीपी) की तरह होगी, और जिसमें ‘सड़कों और पुलों, स्वास्थ्य, शिक्षा, कृषि, खेलों, पेयजल, और स्वच्छता जैसी ग्रामीण इनफ्रास्ट्रक्चर से जुड़ी’ निर्माण परियोजनाओं पर फोकस किया जाएगा.
एक चांग्पा कुंबई न्योमा, जो 200 भेड़ों, याकों और बकरियों के रेवड़ के मालिक हैं, सरकार द्वारा बनाई गई पूर्व-निर्मित हट की मिसाल देते हैं, जिसका ढांचा याक की ऊन से बनाए गए उन टेंटों से ज़्यादा मज़बूत होता है, जिनमें चांग्पा चरवाहे आमतौर से सर्दी की चरागाहों में रहते हैं, जहां वो अपने जानवरों को चराते है. सर्दियों में दूर तक जाने वाले ख़ानाबदोश, आसरे के लिए अब हट का इस्तेमाल करते हैं.
उन्होंने कहा, ‘ये टेंट वॉटर प्रूफ होता है, सर्दियों में ये थोड़ा गरम भी रहता है. अगर सरकार ऐसे कुछ और टेंट ले आए, तो अच्छा रहेगा’.
ज़्यादा विकास और पर्यटन का मतलब है कि चांग्पा लोगों की जीवनशैली और संस्कृति संभवत: ज़्यादा सुस्त हो जाएगी. त्सेरिंग तोंदोप ने तीन साल पहले चरवाहे का काम छोड़ दिया था, और अब वो अपने छह बच्चों के सहारे है- चार भारतीय सेना के साथ हैं, एक ड्राइवर है, और छठा घर पर रहता है.
उसने कहा, ‘चराई ज़मीन कम हो जाने की वजह से मेरे जानवरों की मृत्यु दर बहुत ऊंची थी’. उसने आगे कहा कि उसके बच्चे घुमंतू जीवन नहीं जीना चाहते थे. ‘वो स्थायी नौकरियां चाहते थे, इसलिए वो चले गए’.
काउंसलर स्तांज़िन के अनुसार लेह शहर की ओर होने वाले प्रवास को रोका जा सकता है, अगर ख़ानाबदोशों को यहां रुकने के लिए प्रोत्साहन दिए जाएं, जैसे आय की गारंटी या बेहतर बुनियादी सुविधाएं.
घोषाल भी मानते हैं कि नीतियां ख़ानाबदोशों की ज़रूरतों के हिसाब से बनाई जानी चाहिएं.
घोषाल ने कहा, ‘बहुत सी नीतियों में घुमंतू जीवनशैली का पर्याप्त ख़याल नहीं रखा जाता. कुछ साल पहले, कच्चा पशमीना हासिल करने के लिए बाल काटने का एक प्लांट लेह में लगाया गया था, और इस बात का बिल्कुल ख़याल नहीं रखा गया, कि ख़ानाबदोशों को वहां तक पहुंचने का ख़र्च वहन करना पड़ेगा. ये एक चुनौती है, लेकिन ख़ानाबदोशों का जीवन निरंतर बदलता रहता है, इसलिए उनसे जुड़ी नीतियों में उनकी आवाज़, और उनकी ज़रूरतों को शामिल किया जाना चाहिए’.
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