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Sunday, 22 December, 2024
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अनुच्छेद-370 निरस्त होने के बाद से अपनी पहचान के लिए लड़ रहा है लद्दाख, तीन साल में किए कई प्रयास

लद्दाख के लोगों का कहना है कि उन्हें जम्मू-कश्मीर से आज़ादी तो मिली लेकिन उसकी बहुत बड़ी कीमत उन्हें चुकानी पड़ी. वे चाहते थे कि लद्दाख को केंद्र शासित प्रदेश तो बनाया जाए लेकिन विधानसभा के साथ.

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अगस्त 2019 में जब मोदी सरकार ने जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद-370 हटाया तो लद्दाख को यूनियन टेरिटरी का दर्ज़ा मिला, जिसके बाद लद्दाख में लेह की पहाड़ियों पर रहने वाले लोगों ने नाच-गाकर जश्न मनाया. लेकिन अब लद्दाख के लोग अपने अस्तित्व की लड़ाई के लिए प्रदर्शन कर रहे हैं.

लद्दाख के लोगों का कहना है कि उन्हें जम्मू-कश्मीर से आज़ादी तो मिली, लेकिन उसकी बहुत बड़ी कीमत उन्हें चुकानी पड़ी. वे चाहते थे कि लद्दाख को केंद्र शासित प्रदेश बनाया जाए लेकिन विधानसभा के साथ. फिलहाल लद्दाख के लोग अपने कल्चर, अपनी ज़मीन की पहचान और पर्यावरण के लिए आवाज़ उठा रहे हैं.

लद्दाख से उठ रही इस आवाज़ ने ज्यादा जोर तब पकड़ा जब इंजीनियर, एजुकेशन रिफोर्मिस्ट और मेगसैसे अवार्ड से सम्मानित सोनम वांगचुक ने इसके लिए पांच दिनों का सांकेतिक क्लाइमेट फास्ट रखा. सोनम वांगचुक ही वह शख्स है जिनके जीवन से प्रेरणा लेकर थ्री इडियट्स फिल्म का किरदार फुनसुख वांगड़ु लिखा गया था. 26 जनवरी को सोनम वांगचुक ने अपने इस 5 दिनों के क्लाइमेट फास्ट की शुरुआत की थी जिसे पूरे लद्दाख से समर्थन मिला था.

साल 2019 में सोनम वांगचुक ने एक ट्वीट कर लद्दाख को केंद्रीय शासित प्रदेश बनाने के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का धन्यवाद किया था.

लेकिन अब उनमें गुस्सा देखने को मिल रहा है.

सोनम वांगचुक भी लद्दाख के उन तमाम लोगों में शामिल हैं जिन्हें लगता है कि केंद्र सरकार ने उनसे जो वादा किया था उसे पूरा नहीं किया और बाहर के लोगों के हाथों में सत्ता दे दी है जो न लद्दाख को समझते हैं और न ही यहां के लोगों को. उनका कहना है कि लद्दाख में रोजगार की कमी है और राजनीतिक प्रतिनिधित्व की भी.


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सरकार से मांग

बुधवार को जब दिप्रिंट ने पहाड़ों के बीचो-बीच मैदान पर सोनम वांगचुक के मिट्टी और लकड़ी से बने घर का दौरा किया तो उनके चेहरे पर एक शांति दिखाई दी. क्लाइमेट फास्ट अब खत्म हो चुका है, लेकिन लद्दाख और यहां के लोगों के संरक्षण की लड़ाई अभी बची है.

सोनम वांगचुक ने कहा, “हम कुछ भी गैर-कानूनी नहीं मांग रहे हैं. वही मांग रहे हैं, जिसका वादा सरकार ने किया था लेकिन अब वो हमें नज़रअंदाज कर रहे हैं.”

लद्दाख से उठ रही तमाम मागों में सबसे अहम है लद्दाख को शिड्यूल-6 में शामिल करने की. जो लद्दाख में मौजूद जिला काउंसिलों को खास अधिकार देगा, जिसके बाद इन काउंसिल के पास इलाके में ज़मीन, जंगल समेत अन्य चीजों में कानून बनाने का अधिकार होगा.

यह प्रोविज़न संविधान के अनुच्छेद-244 में शामिल है जो किसी इलाके में मौजूद आदिवासी जनजाति के कल्चर को बचाने और विकास के लिए है.

वांगचुक ने बताया कि शिड्यूल-6 के बिना लद्दाख की नाज़ुक पारिस्थिति उद्योगों के प्रवाह से गंभीर रूप से प्रभावित हो सकती है.

वांगचुक ने कहा, “हम पहले ही सरकार को बता रहे हैं कि लद्दाख देश के बाकी हिस्सों की तरह नहीं है. ये अलग है. यहां पर्यटक आते हैं तो भी बोझ बढ़ जाता है. अगर कोई बड़ा उद्योग आता है, तो लद्दाख इसे सहन नहीं कर पाएगा और इसलिए हम शिड्यूल-6 की मांग कर रहे हैं.”

हिमालयन इंस्टीट्यूट ऑफ अल्टरनेटिव्स (एचआईएएल) की ओर इशारा करते हुए साइनबोर्ड, लद्दाख के फयांग में सोनम वांगचुक द्वारा स्थापित एक शैक्षणिक संस्थान | नूतन शर्मा | दिप्रिंट

उन्होंने यह भी दावा किया कि लद्दाख के लिए आवंटित किया गया बजट भी ठीक से इस्तेमाल नहीं किया जाता.

वांगचुक ने कहा, “उपराज्यपाल और नौकरशाह दो-तीन साल के लिए यहां आते हैं और जब तक वे इस जगह को समझते हैं, तब तक जाने का समय हो जाता है. वो नहीं जानते कि बजट कैसे खर्च किया जाए.”

लद्दाख में विरोध प्रदर्शन

ऐसे मुद्दों को उठाने वाली वांगचुक अकेले नहीं हैं. 2021 से, लेह एपेक्स बॉडी (एलएबी) और कारगिल डेमोक्रेटिक एलायंस (केडीए) नामक दो संगठन लगातार लद्दाख के लिए अधिक सुरक्षा उपायों और स्वायत्तता की मांग कर रहे हैं. दो निकायों – जिनमें राजनीतिक और धार्मिक नेता, संघ कार्यकर्ता, साथ ही युवा और महिला संगठन शामिल हैं- इन्होंने पिछले महीने जम्मू में एक बड़ा विरोध प्रदर्शन भी किया था.

केडीए के सदस्य सज्जाद कारगिली ने कहा, “हमारी चार मांगें हैं जो हम लंबे समय से उठा रहे हैं – राज्य का दर्जा, छठी अनुसूची के तहत संवैधानिक सुरक्षा, लेह और कारगिल जिलों के लिए अलग लोकसभा सीटें और स्थानीय लोगों के लिए नौकरी में आरक्षण.” दिप्रिंट से बातचीत में उन्होंने कहा, “ये हमारी नहीं बल्कि लद्दाख में सभी लोगों की मांगें हैं.”

लद्दाख को यूटी का दर्जा देना कई लोगों की इच्छा पूरी होने जैसा था. उम्मीद यह थी कि पुडुचेरी और दिल्ली जो विधानसभाओं के साथ केंद्र शासित प्रदेश हैं की तर्ज पर यह सरकारी धन और संसाधनों तक पहुंच को बढ़ावा देगा, प्रशासन में सुधार करेगा और संसद में बेहतर प्रतिनिधित्व की ओर ले जाएगा.

हालांकि, जब से यह अक्टूबर 2019 में आधिकारिक रूप से केंद्र शासित प्रदेश बना, जम्मू-कश्मीर की तरह, लद्दाख को उपराज्यपाल के माध्यम से केंद्र सरकार द्वारा शासित किया गया है लेकिन इसे कोई विधानसभा नहीं दी गई.

आंदोलन में शामिल लद्दाख बुद्धिस्ट एसोसिएशन के वाइस-चेयरमैन शेरिंग दोर्जे लकरूक ने कहा कि वह पहले लद्दाख को यूटी का दर्जा दिए जाने को लेकर खुश थे, लेकिन उसके बाद से उनका मोहभंग हो गया.

शेरिंग दोर्जे लकरूक ने बताया, “हम तीन साल से संघर्ष कर रहे हैं. हमने जो सोचा वो नहीं हुआ. हम यूटी प्लस विधायिका मांग रहे थे, लेकिन हमें बिना विधायिका वाला यूटी मिला. इसके कारण, भूमि सुरक्षा और नौकरियों सहित जो लाभ हमें पहले (अनुच्छेद 370 के तहत) मिलते थे, वे खत्म हो गए हैं.”

स्थानीय लोगों का कहना है कि जम्मू-कश्मीर से अलग होने से पहले उनकी जमीन और संस्कृति कम से कम सुरक्षित तो थी. अब, वे कहते हैं कि कोई भी उनकी ज़मीन पर आ सकता है, प्रोजेक्ट शुरू कर सकता है और उनके सीमित संसाधनों का उपयोग कर सकता है.

स्थानीय निवासी मोहम्मद फारूक कहते हैं, “अभी, लगभग 3 लाख लोग लद्दाख में सीमित संसाधनों के साथ रहते हैं, लेकिन अगर कोई बड़ी परियोजना है और सैकड़ों लोग आने लगे, तो हम उसके बारे में कुछ नहीं कर सकते. कम से कम, अलग होने से पहले, हमारी ज़मीनें सुरक्षित थीं.”

फारूक लेह के माल रोड के मुख्य बाज़ार में टहल रहे थे, जहां बैकग्राउंड में पैने सफेद पहाड़ बाजार की तरफ झांक रहे थे. महिला विक्रेता फुटपाथ पर सब्जी और फल बेचने में व्यस्त थीं, यह पर्यटकों का मौसम नहीं है, इसलिए कई दुकानें बंद थीं.

ऑफ सीज़न में लेह का मुख्य बाज़ार वीरान नज़र आता है | नूतन शर्मा | दिप्रिंट

74-वर्षीय रियाज़ अहमद उन कुछ दुकानों में से एक को चलाते हैं जो अभी भी खुली हैं. उन्होंने बताया कि लद्दाख के केंद्र शासित प्रदेश बनने पर जश्न मनाने वालों में वह भी शामिल थे, लेकिन उनकी भावनाएं भी अब बदल गई हैं.

रियाज़ कहते हैं, “लद्दाख की सीमा चीन और पाकिस्तान दोनों से जुड़ी हुई है. हम बिना वर्दी के सिपाही हैं. हम तन, मन और धन से देश की सेवा के लिए तैयार हैं. हम बस इतना चाहते हैं कि सरकार हमें छठी अनुसूची के माध्यम से सुरक्षा प्रदान करे ताकि हमारी भूमि और संस्कृति सुरक्षित रहे. पूरा भारत एक परिवार की तरह है और लद्दाख इस परिवार का चौकीदार है.”

उन्होंने कहा कि उनके पिता एक स्वतंत्रता सेनानी थे, “हम चाहते हैं कि सरकार हमें वह दे जिसके हम हकदार हैं.”


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शिड्यूल-6 की मांग और भूले वादे

अनुच्छेद-370 के निरस्त किए जाने के साथ, उपराज्यपाल के अधिभावी अधिकार के कारण LAHDC के पास और भी कम सार्थक शक्तियां हैं.

लद्दाख में वर्तमान में दो निर्वाचित परिषदें हैं, लेकिन उनके पास स्थानीय प्रशासन पर सीमित शक्तियां है. एक निकाय भाजपा के नेतृत्व वाली लद्दाख स्वायत्त पर्वतीय विकास परिषद (लेह) है और दूसरी राष्ट्रीय सम्मेलन के नेतृत्व वाली लद्दाख स्वायत्त पर्वतीय विकास परिषद (कारगिल) है. दो एलएएचडीसी में से प्रत्येक में 30 काउंसलर हैं.

ये शिड्यूल-6 के अंतर्गत नहीं आते हैं जो जिला परिषदों को कुछ विधायी, न्यायिक और प्रशासनिक शक्तियां प्रदान करती है. यह प्रावधान वर्तमान में केवल मिज़ोरम, मेघालय, असम और त्रिपुरा सहित कुछ पूर्वोत्तर राज्यों में मुख्य रूप से आदिवासी क्षेत्रों तक फैला हुआ है.

गौरतलब है कि सितंबर 2019 में राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग (एनसीएसटी) ने सरकार को पत्र लिखकर लद्दाख को छठी अनुसूची में शामिल करने की सिफारिश की थी.

लद्दाख में छठी अनुसूची के विस्तार की मांग को लेकर सोनम वांगचुक के अनशन के दौरान लेह एपेक्स बॉडी और कारगिल डेमोक्रेटिक एलायंस के सदस्यों ने उनका समर्थन किया | Twitter/@SajjadKargili_

आयोग ने बताया था,  “लद्दाख क्षेत्र में कुल जनजातीय आबादी 97 प्रतिशत से अधिक है”. इसने यह भी कहा कि छठी अनुसूची के तहत इसे शामिल करने से “शक्तियों का लोकतांत्रिक हस्तांतरण”, क्षेत्र की संस्कृति को संरक्षित करने, भूमि अधिकारों की रक्षा करने और “विकास के लिए धन के हस्तांतरण में वृद्धि” की अनुमति मिलेगी.

इसके बाद, 2020 में, केंद्रीय मंत्री अनुराग ठाकुर ने दावा किया था कि केंद्र सरकार लोगों की भूमि, संस्कृति और “अद्वितीय पहचान” को संरक्षित करने के लिए लद्दाख में छठी अनुसूची का विस्तार करने के लिए “प्रतिबद्ध” थी. तब से, हालांकि, सरकार इस मुद्दे पर गैर-प्रतिबद्ध बनी हुई है, जिससे क्षेत्र में असंतोष बढ़ रहा है.

इस बात को लेकर गुस्सा है कि लद्दाख के लोगों की अभी भी प्रतिनिधित्व की कमी है और नीति-निर्माण में उनकी भूमिका बहुत कम है, जो अब काफी हद तक सरकारी अधिकारियों के हाथों में है. कई लोगों का यह भी मानना ​​है कि जब अनुच्छेद 370 लागू था तब स्थिति बेहतर थी, क्योंकि इसने उनकी भूमि के लिए कुछ सुरक्षा उपाय प्रदान किए थे.

पिछले साल, दोनों पहाड़ी विकास परिषदों ने भी लद्दाख के लिए छठी अनुसूची जैसी स्थिति की मांग करते हुए अलग-अलग प्रस्ताव पारित किए थे.

पर्यावरण और बेरोजगारी को लेकर समस्याएं

ग्लेशियरों के पिघलने से पानी का संकट पैदा हो रहा है और चरागाहों के सिकुड़ने से आजीविका खतरे में है, लद्दाख पहले से ही जलवायु परिवर्तन के प्रभाव को झेल रहा है.

एक्टिविस्ट्स को डर है कि अगर लोगों के पास अपनी जमीन की रक्षा करने का कोई रास्ता नहीं है या विकास कैसे हो रहा है इसकी जानकारी नहीं हो और बजट कैसे खर्च हो रहा है ये भी नहीं पता है तो चीजें बहुत खराब हो सकती हैं.

लेह एपेक्स बॉडी के यूथ कॉर्डिनेटर स्टैनज़िन चोस्फेल ने कहा, “कोई इसके बारे में बात नहीं करता है. 20 साल पहले जो ग्लेशियर थे, वे अब नहीं हैं. वे बहुत तेजी से पिघल रहे हैं लेकिन हम केवल राजनीति कर रहे हैं.”

लकरूक कहते हैं, “लद्दाख में एक सौर ऊर्जा परियोजना आई. निर्णय किसने लिया? हमारे लोगों ने नहीं. यदि लद्दाख छठी अनुसूची के दायरे में आता है, तो हमें पता चल जाएगा कि ऐसी परियोजनाएं कहां स्थापित की जाएं, ताकि पर्यावरण को नुकसान न पहुंचे.”

लद्दाख की पुगा घाटी में एक सोलर परियोजना के स्थल की प्रतिकात्मक तस्वीर | फोटो: प्रवीण जैन | दिप्रिंट

लद्दाख की एक और बड़ी समस्या बेरोज़गारी है. अधिकांश लोग रोज़गार के लिए सरकार पर निर्भर हैं क्योंकि निजी क्षेत्र या उद्योगों में अवसर कम हैं.

ऑल लद्दाख बेरोजगारी युवा संघ (एएलयूवाईए) नामक एक स्थानीय संगठन के अध्यक्ष टुंडुप थिनलास ने कहा, “लद्दाख देश के उन प्रदेशों में से है जहां बेरोज़गारी दर सबसे अधिक है. युवा नौकरी के लिए सरकार पर निर्भर हैं. हम यूटी बनने के बाद नौकरी की उम्मीद कर रहे थे. लेकिन राजपत्र स्तर पर एक भी पोस्टिंग नहीं है, ”

उन्होंने कहा, “हम सीमित संसाधनों पर रहते हैं, हम अपने क्षेत्र में कम से कम नौकरी की सुरक्षा के हकदार हैं.”

अभी तक, लद्दाख में सरकारी नौकरियों के लिए भर्ती निकाय नहीं है. लेह एपेक्स बॉडी और केडीए की मांगों में से एक लद्दाख के लिए एक लोक सेवा आयोग की स्थापना करना है.

‘नौकरशाहों के अधीन लद्दाख’

लद्दाख में एक बार-बार की जाने वाली शिकायत यह है कि सिविल सेवकों को लद्दाख के लिए महत्वपूर्ण निर्णय लेने और आवंटित बजट का अधिकांश हिस्सा खर्च करने का काम सौंपा गया है.

लकरूक कहते हैं, “अब हम केवल नौकरशाहों के अधीन हैं. हमें लगभग 6,000 करोड़ रुपये की राशि मिलती है. लेह और कारगिल परिषदों को केवल 500 करोड़ रुपये मिलते हैं और नौकरशाह तय करते हैं कि बाकी पैसा कहां खर्च किया जाना है.”

वांगचुक भी कई बार यही आरोप लगा चुके हैं.

वांगचुक कहते हैं, “केंद्र सरकार ने हमें 6,000 करोड़ रुपये दिए, लेकिन वे यह तय नहीं कर सके कि इसे कहां खर्च किया जाए. यह लैप्स हो गया क्योंकि उन्हें नहीं पता कि लद्दाखी लोगों के लिए उस पैसे का क्या किया जाए.”

केंद्र सरकार ने वित्त वर्ष 2020-21 के लिए लद्दाख के लिए 5,958 करोड़ रुपये के आवंटन की घोषणा की थी. 2022-23 और 2023-24 के लिए भी इतनी ही राशि की घोषणा की गई थी.

केडीए के सज्जाद कारगिली ने आगे आरोप लगाया कि “नौकरशाह लद्दाख को चला रहे हैं” और यहां तक ​​कि प्रशासनिक और अन्य मामलों पर पहाड़ी परिषदों को दरकिनार कर दिया गया.

इन आरोपों के बारे में पूछे जाने पर, लद्दाख के संभागीय आयुक्त सौगत बिस्वास ने कहा कि “यह कहना गलत है कि नौकरशाह मनमानी करते हैं” उन्होंने बताया कि निर्णय लेने में लोगों को शामिल करने के प्रयास किए गए.

बिस्वास कहते हैं, “हमारे द्वारा किए जाने वाले सभी ग्रामीण विकास कार्यों में लद्दाख के लोगों से सलाह ली जाती है. प्रस्ताव ग्राम पंचायतों, ब्लॉक विकास परिषदों और एलएएचडीसी के पार्षदों से आते हैं. मान लीजिए किसी गांव में बिजली की सुविधा बढ़ाने की ज़रूरत है तो लोगों की ओर से बिजली विकास विभाग के पास यही फीडबैक आता है. या, अगर कोई टेलीफोन टावर नहीं है, तो लोगों की ओर से संबंधित विभाग को फीडबैक आता है, जहां इस पर कार्रवाई की जाती है.”

वो कहते हैं, “विभिन्न बुनियादी ढांचे और सुविधाओं की जरूरत लोगों से आती है. प्रशासन ने कैपेक्स और राजस्व व्यय दोनों के लिए धन आवंटित करके निर्वाचित ब्लॉक विकास परिषदों और पंचायतों को वित्तीय रूप से सशक्त बनाया है.”

पिछले महीने, गृह मंत्रालय (एमएचए) ने “भौगोलिक स्थिति और इसके सामरिक महत्व को ध्यान में रखते हुए क्षेत्र की अनूठी संस्कृति और भाषा की रक्षा के उपायों पर चर्चा करने के लिए” एक 17 सदस्यीय समिति का गठन किया.

जबकि दो एलएएचडीसी ने कथित तौर पर इस कदम का “स्वागत” किया, लेह एपेक्स बॉडी और कारगिल डेमोक्रेटिक एलायंस इससे प्रभावित नहीं हैं.

पूर्व सांसद और लेह एपेक्स बॉडी के सदस्य थुपस्तान छेवांग ने कहा, “हम इस समिति की संरचना से संतुष्ट नहीं थे. उन्होंने ‘संवैधानिक सुरक्षा उपायों’ की पेशकश की और हम छठी अनुसूची चाहते हैं. यह वह है जो परिषद को कानून बनाने की शक्ति देगा.”

वो पूछते हैं, “जब आदिवासी आबादी के लिए संविधान में छठी अनुसूची का प्रावधान है, तो हमें एक और सुरक्षा देने की बात क्यों हो रही है? हमने गृह मंत्रालय को पत्र लिखकर अपनी समस्याओं के बारे में बताया है और अब हम उनके जवाब का इंतजार कर रहे हैं.”

(इस खबर को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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